यज्ञ द्वारा रोगों की चिकित्सा

July 1946

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साधारणतः दैनिक कार्यक्रम में हवन को भी एक नित्य कर्म की तरह स्थान देना चाहिए। शास्त्रों ने नित्य पंचयज्ञ करने के लिए हर गृहस्थ को आदेश दिया है। पूजा भजन के समय थोड़ा सा हवन नित्य कर लेना चाहिये। शास्त्रीय विधि व्यवस्था मंत्र या “ॐ भूर्भुवः स्वः” इन व्याहृतियों से जितनी सामर्थ्य हो उतना घी और सामग्री लेकर हवन कर लेना चाहिए। समिधा की लकड़ी आम, पीपल, बड़, गूलर, छोंकर, बेल, ढाक आदि के पुराने पेड़ की खूब सूखी हुई लेनी चाहिए। चंदन, देवदारु, सरीखी सुगंधित लकड़ियाँ भी थोड़ी बहुत मिला लीं जाय तो और भी अच्छा है। हवन सामग्री में निम्न वस्तुएं होनी चाहिए-चन्दन, इलाइची, जायफल, जावित्री, केशर, गिलोय, अगर तगर, असगंध, बंशलोचन, गूगल, लौंग, ब्राह्मी, पुनर्नबा जीवन्ती, कचूर, छार छबीली, शतावरि, खस, कपूर-कचरी, कमलगट्टा, शीतल चीनी, तालीस पत्र, बच, नागकेशर, दालचीनी, रास्ना, आँवला, जटामासी, इन्द्र जौ, मुनक्का, छुहारा नारियल की गिरी, चिरौंजी, किशमिश, पिस्ता, अखरोट। यह चीजें साधारणतः समान भाग होनी चाहिए पर केशर बंसलोचन जैसी अधिक महंगी चीजें आर्थिक कारणों से कम भी डाली जा सकती हैं। सामग्री नई, ताजी सूखी और साफ होनी चाहिए। सामग्री कूट कर उसमें तिल, जौ, चावल, उर्द, शक्कर और घी मिला लेना चाहिए। इस सामग्री का हवन करने से हवन के निकटस्थ लोगों को बल वर्धक, मानसिक शान्तिदायक और रोग नाशक तत्व प्राप्त होते हैं। फलस्वरूप उनके स्वास्थ्य की स्थिति उन्नत एवं सन्तोषजनक होने लगती है।

यदि किसी रोग विशेष की चिकित्सा के लिए हवन करना हो तो उसमें उस रोग को दूर करने वाली ऐसी औषधियाँ सामग्री में और मिला लेनी चाहिए जो हवन करने पर खाँसी न उत्पन्न करती हों। यह मिश्रण इस प्रकार हो सकता है—(1) साधारण बखारो में तुलसी की लकड़ी, तुलसी के बीज, चिरायता, करंजे की गिरी (2) विषम ज्वरों में—पाढ़ की जड़, नागरमोथा, लाल चन्दन, नीम की गुठली, अपामार्ग, (3) जीर्ण ज्वरों में-केशर, काक सिंगी, नेत्रवाला, त्रायमाण, खिरेंटी, कूट, पोहकर मूल (4) चेचक में—वंशलोचन, धमासा, धनिया, श्योनाक, चौलाई की जड़ (5) खाँसी में —मुलहठी, अड़ूसा, काकड़ा सिंगी, इलायची, बहेड़ा, उन्नाव, कुलंजन (6) जुकाम में—अनार के बीज, दूब की जड़, गुलाब के फूल, पोस्त, गुलबनफसा (7) श्वाँस में—धाय के फूल, पोन्त के डौड़े, बबूल का वक्कल, मालकाँगनी, बड़ी इलायची, (8) प्रमेह में—ताल मखाना, मूसली, गोखरु बड़ा, शतावरि, सालममिश्री, लजवंती के बीज (9) प्रदर में—अशोक की छाल, कमल केशर मोचरस, सुपाड़ी, माजूफल (10) बात व्याधियों में—सहजन की छाल, रास्ना, पुनर्नवा, धमासा, असगंध, बिदारीकंद, मैंथी, (11) रक्त विकार में—मजीठ, हरड़, बावची, सरफोंका, जबासा, उसवा (12) हैजा में—धनियाँ, कासनी, सोंफ, कपूर, चित्रक (13) अनिद्रा में—काकजघा पीपला-मूल, भारंगी (14) उदर रोगों में—चव्य, चित्रक तालीस पत्र, दालचीनी, जीरा, आलू बुखारा, पीपरिं, (15) दस्तों में—अतीस, बेलगिरी, ईसबगोल, मोचरस, मौलश्री की छाल, ताल मखाना, छुहारा। (16) पेचिश में—मरोड़फली, अनारदाना, पोदीना, आम की गुठली, कतीरा (17) मस्तिष्क संबंधी रोगों में-गोरख मुँडी, शंखपुष्पी, ब्राह्मी, बच शतावरी (18) दाँत के रोगों में—शीतल चीनी, अकरकरा, बबूल की छाल, इलायची, चमेली की जड़ (19) नेत्र रोगों में-कपूर, लौंग, लाल चन्दन, रसोत, हल्दी, लोध (20) घावों में—पद्माख, दूब की जड़, बड़ की जटाएं, तुलसी की जड़, तिल, नीम की गुठली, आँवा हल्दी। (21) बंध्यत्व में-शिवलिंग के बीज, जटामासी, कूट, शिलाजीत, नागरमोथा, पीपल वृक्ष के पके फल, गूलर के पके फल, बड़ वृक्ष के पके फल, भट कटाई। इसी प्रकार अन्य रोगों के लिए उन रोगों की निवारक औषधियाँ मिलाकर हवन सामग्री तैयार कर लेनी चाहिये। इस संबंध में ‘अखंड-ज्योति’ कार्यालय से पाठकगण जवाबी पत्र द्वारा सलाह ले सकते हैं।

स्वास्थ्य मनुष्य को अपनी तन्दुरुस्ती कायम रखने और उसे बढ़ाने के लिए नित्य गायत्री मंत्र के साथ हवन करना चाहिये। इससे आध्यात्मिक लाभ भी होता है। रोगी मनुष्य यदि चल फिर सकता हो तो उसे आसान पर पूर्व की ओर मुँह करके बैठना चाहिये और स्वयं हवन करना चाहिए। यदि रोगी अशक्त हो तो उसे हवन के समीप मुलायम बिस्तर पर लिटा देना चाहिये। जिस कमरे में रोगी का रहना होता हो उस कमरे की खिड़कियाँ खोलकर यदि हवन किया जाय तो बहुत अच्छा है। परन्तु इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि कमरे में जरूरत से ज्यादा गैस भर जाने के कारण रोगी को कष्ट न हो। हवन की अग्नि प्रज्वलित रहनी चाहिए धुँआ सदा हानिकारक होता है, चाहे वह लकड़ी का हो चाहे सामग्री का हो। जलती हुई अग्नि से ही औषधियों की सूक्ष्मता ठीक प्रकार होती है। घर में हवन की वायु के बस जाने से अनेक प्रकार के अस्वास्थ्यकर विकारों का निवारण हो जाता है।

हवन के समय हल्के ढीले और कम वस्त्र पहनने चाहिये। यदि ऋतु अनुकूल हो तो नंगे ही बैठना चाहिये जिससे कि यज्ञ की वायु शरीर को बाहर भी स्पर्श करे। स्नान करके बैठना सबसे अच्छा है पर यदि स्थिति अनुकूल न हो तो हाथ मुँह धोकर भी काम चल सकता है। यदि विधिवत हवन न हो सके तो एक मिट्टी के सकोरे में लकड़ियाँ जलाकर उस पर घी और हवन सामग्री डालकर रोगी के समीप रख देना चाहिए। एक तरीका यह भी हो सकता है कि सामग्री को कूट कर घी के साथ उसकी बत्ती सी बना ली जाय और धूपबत्ती की तरह उसे जलने दिया जाय। हवन के लिए प्रातःकाल का समय सबसे अच्छा है। बिना विशेष आवश्यकता के रात्रि में हवन न करना चाहिये।

हवन के समीप जल का भरा हुआ एक पात्र रखना कभी न भूलना चाहिये। यदि बड़ा हवन हो हवन कुण्ड के चारों ओर पानी में भरे पात्र रख देने चाहिये। कारण यह है कि हवन में जहाँ उपयोगी वायु निकलती है वहाँ कार्बन सरीखी हानिकार गैस भी निकलती है। पानी उस हानिकर गैस को खींचकर अपने में चूस लेता है। इस पानी को सूर्य के सम्मुख अर्घ के रूप में फैला देने का विधान है। इस जल को पीने आदि के काम में न लाना चाहिये।

हवन के अतिरिक्त वायु चिकित्सा का दूसरा तरीका प्राणायाम है। हम अपनी “आसन और प्राणायाम” पुस्तक में इसका वर्णन कर चुके हैं। प्राणायाम के द्वारा अनेक कठिन रोगों के रोगी स्वास्थ्य लाभ कर चुके हैं। विशेष रोगों के लिए विशेष प्राणायाम भी हो सकते हैं। पर साधारण और सर्व रोगोपयोगी प्राणायाम यह है कि (1) खुली हवा में प्रातःकाल मेरुदण्ड सीधा कर पद्मासन से समतल भूमि पर एक छोटा आसन बिछा कर बैठें (2) फेफड़ों में जितनी हवा भरी हो उस सबको धीरे-धीरे बाहर निकाल दें। (3) जब फेफड़े बिल्कुल खाली हो जाए तो धीरे-धीरे साँस खींचना आरम्भ करें और जितनी वायु छाती एवं पेट में भरी जा सके भर लें। (4) जितने सेकिंड में हवा खींची गई हो उसके एक तिहाई समय तक वायु को भीतर ही रोकें (5) अब धीरे-धीरे वायु को बाहर निकालना आरम्भ करें और पेट को बिल्कुल खाली कर दें (6) जितनी देर में हवा बाहर निकाली गई हो उसके एक तिहाई समय तक बिना वायु के रहें (7) फिर पूर्ववत वायु खींचना आरम्भ कर दे यह एक प्राणायाम हुआ। ऐसे प्राणायाम सामर्थ्य के अनुसार एक समय में 10-15 या न्यूनाधिक किये जा सकते हैं। घण्टे दो-दो घण्टे के अन्तर से यह प्राणायाम करते रहने चाहिये। साथ में ‘ॐ’ का या गायत्री मन्त्र का जप भी करते रहना चाहिये। जैसे आँधी आने से आकाश में वायु की शुद्धि हो जाती है उसी प्रकार प्राणायाम से वायु की प्रचण्ड हलचल द्वारा भीतरी विकास उमड़ कर साँस द्वारा बाहर निकल जाते हैं। फेफड़े, मस्तिष्क, हृदय, आमाशय, आँत, पेडू और गुर्दे को इस प्राणायाम द्वारा बल मिलता है और आवश्यक व्यायाम हो जाता है। जिससे निर्बल अंगों में सबलता बढ़ती है और बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य सुधरता है।


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