दया की देवी

May 1941

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सन् 1813 में इंग्लैंड के जेलखानों की बड़ी बुरी दशा थी। एक एक कोठे में 300 तक अधनंगी औरतें बन्द कर दी जाती थीं। उनके पास न ओढ़ने बिछाने को होता था, और न पहनने को कपड़े। युवा एवं वृद्ध स्त्रियाँ तथा छोटी उम्र की बालिकाएं घास और कूड़े के ढेर पर चिथड़े में लिपट कर सो जाती थीं। उनकी सुधि लेने वाला कोई न था। अधिकारी उन्हें सिर्फ इतना भोजन देते थे, जिससे वे किसी प्रकार जीवित रह सकें।

यह दशा एलिजाबेथ फ्राय नामक एक देवी ने देखी तो उसकी आंखें भर आई। फ्राय लिखी- पढ़ी थीं, और उनके पास आनंद और ऐश्वर्य की जिन्दगी बिताने योग्य बुद्धि थी। परन्तु जीवन के मधुर फल को चुपचाप खुद ही कुतर-कुतर कर खाते रहना उन्हें पसन्द न आया। सामने फुलवारी पर दृष्टि गई तो देखा कि पुष्प अपने सुन्दर जीवन को दूसरों के सुख के लिये अर्पित करता हुआ मुस्करा रहा था। फ्राय ने अपना जीवन इन दुखियों के निमित्त दे दिया। उन्होंने बन्दी ग्रह की पीड़ित बहिनों के उद्धार का व्रत लिया।

सरकार की सहायता से उन्होंने जेल में शिक्षा का प्रचार करना आरंभ किया। बन्दी ग्रह की नारकीय यंत्रणा भोगने वाली स्त्रियों को पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई उनके परित्राण करने के लिये भी प्रयत्न करेगा। परन्तु जब पाप और अज्ञान में डूबी हुई, मूर्तियों को फ्राय ने प्रेम पूर्वक अपने गले लगाया और उन्हें शिक्षा देना आरंभ किया तो उनकी जीवन दिशाएं ही बदल गईं। कुछ ही मास के प्रयत्न ने उन नारकीय पशुओं को शान्त, निर्दोष और पवित्र बना दिया। सुधार का विस्तार हुआ। सरकार उनके कार्य को देखकर प्रभावित हुई, और उसने इस प्रकार की शिक्षा कानून द्वारा जेलखानों में जारी कर दी।

आज श्रीमती फ्राय इस संसार में नहीं हैं। परन्तु उनके पवित्र प्रेम का पौधा अतृप्त और दुःखी प्राणियों को शीतलता प्रदान करने के लिये जीवित है। उनकी योजना इस समय समस्त सभ्य संसार में काम में लाई जा रही है।


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