जल्दी कैसे मर जाते हैं?

May 1941

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मनुष्य को अपने जन्मदिन से ही मृत्यु से लड़ना पड़ता है। कहते हैं कि मृत्यु शिर पर नाचती रहती है। इस दुश्मन से युद्ध करके अपने को जीवित रखने के लिए तरह-तरह के दाव-पेंच चलाने पड़ते हैं। आरोग्य शास्त्र, शरीर विज्ञान, स्वास्थ्य—अन्वेषण, चिकित्सा शास्त्र, मनोविज्ञान आदि के आविष्कार मृत्यु से बचने और दीर्घजीवन के लिए ही हुए हैं। जब इन हथियारों में कुछ त्रुटि आ जाती है, जब मनुष्य दाँव चलाना भूल जाता है, तो उसे हारना पड़ता है। इस पराजय को ही मृत्यु कहा जा सकता है।

इन दिनों जर्मनी की गुप्तचर सेना-गेस्टेपो और फिफ्थ कालम की सर्वत्र बड़ी चर्चा है। कहते हैं कि इनके जासूस बहुत ही गुप्त रूप से साधारण जनता में मिल जाते हैं। ये इतने चालाक होते हैं, कि अपना भेद प्रकट नहीं होने देते और आसानी से पहचाने नहीं जाते। हिटलर की तरह मृत्यु के भी बड़े विकट जासूस हैं, जो हमारे शरीर में छिप कर बैठ जाते हैं और अपने मालिक का काम पूरा करते रहते हैं और अपने मालिक का काम पूरा करते रहते हैं। इनका नाम ‘फिफ्थ कालम’ नहीं, वरन् ‘बुरी आदतें’ हैं। यह चुपचाप हमारे स्वभाव में घुस पड़ती हैं और धीरे-धीरे मनुष्य की सारी सम्पत्ति पर अपना कब्जा करके उसे अपना गुलाम बना लेती हैं। जब घर में ही विभीषण उठ खड़े हों, तो फिर शत्रु से लड़कर सफलता कैसे प्राप्त की जाए? हम अशक्त होते हैं, इसलिए हारते हैं और जब हारते हैं, तो मर जाते हैं।

मृत्यु के इन गुप्तचरों में कई तो ऐसे छोटे होते हैं, जो बहुत ही तुच्छ प्रतीत होते हैं। झुककर बैठना और घुग्घू की तरह छाती झुका कर चलना एक ऐसी ही छोटी आदत है, जो देखने में महत्वहीन प्रतीत होती है, परन्तु फेफड़ों पर अनावश्यक दबाव डाल कर मृत्यु को बहुत निकट बुला जाती है। हर वक्त अकड़े रहने की आदत भी इसी से मिलती-जुलती है। कुछ लोगों को आदत होती है, वो रास्ता चलने में पैर इस तरह रखते मानो धरती को चूर कर देंगे। लिखेंगे तो कलम को ऐसे पकड़ेंगे मानो हल चला रहे हैं। कुर्सी पर बैठेंगे तो उस पर ऐसे चिपट जायेंगे मानों कुर्सी भागने ही वाली हो। उनकी पेशियाँ हर वक्त खिंची रहती हैं, यहाँ तक कि सोते समय भी ढीली नहीं होतीं। ऐसे लोग जब सोकर उठते हैं, तो उन्हें बड़ी थकान मालूम होती है, क्योंकि वे साधारण कामों में आवश्यकता से दस गुनी शक्ति अधिक खर्च कर देते हैं। बहुत से लोगों को शोर शराबा, दौड़-धूप और उछल कूद की आदत होती है। उनकी जबान निष्प्रयोजन कतरनी की तरह चलती रहती है और जबड़े, होंठ, भवें, कोठे हाथ अकारण चलते रहते हैं। इस प्रकार की दीर्घकालीन हरकतों से गर्मी पैदा होती है, वह रक्त को सुखाती है। यदि इस प्रकार शक्तियों का अपव्यय न किया जाए और ठीक तरीके से चलने, बैठने, उठने का अभ्यास रखा जाए तो हमारी आयु में बहुत कुछ वृद्धि हो सकती है।

डॉक्टर अवर्नेर्था का कथन है, कि “लोग जितना भोजन पेट में ठूँसते हैं, प्रायः उसका चौथाई भाग ही पच सकता है, शेष भार को तो जीवन की बाजी लगाकर पेट में रखते हैं।” यकृत, आमाशय और आँतों से उतना ही पाचक रस निकलता है, जो शरीर की आवश्यकतानुसार पका सके। जिन्हें कब्ज रहता है, उन्हें समझना चाहिए कि वे आवश्यकता से अधिक भार पेट पर लाद रहे हैं और इसमें जीवन की जोखिम उठा रहे हैं। सच्ची भूख वह है, जो पेट खाली होने पर लगती है। पेट में मल भरा रहने पर भी जब भूख लगती है, तो वह वास्तव में आँतों की जलन होती है, जो करीब-करीब भूख जैसी ही मालूम पड़ती है।

फेफड़े में रक्त की सफाई होती है। प्राणप्रद-वायु (Carbonde oxide and oxygen) के आवागमन से सोलह सौ घन फुट क्षेत्रफल के क्षेत्र का मैल साफ किया जाता है। शरीर में उत्पन्न होते रहने वाले विषों में से तीन-चौथाई भाग फेफड़ों द्वारा साफ होता है। ऐसे उपयोगी यंत्र को लोग धूम्रपान द्वारा नष्ट करते हैं। तम्बाकू के धुएं से फेफड़ों की सतह पर एक प्रकार की तह जम जाती है, जिससे खून की विषैली गैसों का बाहर आना और शुद्ध वायु का पूर्ण रूप से प्रवेश होना रुक जाता है, जिससे इस व्यसन में लिप्त लोग अपने खून को विषैला बना कर आयु को क्षीण करते हैं चाय, काफी, मद्य, भंग, अफीम के नशे नाड़ी जाल पर बड़ा घातक प्रभाव डालते हैं और क्षणिक उत्तेजना दे-दे कर मनुष्य का जीवन रस सुखा डालते हैं।

निद्रा की न्यूनता मृत्यु का अफसर गुप्तचर है। सोते समय यदि छाती पर हाथ का या किसी अन्य वस्तु का भार पड़ जाता है, तो श्वाँस में रुकावट होती है, इसका असर स्नायुओं पर होता है और अर्ध जाग्रत अवस्था में ऐसा भय मालूम पड़ता है, मानो छाती पर भूत चढ़ बैठा हो। रात को अधिक भोजन करके तुरन्त सो जाने से श्वाँस का अवरोध होता है और पाचन क्रिया अधिक तेजी से जारी रहती है। आराम और मेहनत दोनों एक साथ नहीं हो सकते। जब पेट में जोरों से काम हो रहा है, तो नाड़ी और पेशियों को आराम कैसे मिल सकता है? फलस्वरूप अच्छी नींद नहीं आती और अच्छी नींद न आने से क्षति की पूर्ति नहीं होने पाती। घाटा बढ़ता है और दिवालिया बन जाते हैं। क्या ही अच्छा हो, यदि हम रात को पेट हलका कर सोवें और निद्रा का सच्चा आनन्द प्राप्त करें।

बुरे विचार करना, बुरी बातें सोचना, बुरे कामों पर ध्यान देना, मृत्यु सेना के प्रधान अधिनायक हैं। इनका कार्य अन्य साधारण दूतों की अपेक्षा बहुत ही तेज होता है। ईर्ष्या, द्वेष और घृणा के विचार शरीर में एक प्रकार का दाह उत्पन्न कर देते हैं। चिन्ता और निराशा से सारी मशीन ढीली पड़ जाती हैं, स्वार्थ और कपट की भावनाएं रक्त को विषैला बनाती हैं। काम और क्रोध के विचार रक्त का चाप बढ़ा देते हैं। इन दुर्गुणों में यदि कई इकट्ठे हो जाते है, तो उनका नाशक कार्य भी उतना ही तीव्र हो जाता है और हम पूरी आयु का उपभोग न करके बहुत जल्दी मर जाते हैं।


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