(प्रोफेसर मोहनलाल वर्मा एम. ए. एल. एल. बी.)
एक बार यमुना जी के उस पार दुर्वासा मुनि आये हुए थे दुर्वासाजी का क्रोध तो प्रसिद्ध ही है। मुनिवर के आदर सत्कार के लिये वृहत योजनाएं होने लगीं। श्रीकृष्ण भगवान ने गोपियों को आज्ञा दी कि जाओ; उन्हें यमुनाजी के उस पार भोजन दे आओ। योगेश्वर कृष्ण हजारों गोपियों में रहते थे। श्रीकृष्ण जी ने आज्ञा दी कि जाओ, मुनिवर दुर्वासा को किसी प्रकार की तकलीफ न हो, रुष्ट होने का अवसर न मिले गोपियाँ चकराई और बोलीं—हे, नटराज! यमुना पार कैसे जाए। इसकी विधि तो बताइये।”
श्रीकृष्ण ने कहा—”यमुनाजी से कहना, यदि श्रीकृष्ण हममें से किसी के साथ रमण करते हों, तो हमें जाने का मार्ग मत देना, यदि हम पूर्ण ब्रह्मचारिणी हों, पवित्र और सात्विक हों तो हे यमुना मैय्या! हमें रास्ता दे देना।” गोपियों ने वैसा ही किया और यमुना का जल इतना कम हो गया कि वे सुविधा से पार चली गई।
मुनि दुर्वासा को षट्रस व्यंजन खिलाकर जब गोपियाँ लौटने लगीं, तो पुनः उन्होंने यमुना पार का प्रश्न उठाया। इस पर मुनि ने कहा—”यमुना जी से कहना, यदि दुर्वासा ने दूब रस के सिवा और कुछ खाया हो, तो रास्ता मत देना, नहीं तो दे देना।” गोपियों ने वैसा ही किया, तब कहीं वे पार जा सकीं।
इन बातों से गोपियाँ चकित हो गई क्योंकि प्रत्यक्ष विरोधाभास था। दुर्वासाजी को विविध प्रकार का राजसी भोजन कराया था और वे कहते थे कि सिवा दूब रस के उन्होंने कुछ नहीं खाया। श्रीकृष्ण प्रतिदिन गोपियों के साथ विहार करते थे, किन्तु उनका कहना कि उन्होंने कभी किसी के साथ रमण नहीं किया—यह एक चमत्कारी कथन था। यह गूढ़ रहस्य भला उन बेचारी गोपियों के समझ में क्योंकर आता। वे तो केवल प्रेम जानती थीं—प्रेम मार्ग ही उनके लिए सुलभ था। गोपियों के लिए योग साधन, अथवा ज्ञान प्राप्ति करना असंभव नहीं तो महा कठिन अवश्य था।
दुर्वासाजी की भोजन की तथा श्रीकृष्ण की कामवासना नियन्त्रण की बात जो ऊपर लिखी गई हैं, उससे जिस चित्तवृत्ति का पता लगता है, वह आदर्श रूप और अनुकरणीय है। हम संसार में रहें किन्तु अपने को, अपनी आत्मा का, अपने स्वत्व को साँसारिक वस्तुओं में न डुबोये वरन् सदा उनसे ऊपर रहें, उनके प्रति वीतराग रहें, साँसारिक कार्यों में संसार में रहते हुए भी अधिक लिप्त होना ठीक नहीं। हमें सदैव उनके प्रति वैराग्य भाव रखना चाहिये। कामवासनाओं को नियंत्रित रखने के लिए अत्यन्त मानसिक दृढ़ता की आवश्यकता है जो एक पूर्ण योगी में पर पकता को पहुँचती है। नियमित कर्म कीजिये, किन्तु फल प्राप्ति की वासना ही में न डूबे रहिये। कमल जैसे जल में रहकर भी उससे दूर ही रहता है, इसी प्रकार आप संसार में रहते हुए भी साँसारिक वस्तुओं में लिप्त न रहिए। समत्व भाव रखिये। एक पहुँचे हुए योगी को चाहे आप सत्तू और नमक रख दीजिए, या छप्पन प्रकार के भोजन परोस दीजिये। “समत्व” भाव के कारण वह एक ही स्वाद से भोजन करेगा। महात्मा साँसारिक वस्तुओं में रहते हुए भी उन्हें तृणवत् त्याज्य समझते हैं, तथापि सम्पूर्ण संसार उनको गोद में उठाने के लिये दौड़ता है। यह प्रत्यक्ष बात है कि आप जिस वस्तु के पाने की इच्छा अधिक करेंगे, उतनी ही मानो वह वस्तु आपसे दूर हटती जायगी। महात्मा, योगी, मुनि किसी के प्रति आकर्षित नहीं होते, विरागी रहते हैं तभी दूसरे मनुष्यों को उनके प्रति आकर्षण प्रतीत होता है। अतः संसार में रहकर भी उसकी रंगीन चीजों में अपनत्व न खोइए। वृत्तियों को उच्च बनाइये। रागी से विरागी बनिये। रागी या विरागी होना बाह्य उपकरणों पर निर्भर नहीं प्रत्युत आन्तरिक भावना पर अवलम्बित है।