परमार्थी विश्व में स्वार्थी मानव

July 1946

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(पु. श्री. प्रतापनारायण जी, ‘कविरत्न’)

काम क्या खुद के आते वे, भूख बस औरों की हरते।

दूसरों के लिए ही सदा, पेड़ हैं फल पैदा करते॥

रक्त-सा अपना रस देते, लुटेरे भौरों को भी तो।

फूल मर मिटते हैं यों ही, सुगंध दे-देकर औरों को॥

पान खुद कभी नहीं खाती, बढ़ी है अशुभों को हरने।

खड़ी है नागरबेल यहाँ, पराया मुख शोभित करने॥

बोल अनमोल बोल करके, स्वयं को नहीं रिझाती है।

कोकिला औरों के हित ही, सुधा का स्रोत बहाती है॥

निरा पशु होकर भी बनता, बिछौना, पर-हित में मरता।

प्राणहर-मृगमद को भी तो, सर्वदा मृग पैदा करता॥

पहनता-खाता सिन्धु नहीं, खजाने औरों के भरता।

सजाने औरों को ही वह, मोतियों को पैदा करता॥

लाभ करते हैं औरों का, ताप हरते हर्षा-हर्षा।

कभी भी अपने लिए नहीं, मेघ वर्षाते हैं वर्षा॥

पराया हित करने को ही, चमकते सूर्य, चन्द्र, तारे।

और यह पृथ्वी-माता भी, झेलती कष्टों को सारे॥

लकड़ियों, नदियों, खानों को, धातुओं को भी जनने में।

हिमालय को है क्या मीठा, ढाल भारत की बनने में॥

प्यास अपनी न बुझाती है, आफतें लाखों सहती है।

भला औरों का करने ही, भला यह गंगा बहती है॥

अधूरे ज्ञानवान जो हैं, हाल यह उनका है सारा।

दशा पर उनकी तो देखो, जिन्होंने मानव तन धारा॥

नहीं सम्हाले लख चौरासी, योनियाँ खोकर के भी जो।

गए-बीते हैं पशुओं से, आदमी होकर के भी जो॥

स्वार्थ से सने हुए रहते, एक-को-एक ता रहा है।

मर रहे अपने मतलब में, एक-को एक खा रहा है॥

आज हम पर-हित-चिन्तन में, हो गए सब जीवों में कम।

आपके पार लगाए ही, नाथ! अब पार लगेंगे हम॥

—कल्याण

*समाप्त*


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