हिन्दू धर्म ‘जड़’ नहीं है

May 1941

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(महात्मा गाँधी)

हिन्दू धर्म की तपश्चर्या पर ही उसकी शुद्धता का आधार है। जब कभी धर्म पर आफत आती है, तब एक सच्चा हिन्दू तपश्चर्या करता है, बुराई के कारण ढूंढ़ता है, और उसका उपाय करता है।

शास्त्रों में वृद्धि होती ही रहेगी। वेद, उपनिषद्, स्मृति, पुराण आदि एक साथ एक ही समय में उत्पन्न नहीं हुए हैं, किन्तु प्रसंग आने पर ही उनकी उत्पत्ति हुई है। इसलिये उनमें विरोधाभास भी होता है। वे ग्रन्थ शाश्वत सत्य को नहीं बताते हैं, वरन् अपने-अपने समय में शाश्वत सत्य पर किस प्रकार अमल किया गया था, यही वे बताते हैं। उस समय जैसा किया गया था वैसा दूसरे समय में भी करें तो निराशा के कूप में ही पढ़ना होगा। एक समय यहाँ पशु यज्ञ होता था, इसी लिये क्या आज भी करेंगे? एक समय चोर के हाथ-पैर काट डाले जाते थे, क्या आज भी उनके हाथ-पैर काटेंगे? एक समय हमारे यहाँ एक स्त्री अनेक पति से विवाह करती थी, क्या आज भी करेगी? एक समय हम लोग बाल-कन्या का दान करते थे, तो क्या आज भी वही करेंगे? एक समय हम लोगों ने कुछ मनुष्यों की प्रजा को तिरस्कृत माना था, इसलिये क्या आज भी उसे तिरस्कृत ही मानेंगे?

हिन्दू धर्म ‘जड़’ बनने से साफ इनकार करता है। ज्ञान अनन्त है, सत्य की मर्यादा को किसी ने भी खोज नहीं पाया है। आत्मा की नई शोधें होती ही रहती हैं, और होती ही रहेंगी। अनुभव के पाठ पढ़ते हुए हम लोग अनेक प्रकार के परिवर्तन करते रहेंगे। सत्य तो एक ही है, लेकिन उसे सर्वांश में कौन देख सका है? वेद सत्य हैं, वेद अनादि हैं लेकिन उसे सर्वांश में कौन जान सकता है। वेद के नाम से जो आज पहचाने जाते हैं वे तो उसके करोड़वाँ भाग भी नहीं हैं, जो हम लोगों के पास है उसका अर्थ भी सम्पूर्णतया कौन जानता है?


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