संतोष का तत्व

July 1946

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‘सम’ उपसर्ग पूर्वक ‘तुष-प्रीतौ’ धातु से संतोष शब्द बना है। प्रीति शब्द अर्थ है प्रसन्नता। अमर-कोश के प्रथम काण्ड का काल वर्ग का 24 वाँ-श्लोक देखिये- ‘मुत् प्रीतिः प्रमदो हर्षः प्रमोदामोद संमदाः’ इससे स्पष्ट है कि संतोष का अर्थ प्रसन्नता, खुशी आनन्द है। जैसी भी भली बुरी परिस्थिति सामने हो उसमें प्रसन्न रहना, संतोष का तात्पर्य है।

आज कल सन्तोष का मतलब समझा जाता है, निठल्ले बैठे रहना, कूड़ा कचरा खाना पर हाथ पाँव न हिलाना, उद्योग न करना, पुरुषार्थ से इनकार करना, पराश्रित रहना, कहीं से किसी प्रकार जो कुछ मिल जाय उसी में काम चल लेना, उन्नति का प्रयत्न न करना, भाग्य के भरोसे बैठे रहना, आपत्तियों के निवारण की कोशिश न करना। आम तौर से सन्तोष का यही अर्थ किया जाता है। यह अर्थ का अनर्थ करना है। योग शास्त्र, धर्म और आध्यात्म विज्ञान जब से हरामखोरों के गन्दे हाथों में पड़ा है तब से उसकी ऐसी ही दुर्गति की गई है। घोर तामस में डूबे हुए अकर्मण्य और आलसी लोगों ने अपनी हीनता और नीचता को ब्रह्म विद्या की आड़ में छिपाने की इच्छा से उस महा विज्ञान की ही दुर्गति कर डाली। इसका एक उदाहरण सन्तोष सम्बन्धी अर्थ का अनर्थ हमारे सामने मौजूद है।

उद्योग करना, प्रयत्न जारी रखने, निरन्तर ऊँचे चढ़ना, आगे बढ़ना और ऊँची परिस्थितियाँ प्राप्त करने की चेष्टा करना मनुष्य का प्राकृतिक धर्म है। इससे कोई भी सिद्धान्त या सूत्र आज तक बाधक नहीं हुआ और न आगे हो सकता, ईश्वरीय नियम में मनुष्य के बनाये हुए सिद्धान्त रुकावट नहीं डाल सकते। यदि सन्तोष के अनर्थ पूर्ण भाव को अपनाया जाय तो दरिद्री, रोगी, पापी, अज्ञानी, अत्याचारी, दुखी सबको अपनी-अपनी दशा में ही पड़ा रहना होगा। स्वर्ग और मुक्ति-जो अत्यन्त पुरुषार्थ के फल हैं, उनका प्राप्त होना तो दूर साधारण जीवन का आनन्द लेना भी दुर्लभ हो जाएगा। अहदी और अपाहिजों की तरह वे ‘सन्तोषी’ लोग अन्धकार पूर्ण तामसिक परिस्थितियों में पड़े-पड़े सड़ते रहेंगे।

हमें असत् को छोड़कर सत् की ओर बढ़ना होगा। सन्तोष के झूठे अनर्थ को छोड़कर सच्चे अर्थ को ग्रहण करना होगा। आनन्दित रहना हर घड़ी प्रसन्न रहना, बुरी दुखदायी परिस्थिति सामने हो तो भी खिन्न न होना, यही सन्तोष का साराँश है। हर हालत में प्रसन्न रहना, मुसकराते रहना, प्रफुल्लित रहना एक ऐसा उच्च आध्यात्मिक गुण है जो पर्वत के समान विपत्ति को राई सा हल्का बना देता है और नसों में उत्साह की बिजली का संचार करता रहता है। अक्सर देखा जाता है कि कोई अप्रिय घटना या समस्या सामने आने पर लोग बहुत घबरा जाते हैं, दुखी होकर रोने पीटने लगते हैं और अपना मानसिक संतुलन खोकर किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाते हैं। इन परिस्थितियों में उसकी बुद्धि इतनी कुँठित हो जाती है कि कोई ठीक मार्ग निर्धारित नहीं कर पाती, उस विपत्ति से छुटकारा पाने और क्षति पूर्ति के साधन जुटाने के लिये स्वस्थ और शान्त मन की आवश्यकता है, पर जिसका मन उलझन में पड़ा हुआ दिग्भ्रान्त हो रहा है वह भला किस प्रकार सही मार्ग ढूँढ़ सकता है? कहते हैं कि विपत्ति अकेली नहीं आती एक के पीछे अनेक दुख चिपके आते हैं, कारण यह ही है कि अस्वस्थ बुद्धि के निर्णय एवं कार्य अनुचित होते हैं, फलस्वरूप उनसे गाँठ और भी ज्यादा उलझती जाती है। यदि सन्तोष का अभ्यास किया जाय बुरी घड़ी में भी विचलित न होने की आदत हो तो वह कठिनाई जो सामने आई थी आसानी से हल की जा सकती है, क्षति पूर्ति का मार्ग ढूँढ़ा जा सकता है, नई कठिनाई पैदा होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता।

जो वस्तुएं प्राप्त हैं उनका प्रसन्नतापूर्वक उपभोग करना उनमें रस लेना और ईश्वर की देन समझ कर सिर माथे पर लेना यह सन्तोष का लक्षण है। कर्म करते समय अधिक की इच्छा करना और फल भोगते समय सन्तुष्ट रहना यही संतोष की नीति है। जो भोजन परोस कर सामने आ गया है और उसे बदला नहीं जा सकता तो उचित है कि उसे सिर माथे पर रखकर अमृतमय व्यंजनों की भावना से ग्रहण करें। यदि विवाह हो चुका है और किसी स्त्री को जीवन संगिनी बनाया जा चुका है तो यही उचित है कि जैसी भी कुछ काली कुबड़ी वह है, अप्सरा समझ कर स्नेह किया जाय। कठिन परिश्रम के बाद जो मजदूरी मिली है उस पर प्रसन्न रहा जाय। जब काम करने का समय हो। जब ऊँची और अच्छी स्थिति प्राप्त करने का जी तोड़ उद्योग करना आवश्यक है, पर जब कि काम करने का अवसर समाप्त हो गया और कोई निश्चित परिणाम सामने आ गया है जिसको कि हटाया जाना असंभव है तो यही उचित है कि कुड़-कुड़ाना, झुँझलाना, भाग्य को कोसना, छोड़ कर सन्तोष का घूँट पिया जाय क्योंकि यह कुढ़न निरर्थक है। इससे मानसिक विक्षेप बढ़ सकता है और निराशा एवं आत्म हीनता की भावनाएं बल पकड़ सकती हैं, इससे लाभ कुछ न होगा, हानि ही अधिक रहेगी। इस हानि से बचने के लिए एक बहुत ही उत्तम ढाल अपने पास है और वह है सन्तोष।

‘भाग्य में जो लिखा है, वह होकर रहेगा, विधना के अंक मिट नहीं सकते, दैव इच्छा वली यशी सन्तोषी सो सदा सुखी’ यह उक्तियाँ प्रयोग करने का ठीक समय वह है जबकि कोई इच्छा से न्यून, हल्का या विपरीत परिणाम सामने आवे। चूँकि हर एक की मनोवांछाऐं सदैव पूरी नहीं होती हैं, असफलता या अल्प सफलता मिलने के भी प्रसंग आते हैं उन अप्रिय प्रसंगों के सामने आने पर भी चित्त की प्रसन्नता बनाये रहने के लिये, सन्तोष भाग्य आदि की व्यवस्था है। जो सिद्धान्त जिस समय जिस कार्य के लिए है उसे उसी में प्रयोग करना चाहिए। कर्त्तव्य करने में सन्तोष कर बैठना तो ऐसा है जैसे कपड़ा काटने की कैंची का उपयोग अपनी नाक काटने में कर लेना।

सन्तोषी को प्रसन्न रहना चाहिये। हर घड़ी अपने को आनन्दित बनाये रहना चाहिये। घर में, व्यापार में, परदेश में, मित्रों में, शत्रुओं में, निन्दा में, प्रशंसा में, कष्ट में, सम्पदा में, लाभ में, हानि में हर एक परिस्थिति में चेहरे पर प्रसन्नता छाई रहनी चाहिये। हर बात के साथ-साथ मुसकराहट की किरणें निकलनी चाहिये, आत्मा की महानता और दिव्यता का अनुभव करते हुए सदैव गौरवान्वित रहना चाहिए, यही सन्तोष का मर्म है। पाठकों को सन्तोषी होना चाहिये, जिससे अपना आनन्दमय कोष विकसित होता रहे।


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