दिव्य-ज्योति

July 1946

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(श्री रामलालजी पहाड़ा, खंडवा)

अग्नि का आन्तरिक अव्यक्त रूप ज्योति है और बहिरगत व्यक्त रूप ज्वाला-उजाला है। ज्वाला-किरणें फैलाकर पदार्थों पर आघात करती हैं। इस तरह किरणों का घात प्रतिघात चलता है। इस क्रिया को ‘प्रकाश’ कहते हैं। इसी से मनुष्यों को पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं। सामान्य स्थिति में मनुष्य किरणों के व्यापार को ही ज्योति समझते हैं। व्यवहार में बिजली के प्रकाश को सब जानते हैं पर बिजली के वास्तविक रूप का ज्ञान किसी बिरले को ही होता है। तार में क्रिया को देखकर विद्युत प्रवाह का अनुमान कर लेते हैं, पर मूल कारण के रूप का ज्ञान बुद्धि ग्राह्य ही रहता है। इन चर्म चक्षुओं से विद्युत का स्वरूप देखना असम्भव है, यद्यपि विधूत रस “बाहर देखना असम्भव है, यद्यपि विद्युत रस बाहर भीतर सर्वत्र प्रवाहित रहता है। जैसा श्रुति में कहा है, ‘तदेजति तन्नेजति तद्दूरेतदून्तिके, तदन्तरस्थ सर्वस्य तदु सर्वम्यास्य बाह्यतः! बह जाता है अर्थात् किरणों द्वारा फैलता है, यह नहीं जाता है अर्थात् मूल रूप में स्थित रहता है, वह पास है अर्थात् सब प्राणियों में समाया हुआ है, वह दूर है, अर्थात् किरणों द्वारा दूर-दूर के पदार्थों को प्रकाशित करता है, इस तरह वह इस जगत के भीतर बाहर सर्वत्र है।

“यज्जाग्रतो दूर मुदैति दैवं तदुसुप्तस्थ तथैवेति। दूरंगमं ज्योतिषाँ ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिव संकल्प मस्तु” जैसे जागते हुए दूर जाता है वैसे ही सुप्त अवस्था में भी दूर जाता है। वह सब ज्योतियों का एक दूर गतिवान ज्योति है, यही शिव संकल्पवान मेरा मन होवे। सूर्य के उदय होते ही प्रकाश इतनी दूर पृथ्वी पर और अन्य ग्रहों पर भी 186000 मील प्रति सेकेंड के वेग से पहुँचता है, अस्त होने पर भी उतनी ही दूर चला जाता है। मनुष्य भी जब जागता तब नेत्र स्थित ज्योति की किरणें दूर-दूर के पदार्थों पर पहुँचती हैं और सोता है तब अन्तरिक्ष में न जाने कितनी दूर चली जाती हैं। इन्द्रियाँ मानों मध्य में स्थित रहती है वहाँ से यह ज्योति दोनों अवस्थाओं में दूर जाती है। यही सब इन्द्रियों को पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करने में सहायक होता है। इसके बिना इन्द्रियों के और जगत के सब व्यापार बन्द रहते हैं।

“यत्त प्रज्ञानमुतचेतोधृतिश्च यज्जयोतिरन्तरमृतं

प्रज्ञासु। यस्मानन्नऽऋते किंचन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु” अर्थात् यही ज्योति प्रज्ञा और धृति को उद्भासित करती है, सब प्रकृति से उत्पन्न हुए पदार्थों के भीतर स्थित है, अमर है, इसके बिना जगत में कुछ भी काम नहीं होता है। यही ज्योति सब कामों का मूल कारण है। मनुष्य इसी का ध्यान रख असत् भावों को त्याग करे। जिस तरह बादलों के आने से आँधी के कारण धूल उड़ने से वातावरण कुछ सघन हो जाता है। सघन वातावरण में ढके रहने के कारण मनुष्यों को सूर्य दर्शन दुर्लभ होता है। उसी प्रकार माया सक्त जीवों को इस ज्योति का प्रकाश मिलना कठिन है, यहाँ “नाहं प्रकाशः सर्वस्य योग माया समावृताः” यद्यपि यह प्राणियों के हृदय में सदा स्थित है। इस सूक्ष्म ज्योति का ध्यान कठिन भी है। इन्द्रियों को बहिर्मुख होना अधिक प्रिय है। इस सिद्धान्त को जानकर कृष्ण भगवान अर्जुन को वस्तुगत तत्व का ध्यान दिलाने के लिए भौतिक पदार्थों का दृष्टान्त लेकर कहते हैं “ज्योतिषाँ रवि रशुमान्” अर्थात् ज्योतियाँ में मेरी विभूति किरणों वाला रवि-[र अग्नि मूल को, ‘वि’ वितरण करने वाला] हूँ’। यही ज्योतियों के ज्योति अन्धकार से परे श्रेष्ठ कही जाती है। यह आदित्य, चन्द्र, अग्नि सब में समाया हुआ है, इन सबका मूल कारण एक ही है यथा “यदादित्यगंत तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्। यच्चद्रमसि यञ्चाग्नौतत्ते जोविद्धि मामकम्” सर्व मनुष्यों के हृदय में रहने वाला महापुरुष ज्योतिर्मय है किन्तु विषय और अपस्वार्थ से वह मलिन हो रहा है। श्रुति कहती है “अंगुष्ठमात्र पुरुषो ज्योतिरिवाधूमकः। लिंग देह अंगुष्ठ मात्र है और धूम रहित ज्योति समान है। और भी “तच्छुभ्रमू ज्योतिषाँ ज्योतिस्तद्यदात्म विदोविदुः” वह ज्योतियों की ज्योति शुभ्र है जिसको आत्मवेत्ता ही जानते हैं। जिन मनुष्यों ने संयम नियम द्वारा इन्द्रियों का निग्रह कर अपने दोषों को दूर कर दिया है वे ही इस ईश्वरीय दिव्य ज्योति का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। अस्तु।


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