आपकी आकांक्षाएं शुभ हों

July 1946

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ये यथा माँ प्रपद्यंते ताँस्तथैव भजाम्यहम्।

गीता 4।11

जो मुझको जिस रीति से भजता है मैं उसको उसी के अनुसार भजता हूँ। अर्थात् मुझको जो जैसा भजता है उसको में वैसा ही फल देता हूँ।

अर्थात् ईश्वर यह कहता है कि जो मुझको उत्तम भाव से देखता है उसको मैं उत्तम फल देता हूँ। जो माध्यम भाव से भजता है उसे मध्यम फल देता हूँ और जो अधम भाव से भजता है उसे अधम फल देता हूँ। यह कहकर ईश्वर हमको समझाता है कि कैसा लेना तुम्हारे हाथ में है। अगर अच्छा फल चाहो तो वह भी ले सकते हो और खराब फल चाहो तो वह भी ले सकते हो। तुमको अच्छा फल देना मेरी मर्जी पर नहीं है। मैं तो सिर्फ तुम्हारी भावना के अनुसार अर्थात् तुम्हारी इच्छा के अनुसार, तुम्हारे विचार के अनुसार और तुम्हारे काम के अनुसार तुमको फल देता हूँ। अगर तुम्हारी इच्छा और तुम्हारे विचार तथा तुम्हारे काम अच्छे हों तो तुम्हें अच्छा फल मिलेगा और तुम्हारी इच्छा तुम्हारे विचार और तुम्हारे खराब काम हों तो वो तुम्हें खराब फल मिलेगा। क्योंकि अच्छा या बुरा फल ईश्वर कुछ अपनी इच्छा से हमको नहीं देता बल्कि हमारी भावना के अनुसार देता है। इसलिए हमको अपनी भावना सुधारनी चाहिये और याद रखना कि अपनी भावना सुधारना ही अपना भाग्य फेरने की कुँजी है। इसी से महात्मा वशिष्ठ मुनि ने भगवान रामचन्द्रजी को उपदेश देते समय बतलाया है कि ज्ञान की सात कोटियां हैं। उनमें सबसे पहली शुभेच्छा है। याद रखना कि पहले शुभेच्छा आने के बाद ही ज्ञान की दूसरी सीढ़ी पर चढ़ सकते हैं क्योंकि शुभेच्छा ही स्वर्ग का मार्ग है और शुभेच्छा ही अपना भाग्य फेरने की कुँजी है इसलिए पहले के पवित्र पुरुष हमेशा सवेरे उठकर ईश्वर से यही प्रार्थना करते थे।

“सर्वे भवन्तु सुखिनः ‘सर्वे सन्तु निरामयाः।

“सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ‘मा कश्चिदुःखमाप्तुपात्॥

सब जीव सुखी रहे, किसी जीव को किसी तरह का जरा भी दुःख न हो, सबका कल्याण हो और कोई भी दुःखी न हो।

इस प्रकार महात्मा लोग हमेशा सबका कल्याण चाहते थे और ईश्वर से यही प्रार्थना करते थे कि हे प्रभु हमको सद्बुद्धि दो। ऋषियों का बड़े से बड़ा मन्त्र गायत्री है। गायत्री हिन्दू धर्म का बड़े से बड़ा मन्त्र है। और सवेरे, दोपहर और शाम को, दिन में तीन बार उसका जप करने की शास्त्र में विधि है। इस मन्त्र का अर्थ क्या है? यह आपको मालूम है? इसका संक्षेप से संक्षेप सहज से सहज और सार अर्थ इतना ही है कि-ईश्वर हमको सद्बुद्धि दो।

त्रिकालदर्शी पवित्र से पवित्र और चतुर से चतुर हमारे पूर्वजों ने ईश्वर से और कुछ नहीं माँगा, इतना ही माँगा कि हे प्रभु। हमको सद्बुद्धि दो क्योंकि सद्बुद्धि भाग्य फेरने की कुँजी है सद्बुद्धि में सब तरह की उन्नति है सद्बुद्धि में स्वर्ग है। सद्बुद्धि में देवत्व है, और सद्बुद्धि में सब तरह की शिल्प कला है। और सद्बुद्धि में आप ईश्वर है और ईश्वर ज्ञान स्वरूप है इसलिए सद्बुद्धि सबसे बड़ी बात है। और याद रखना कि सबका भला हो ऐसी शुभेच्छा रखने से ही सद्बुद्धि खिल सकती है इसलिए शुभेच्छा हमारे धर्म की पहली सीढ़ी है। शुभेच्छा ज्ञान का दरवाजा और शुभेच्छा हमारा भाग्य फेरने की कुँजी है। अगर अपने भाग्य को अच्छा बनाना हो तो पहले शुभेच्छा रखना सीखना चाहिये।


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