(श्रीमती प्रीतम देवी महेन्द्र साहित्यरत्न)
श्री मद्भागवत में एक स्थान पर कथा लिखी है- अवधूत ने 24 गुरुओं में चील को भी एक गुरु माना था। चील के मुख में माँस था, इसीलिए सहस्रों कौए उसे घेरे फिरते थे। जिस ओर वह चील माँस को मुख में लिए हुए जाती थी, उधर ही काँव-काँव करते हुए कौए भी उसके पीछे-पीछे भागते थे। जब चील के मुख से हठात् माँस का टुकड़ा नीचे गिर पड़ा, तब सारे कौए उस माँस की ओर चले गए, फिर उनमें से कोई भी चील की ओर नहीं गया।
माँस से यहाँ अभिप्राय है, भोग के पदार्थों से। कौए चिंता और भावनाएँ हैं। जहाँ-जहाँ भोग है, वहीं-वहीं भावना और चिन्ताएँ हैं। भोग त्याग करते ही शान्ति प्राप्त हो जाती है। इसके विपरीत जितना भोग में लिप्त होते हैं, जितनी साँसारिक आवश्यकताएं बढ़ाते हैं, उतने ही संसार के कुचक्र में फँसते जाते हैं। प्रत्येक आवश्यकता एक बन्धन है। जिसकी जितनी आवश्यकताएँ हैं, उस बेचारे के जिम्मे उतने ही बन्धन हैं। जिसकी जितनी कम जरूरतें हैं, वह उसी अनुपात में दूसरे की अपेक्षा सुखी है। साँसारिक पुरुषों का मन सदा वासनात्मक विचारों, पहलुओं, कल्पनाओं, भोगों को ही ग्रहण करने के लिए उद्यत रहता है। वह सूक्ष्म दार्शनिक भावों को ग्रहण नहीं कर सकता वह शिथिल होता है और उसकी गति दार्शनिक भावों को ग्रहण करने के लिए उपयुक्त नहीं होती।
संसार के विषय भोग कभी तृप्त नहीं होते, अग्नि में घृत डालने के समान ही सदा बढ़ते जाते हैं। अतः भोग से दूर रहने में ही भला है। मन निष्काम कर्म, जप, प्राणायाम और दूसरे आध्यात्मिक साधनों से शुद्ध किया जा सकता है। चित्त शुद्धि के साथ दार्शनिक ग्रन्थों का अध्ययन स्वयमेव एक प्रकार की समाधी है क्योंकि मन इन प्रक्रियाओं से भोग से मुक्त रहता है। कठिन तप साधन करो। तप से वासनाएँ दग्ध हो जाती हैं और मन का संयम होता है। मन का संयम ही सच्ची सिद्धि है।