गीता सार्वभौम और सर्वप्रिय ग्रन्थ है। विद्वानों ने इसकी भाँति-भाँति से व्याख्या की है। उनका कथन है कि भगवान का यह अमरगान आज भी प्रत्येक हिन्दू के शरीर रूपी कुरुक्षेत्र में गूँज रहा है। यह मानव शरीर ही कुरुक्षेत्र है। भगवान ने कहा है—
इद शरीर कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयेत—
हे! कौन्तेय! इस शरीर को ही क्षेत्र कहते हैं। यह कर्म करने का क्षेत्र है इसलिए इसको कर्मक्षेत्र या कुरुक्षेत्र कहा गया है। अब प्रश्न यह है कि यदि शरीर को ही कुरुक्षेत्र मान लिया जाय तो भी यह धर्मक्षेत्र नहीं हो सकता। पाप का पुतला, पापों से भरा हुआ विकार वान और नश्वर यह शरीर धर्मक्षेत्र कैसे कहा जा सकता है?
श्रुतियों में बतलाया गया है 83 लाख 99 हजार दो सो निन्यनिवे योनियाँ रचकर भगवान इतने प्रसन्न नहीं हुए जितने इस मनुष्य देह को रचकर। कारण? इसमें रहकर उनका मित्र जीव, अथवा उनका अंश रूपी आत्मा बहुत प्रसन्न हुआ उसे सुख मिला, उसे बुद्धि से साधनों द्वारा उन्नति करने के लिए क्षेत्र मिला, आत्मा एवं परमात्मा को सुखप्रद होने के कारण-धार्मिक साधनों का आधार होने के कारण—बुद्धि द्वारा अच्छे कर्म करके सद्गति पाने योग्य होने के कारण, यह कुरुक्षेत्र (शरीर) धर्मक्षेत्र कहलाया।
सद्वृत्तियाँ कहती हैं कि हमें केवल रहने मात्र का स्थान दे दो परन्तु दुष्वृत्तियां बिना लड़े एक सुई की नोंक के बराबर भूमि भी देने को तैयार नहीं। सद्वृत्तियाँ पाण्डव हैं और दुष्वृत्तियां कौरव। इस शरीर पर सद्वृत्तियों का ही अधिकार है, परन्तु धृतराष्ट्र—राष्ट्र को धृत अर्थात् धारण कर बैठा है। वास्तव में यह उसकी चीज नहीं, वह अन्धा भी है, उसे कुछ सूझता नहीं। यह धृतराष्ट्र हमारे शरीर में मन है, जो जबरदस्ती स्वामी बना हुआ है, परन्तु अन्धा होने के कारण इन्द्रियों और बुद्धि के सहारे है। संजय सम्यक् प्रकार से रोग द्वेष को जय करने वाला विज्ञान है। विज्ञान से ही इस शरीर के सारे हाल जान सकता है। अर्जुन जीवात्मा है और कृष्ण आत्मा रूप परमात्मा है। यदि जीवात्मा अपने रथ की बागडोर को आत्मारूप परमात्मा के हाथों में सौंपकर (युद्ध कर्त्तव्य पालन) करे तो जय निश्चित है।