चतुर्मुखी-ब्रह्मा

July 1946

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विष्णु- संसार में एक संतुलन शक्ति भी काम कर रही है। जो किसी वस्तु की अतिवृद्धि को रोककर उसे यथास्थान ले आती है। संसार की सुन्दरता और वैभव शालीनता को वह कुरूपता और विनाश से बचाती है। प्रजनन शक्ति को ही लीजिये। एक-एक जोड़ा कई-कई बच्चे पैदा करता है, यदि यह वृद्धि पीढ़ी दर पीढ़ी निर्वाध गति से चलती रहे तो थोड़े ही दिन में सारी पृथ्वी इतनी भर जाय कि संसार में प्राणियों को खड़ा होने के लिए भी जगह न मिले। मछली एक वर्ष में करीब सत्रह हजार अंडे देती है, मक्खी, मच्छर, जैसे कीट पतंग एक हजार से लेकर साठ हजार तक अंडे प्रति वर्ष देते हैं। वे अंडे एक दो सप्ताह में ही पककर बच्चे की शकल में आ जाते हैं और फिर दो चार हफ्ते बाद ही वे भी अंडे देने लगते हैं। इनकी एक ही साल में प्रायः आठ पीढ़ी हो जाती हैं, यदि यह सब बच्चे जीवित रहे तो दस पाँच साल में ही सारा संसार उनमें से एक जाति के रहने के लिए भी पर्याप्त न रहेगा, चींटी, दीमक, टिड्डी आदि कीड़े भी बड़ी तेजी से बढ़ते हैं। सुअर, बकरी आदि भी तेजी से प्रचुर संतान वृद्धि करते हैं। एक जोड़ा स्त्री-पुरुष भी औसतन आठ दस बच्चे पैदा करता है। यह अभिवृद्धि यदि न रुके तो संसार के सम्मुख दस पाँच वर्ष में ही बड़ी विकट परिस्थिति उत्पन्न होकर खड़ी हो सकती है। परन्तु लाखों करोड़ों वर्ष प्राणियों को इस पृथ्वी पर हो गए, ऐसी परिस्थिति कभी भी उत्पन्न नहीं हुई। सृष्टि की संतुलन शक्ति उस विषमता को उत्पन्न होने से रोके रहती है। दुर्भिक्ष, भूचाल, महामारी, युद्ध तथा किसी न किसी दैवी प्रकोप द्वारा प्राणियों के प्रजनन शक्ति से उत्पन्न होने वाले खतरे का निराकरण करती रहती है।

रात्रि का अन्धकार एक सीमा तक बढ़ता है। उस बाढ़ को प्रकृति रोकती है और पुनः दिन का प्रकाश लाती है। मध्यान्ह तक सूर्य की तेजी बढ़ती है फिर वह घटने लगती है। समुद्र में ज्वार आते हैं, फिर थोड़े समय बाद उसका प्रतिरोधी भाटा आता है। चन्द्रमा घटते-घटते क्षीण होता है। फिर बढ़ने लगता है। गर्मी के बाद सर्दी और सर्दी के बाद गर्मी का मौसम आता है। मरने वाला जन्मता है और जन्मने वाला मृत्यु की तैयारी करता है। सृष्टि के सौंदर्य का क्रम यथावत चला आता है, उसका बैलेन्स बराबर कायम रहता है—संतुलन बिगड़ने नहीं पाता।

पुराणों में ऐसे वर्णन आते हैं कि देवताओं को जब असुर सताते हैं तो वे इकट्ठे होकर विष्णु भगवान के पास जाते हैं और प्रार्थना करते हैं कि हमारी रक्षा कीजिये। कई पुराणों में ऐसी कथाएं मिलती हैं कि पृथ्वी पर जब अधर्म बढ़ा तो धरती माता गौ का रूप धारण कर विष्णु भगवान के पास गई और प्रार्थना की कि अब मुझसे पाप का बोझ नहीं सहा जाता, मेरा उद्धार कीजिए। देवताओं की रक्षा करने तथा पृथ्वी का भार उतारने के लिए विष्णु भगवान अवतार धारण करते हैं। गीता में भी ऐसी ही प्रतिज्ञा है (यदा यदा हि धर्मस्य.........तदात्मानम् सृजाम्यहम्) बुराइयों में यह गुण है कि वे आसानी से और तेजी के साथ बढ़ती हैं। पानी ऊपर से नीचे की ओर बड़ी तेजी से स्वयमेव दौड़ता है पर यदि उसे नीचे से ऊपर चढ़ाना हो तो बड़ा प्रयत्न करना पड़ेगा। पत्थर को ऊपर से नीचे की ओर फेंके तो जरा से संकेत के साथ वह तेजी से नीचे गिरेगा और अगर बीच में कोई रोकने वाली चीज न आवे तो सैकड़ों मील नीचे गिरता चला जायगा। परन्तु यदि उस पत्थर को ऊपर फेंके तो बड़ा जोर लगाकर फेंकना पड़ेगा सो भी थोड़ी ऊंचाई तक जायेगा फिर गिर पड़ेगा इसी प्रकार बुराई के मार्ग पर पतन की ओर मन तेजी से गिरता है पर अच्छाई की ओर कठिनाई से चढ़ता है। लोगों का झुकाव पाप की ओर अधिक होने के कारण थोड़े ही समय में पाप छा जाता है और फिर उसे दूर करने के लिए संतुलन ठीक करने के लिये विष्णु शक्ति को किसी न किसी रूप में प्रकट होना पड़ता है, उस प्राकट्य को ‘अवतार’ कहते हैं।

शरीर में रोगों के विजातीय विषैले परमाणु इकट्ठे हो जाने पर रक्त की जीवनी शक्ति उत्तेजित होती है और उन विषैले परमाणुओं को मार भगाने के लिए युद्ध आरम्भ कर देती है। रक्त के श्वेत कणों और रोग कणों में भारी मारकाट मचती है, खून खच्चर होता है। इस संघर्ष को बीमारी कहते हैं बीमारी में पीड़ा, फोड़ा, पीव, पसीब, दस्त, उल्टी, जलन आदि के लक्षण होते हैं। युद्ध में चोट लगती है, दर्द होता है यही बीमारी की पीड़ा है, खून खच्चर होता है, यही पीव, दस्त आदि हैं। बीमारी का प्रयोजन शरीर को निर्दोष बनाना है। अवतार शक्ति का भी यही कार्य होता है। जब रावण, कंस, हिरण्यकश्यप सरीखे कुविचारों के प्रतिनिधि अधिक बढ़ जाते हैं तो पापों की प्रतिक्रिया स्वरूप अन्तरिक्ष लोकों में हलचल मचती है और उस विषमता को हटाने के लिए अवतार प्रकट होता है। जब ग्रीष्म ऋतु का ताप असह्य हो जाता है तो उसे शान्त करने के लिये मेघ मालाएं गरजती हुई चली आती हैं। पापों की अतिवृद्धि का नियमन करने के लिये वैष्णवी सत्ता अवतार धारण करके प्रकट होती है और भीषण संघर्ष उत्पन्न करके शान्ति स्थापित करती है। “परित्राणाय साधू नाम विनाशायश्च दुष्कृताम्” अवतार का यही उद्देश्य होता है। धर्म की संस्थापन के लिए वह बार-बार प्रकट होता है।

अवतार समष्टि आत्मा का परमात्मा का प्रतीक है। सभी आत्माओं की एक सम्मिलित सत्ता है जिसे ‘विश्वमानव’ या समाज की सम्मिलित आत्मा कहते हैं। यही परमात्मा है। एक मनुष्य यह चाहता है कि मैं सुख पूर्वक रहूँ मेरे साथ में सब प्रेम, भलाई एवं सहयोग का बर्ताव करें कोई यह नहीं चाहता है कि मेरे साथ चोरी, हिंसा, ठगी, कठोरता, अन्याय का बर्ताव करे। यही इच्छा ‘विश्वमानव’ की समिति आत्मा—या परमात्मा की है। परमात्मा की-विश्वमानव की-इच्छा को ही धर्म कहते हैं। अवतार धर्म की रक्षा के लिए होता है। अधर्म अर्थात् विश्वमानव की इच्छाओं के प्रतिकूल कार्य जब संसार में अधिक बढ़ जाते हैं। तो उसे दूर करने के लिए विश्वमानव के अन्तस्तल में प्रतिक्रिया होती है और विरोध का उफान उबल पड़ता है। इस उफान को अवतार के नाम से पुकारा जाता है।

अवतार एक अदृश्य प्रेरणा है। सूक्ष्म वातावरण में परमात्मा की इच्छा का आवेश भर जाता है। जैसे आकाश में आँधी छाई हुई हो और उसी समय पानी बरसे तो वर्षा की बूँदें उस आँधी की धूलि से मिश्रित होती हैं। बसन्त ऋतु में प्रकृति के सूक्ष्म अन्तराल में ‘काम क्षोभ’ का आवेश आता है उन दिनों सभी नर नारियों में जीव जन्तुओं में कामेच्छा फूट पड़ती है। भय, क्रोध, हिंसा, साम्प्रदायिक, राजनैतिक तनाव, घृणा तथा सत्कर्मों की भी लहर आती है वातावरण जैसा बन जाता है वैसे ही काम बहुत बड़ी संख्या में होने लगते हैं। इसी प्रकार विश्वमानव-परमात्मा की इच्छापूर्ण करने के लिए सूक्ष्मलोक में अदृश्य वातावरण में आवेश आता है। उस आवेश से प्रेरित होकर कुछ विशिष्ट पुण्यात्मा, जीवन युक्त महापुरुष संसार में आते हैं और परमात्मा के इच्छा को पूरा करते हैं। एक समय में अनेकों अवतार होते हैं, किसी में न्यून किसी में अधिक शक्ति होती है। इस शक्ति को माप करने का पैमाना ‘कला’ है। बिजली को नापने के लिये ‘यूनिट’, गर्मी को नापने के लिये ‘डिग्री’, लम्बाई को नापने के लिये ‘इंच’, दूरी को नापने के लिये मील जैसे होते हैं वैसे ही किस व्यक्ति में कितना अवतारी अंश है इसका नाप ‘कला’ के पैमाने से होती है। त्रेता में परशुराम जी और श्री रामचन्द्रजी एक ही समय में दो अवतार थे। परशुरामजी को तीन कला का और रामचन्द्र जी को बारह कला का अवतार कहा जाता है। यह तो उस समय के विशिष्ट अवतार थे। वैसे अवतार का आवेश तो अनेकों में था बानरों की महती सेना को तथा अनेकों अन्य व्यक्तियों को अवतार के समतुल्य कार्य करते हुये देखा जाता है।

इस प्रकार समय-समय पर युग-युग में आवश्यकतानुसार अवतार होते हैं। बड़े कार्यों के लिये बड़े और छोटे कार्यों के लिये छोटे अवतार होते हैं। सृष्टि को सन्तुलन करने वाली विष्णु−शक्ति वैसे तो सदा ही अपनी क्रिया जारी रखती है। पर बड़ा रोग इकट्ठा हो जाने पर बड़ा डॉक्टर भेजती है। उस बड़े डाक्टरों को उनके महान कार्यों के अनुरूप यश एवं सम्मान प्राप्त होता है। अवतारी महापुरुषों की पूजा यथार्थ में विष्णु−शक्ति की पूजा है जिसके कि वे प्रतीक होते हैं।

लक्ष्मीपति विष्णु सृष्टि की सुन्दरता की, सम्पन्नता की, सद्बुद्धि की और सात्विकता की रक्षा करते हैं। लक्ष्मीजी के चार हाथ, सुन्दरता सम्पन्नता, सद्बुद्धि और सात्विकता के प्रतीक हैं। समस्त प्राणियों की समष्टि-सम्मिलित आत्मा-लक्ष्मी है, यह लक्ष्मी विष्णु का अर्धांग है। पर आत्मा की सत्ता जीवों की आत्मा में समाई हुई है, संसार का नियमन करती है साथ-साथ लक्ष्मी की-विश्वमानव की इच्छा की-रक्षा भी करती है। लक्ष्मी विष्णु से अभिन्न है।

विष्णु के उपासक-वैष्णव वे हैं। जो विश्व मानव की इच्छाओं के अनुकूल कार्य करने में अपनी शक्ति लगाते हैं। मीरा का प्रसिद्ध भजन है—”वैष्णव जनतो तेने कहिये जे पीर पराई जाने रे।” समाज का लाभ, संसार की सेवा, विश्व की श्री वृद्धि, विश्वमानव की सुख शान्ति के लिये सच्चे अन्तःकरण से हर घड़ी लगे रहने वाले मनुष्य असली वैष्णव हैं। विष्णु की इच्छा ही उन वैष्णवों की इच्छा और विष्णु की कार्य प्रणाली ही उनकी कार्य प्रणाली होती है। वे पाप को घटा कर धर्म की स्थापना के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। जनता जनार्दन को विष्णु रूप समझकर लोक सेवा में, विष्णु पूजा में, प्रवृत्त रहते हैं। —क्रमशः


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