अखण्ड-ज्योति के जीवन का दूसरा अध्याय आरंभ होता है।

July 1946

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इस पुण्य पर्व के अवसर पर आप भी तुलसीदल चढ़ाइये

सद्ज्ञान की बुद्धि के लिए, मानवता के कर्त्तव्यों सद्गुणों, सद्विचारों, सद्भावों को बढ़ाने के लिए अखण्ड-ज्योति मिशन गत सात वर्षों से जो महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है उससे प्रायः सभी पाठक भली भाँति परिचित हैं। भारतवर्ष से एक छोर से दूसरे छोर तक धर्म प्रचार का कार्य जितनी तत्परता से जिस सफलता के साथ किया गया है उसे देखकर अनेकों विद्वानों, नेताओं एवं महात्माओं ने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। विचार क्षेत्र में घुसे हुए शैतान से, पाप से, अज्ञान से, अखण्ड-ज्योति का मिशन, कड़ा मोर्चा ले रहा है। असंख्यों व्यक्तियों की जीवन दिशा को उलट-पुलट कर देने में इस छोटे से मठ को अभूतपूर्व सफलता मिली है।

अब तक प्राप्त हुई इन समस्त सफलताओं का श्रेय हमारे पाठकों को है। क्योंकि उन्होंने सच्चे हृदय से अपना सद्भाव हमारे साथ रखा है। पाठकों ने अखण्ड-ज्योति के साथ वैसे ही आत्मीयता भरे सद्भाव रखे हैं जैसे गुरुजनों के साथ, सगे कुटुम्बों के साथ, हितू रिश्तेदारों के साथ एवं आन्तरिक आत्मीय सखाओं स्वजनों के साथ रखे जाते हैं। अपनी शारीरिक, मानसिक, घरेलू, व्यापारिक, धार्मिक गुत्थियों को, समस्याओं को पाठक हमारे सामने हृदय खोलकर उसी प्रकार रख देते हैं जैसे अपने सबसे अधिक विश्वासी मित्र के साथ रखा जा सकता है। इन गुत्थियों का जो सुलझाव यहाँ से भेजा गया है उसे उन्होंने श्रद्धापूर्वक अपनाया और कार्य रूप में परिणत किया फल स्वरूप ऐसे ऐसे मधुर परिणाम सामने आये, जिनका स्मरण करने मात्र से आनन्द के रोमाँच हो आते हैं।

परमात्मा की धर्म संस्थापन की पुनीति इच्छा में, उन्हीं की प्रेरणा से सहस्रों पाठकों ने पूरी दिलचस्पी से सहयोग दिया, उस सहयोग के कारण ही अखण्ड-ज्योति द्वारा सत प्रचार का इतना कार्य हो सका। इसका श्रेय उन सहस्रों स्वजनों को है जिन्हें मोटी भाषा में हम ‘पाठक’ भी कह देते हैं।

लड़ाई के दौरान में एक समय ऐसा आया था जब कागज की दुर्लभता एवं सरकारी कन्ट्रोल कठोरता इतनी बढ़ गई थी कि अनेकों पत्र लड़खड़ा कर मर गये। अखण्ड-ज्योति के सामने भी उसकी मृत्यु मुँह फाड़कर नाच रही थी क्योंकि उसके संचालक एक प्रकार से निर्धन ही है। इस विषम घड़ी में पाठकों ने अपने प्रेम से सने पैसे सहायता के लिए भेजे। उन पैसों से हाथ का बना कागज बनाकर पत्रिका और पुस्तकें जीवित रखी गई। हिसार के श्री मुँशीराम जी गुप्ता जो मथुरा आकर कुछ दिनों अखण्ड-ज्योति में ठहरे थे। उन्होंने एक अद्भुत आदर्श रखा। दाल की छोटी सी दुकान से उन्हें जो कुछ आमदनी होती थी उसमें से भोजन वस्त्र लेकर प्रायः सबका सब अखण्ड-ज्योति को भेज देते थे। अन्य पाठकों ने अपने ढंग से सहायताएँ कीं। कानपुर के राजनरायण जी श्रीवास्तव, अहमदाबाद के बाबू भाईजी, वेतिया के गोपालप्रसाद जी आदि सज्जनों ने बिल्कुल निस्वार्थ भाव से, अपना बहुमूल्य समय देकर सैकड़ों ग्राहक बनाये। अनेकों स्वजनों ने जैसे भी बन पड़ा, तन से, मन से, धन से इस मिशन को सींचा। पाठकों के स्वजनों के प्रेम जल से सींचा हुआ, यह धर्म तरु आज छोटा है तो भी हरा भरा और सुरक्षित है, उस पर हर एक पाठक को गर्व करने का अधिकार है।

सात वर्ष बाद अब अखण्ड-ज्योति के जीवन का दूसरा अध्याय आरम्भ होता है। पहले परिच्छेद में वह मृत्यु के मुख से बच गई और भद्दे, रद्दी, खराब कागजों पर बुरी भली छपाई से छपा साहित्य देकर जनता को आध्यात्मिक खुराक पहुँचाती रही। यह दो ही निष्कर्ष अब तक के कार्य का सिंहावलोकन करके कहे जा सकते हैं। पर अब परिस्थितियाँ बदल रहीं है। दूसरे महायुद्ध का दौरा ठंडा पड़ गया है, तीसरा महायुद्ध भी बहुत समीप नहीं है। जो कठिनाइयाँ आज हैं निकट भविष्य में उनके घटने और हटने की आशा है इन नयी परिस्थितियों में अखण्ड-ज्योति का सद्ज्ञान प्रसार का, धर्म स्थापना का कार्य अधिक तत्परता से करना है। जनता को सात्विक आध्यात्मिक भोजन पहुँचा कर उसके मस्तिष्क में सतोगुणी भावनाओं को ओत-पोत करना है, इस कार्य के लिए बहुत बड़े परिमाण में, देश की विभिन्न भाषाओं में, सुलभ सस्ता, सुन्दर, साहित्य तैयार करके उसे जन साधारण तक पहुँचाने का महत्वपूर्ण कार्य करना है। अखण्ड-ज्योति में पुस्तकों में, अधिक उन्नति करनी हैं। मिशन की अन्य प्रगतियों को विविध प्रकारों प्रभु की इच्छा पूर्ण करने में निमित्त बनने के लिए, धर्म स्थापना के लिए, नये धर्म युग का सूत्र पात करने के लिए इस कार्य प्रणाली को आगे बढ़ाना सचमुच आज की घड़ी में बहुत ही आवश्यक है।

इस साहसपूर्ण कदम को हम अकेले नहीं बढ़ा सकते। अखण्ड-ज्योति अपने दूसरे अध्याय में प्रवेश करते हुए स्वजनों का सहारा चाहती है। इस दिशा में सबसे प्रथम कार्य जो करना है वह है—अपना प्रेस लगाना। अपने पास प्रेस न होने के कारण बाहर के प्रेसों से पत्र तथा पुस्तकों की छपाई करानी पड़ती है। इसमें अनेक असुविधा हैं। छपाई का खर्च बहुत पड़ता है, अशुद्ध और खराब छपाई होती है, समय पर काम नहीं मिलता, अधिक काम छापने की उन्हें फुरसत नहीं होती, इन चारों कठिनाइयों के कारण नित्य ही अड़चनें आती हैं। अपना प्रेस हो जाने पर यह सब कठिनाइयाँ दूर हो जावेंगी और मन चाहा साहित्य, समय पर, सुविधापूर्वक, कम खर्च में तैयार हो सकेगा। इन सब बातों पर विचार करते हुए अखण्ड-ज्योति अपना प्रेस लगाना चाहती है। यह कार्य पूरा होते ही अधिक उत्तम, अच्छा, सुन्दर, उपयोगी एवं आवश्यक साहित्य प्रकाशित होना आरम्भ हो जायगा। इस प्रकाशन से होने वाला लाभ अन्य उपयोगी, धर्म वृद्धि करने वाले कार्यों को प्रगति एवं प्रेरणा देगा। जिस प्रकार घड़ी में चाबी लगा देने से फिनर में ताकत भर जाती है और फिनर की ताकत में घड़ी के अनेकों छोटे बड़े पुर्जे घूमने लगते हैं उसी प्रकार प्रेस की व्यवस्था ठीक प्रकार हो जाने से अखण्ड-ज्योति में शक्ति भर जायगी। इस बल के कारण अनेकों धर्म प्रवृत्तियों के आसानी से चलते रहने में बड़ी सुविधा हो जायगी।

अपने जीवन के दूसरे अध्याय में प्रवेश करते हुए अखण्ड-ज्योति अपने स्वजनों आत्मीयों, कुटुम्बियों की सहायता चाहती है। जिस धर्म तरु के सुस्थित हो जाने से अनेक भ्रान्त व्यक्तियों को सद्ज्ञान का अमृत लाभ होगा, जिसकी छाया में बैठ कर असंख्य नर नारी रोग, शोक, क्लेश, पीड़ा और पाप तापों से छुटकारा प्राप्त करेंगे, ऐसे पौधे की जड़ में आज थोड़ा-थोड़ा जल, अपने परिजन छिड़क दें तो उन छींटों से उनके घड़े में घाटा न आवेगा, पर यह पौधा उन सद्भावमयी बूँदों के द्वारा नवजीवन धारण करके कुछ ही समय में परिपुष्ट वृक्ष बन जायेगा।

इच्छा होने पर कठिनाई की स्थिति में भी मनुष्य थोड़ा बहुत दे सकता है। अनिच्छा होने पर बड़ी धनराशि का स्वामित्व होने पर भी कुछ त्याग नहीं बन पड़ता। हम अपने साथियों, स्वजनों, कुटुंबियों, पाठकों के उच्च अन्तःकरण में निवास करने वाली सद्भावना को इन पंक्तियों द्वारा जागृत करते हैं और ज्ञान यज्ञ के महत्व पूर्ण आयोजन के लिए सहायता प्राप्त करने की आशा करते हैं। हमें विश्वास है कि हमारे आत्मीयजनों का उच्च अन्तःकरण उन्हें अखण्ड-ज्योति के प्रेस फण्ड के लिए कुछ न कुछ भेजने को अवश्य प्रेरित करेगा और इसी वर्ष प्रेस की स्थापना हो जायगी। प्राप्त हुई सहायताएं अखण्ड-ज्योति में प्रकाशित की जावेंगी।


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