संसार में दुर्बल कमजोर मनुष्यों की कमी नहीं। इसी तरह निर्बल मस्तिष्क वाले व्यक्ति भी बहुत अधिक संख्या में देखने में आते हैं। उनके मस्तिष्क का पूर्ण विकास नहीं होता, प्रायः उसके 1/300 भाग का ही वे उपयोग कर पाते हैं, शेष यों ही निरर्थक पड़ा रहता है। मनुष्य में मानसिक शक्तियों की ही विशेषता है, अन्यथा उसमें और साधारण पशुओं में क्या अन्तर रह जावे। यह विषय विचारणीय है, कि मनुष्यों की शरीर रचना एक समान होते हुए बुद्धि विषयक इतना असाधारण अन्तर क्यों दीख पड़ता है। एक मनुष्य बुद्धि का पुतला है तो दूसरे में मूर्खता की कमी नहीं।
पाठक जानते होंगे कि सब प्रकार की शक्तियों का मूल स्रोत आत्मा है। यह परमात्मा का अंश होने के कारण अपने अन्दर बहुत ही अधिक महत्ता धारण किये हुए है, उसमें किसी बात की कमी नहीं। कमी है प्रयोग करने वाले की। अपनी शक्तियों को जितना प्रयोग में लाया जाता है, वे उतनी जागृत होती जाती हैं। बुद्धि के अधिकाधिक जागरण में निरंतर और दीर्घकालीन अभ्यास की जरूरत होती है। कई जन्मों के संचित प्रयत्न क्रमशः उसको उन्नति-शील बना पाते हैं। कुछ लोगों में बहुत ही छोटी आयु से अद्भुत प्रज्ञा एवं प्रतिभा देखने में आती हैं, समझना चाहिये कि यह इसके पूर्व संचित प्रयत्नों का फल है। तब क्या भाग्य से ही बुद्धि बल प्राप्त होता है? नहीं, ऐसी बात नहीं है। भाग्य भी प्रयत्न का फल है। कुछ समय पूर्व किये हुए संचय का परिणाम यदि पीछे मिले तो भी वह अपने श्रम का ही फल कहा जाएगा। कभी-कभी ऐसा अनुभव में आता है, कि बालक आरंभ में बहुत मंद बुद्धि था, परन्तु जब उसे थोड़ी शिक्षा मिली तो बड़ा प्रखर विचारशील निकला। इसका कारण यह है कि पूर्व ज्ञान नवीन जन्म धारण की संधि-वेला में विस्मृति से धुँधला हो गया था, जैसे राख जम जाने से अग्नि ढक जाती है, किन्तु जब ऊपर से राख को झार दिया जाता है, तो अग्नि का स्वरूप चमकने लगता है। इसलिये आवश्यक है कि प्राचीन और नवीन ज्ञान का प्रकाश करने के लिये प्रयत्न करें और अपनी मानसिक शक्तियों को बढ़ावें। यदि प्राचीन संचय कुछ भी न होगा तब भी प्रयत्न से लाभ ही होता है, क्योंकि जो परिश्रम किया जाएगा इस समय तथा आगे काम देगा। उसके व्यर्थ जाने की तो कोई आशंका ही नहीं है।
‘अभ्यास से उन्नति’ यह जीवन का अखंड नियम है। क्योंकि इससे आत्मा की प्राण शक्ति को अधिक क्रिया करनी पड़ती है, और वह नित्य व्यवहार में आने वाले चाकू की तरह मुर्चा आदि से मुक्त रह कर तेज ही होती जाती है। शारीरिक व्यायाम करते समय माँसपेशियाँ खिंचती हैं, तब उनमें प्राण का प्रवार अधिक मात्रा में होने लगता है और जीवन कोष ( ष्टद्गद्यद्यह्य) फैल फूल कर बड़े एवं सुदृढ़ हो जाते हैं। समस्त शरीर में होने वाली इस क्रिया के सूक्ष्म कम्पन जब अधिक परिमाण में होते हैं और उन कम्पनों को मानसिक प्रोत्साहन मिलता है तो शरीर में विशेष रूप से एक विद्युत का संचार होता है, जिसे शारीरिक बल कहा जाता है, निरंतर के अभ्यास से यह बल स्थायी भी हो जाता है। शरीर में जब चर्बी बढ़ जाती है तो डॉक्टर कहते हैं कि इसके आमाशय ने भोज्य पदार्थों में से चर्बी को अधिक ग्रहण किया है, इसी प्रकार मनुष्य की बुद्धि में जैसी विशेषता पाई जाती है, तब समझा जाता है कि उसने अपनी मनोभूमि का निर्माण करने में वैसे ही तत्वों का अधिक उपयोग किया है। पाप वृत्तियों के वशीभूत मनुष्य के बारे में यही समझना चाहिये कि इसने बहुत समय तक उस प्रकार के अशुभ विचारों को अपने मन में स्थान दिया है, फलस्वरूप वे परिपुष्ट हो गये हैं। जिस प्रकार के विचार जितने अधिक मनोयोग एवं दिलचस्पी के साथ लिये जाते हैं, उनके उतने ही गहरे अंकन (ष्शठ्ठक्शद्यह्वह्लद्बशठ्ठ) मस्तिष्कीय। मज्जा पर अंकित होते हैं। बार-बार उन विचारों को करने से वे रेखाएं अधिक गहरी और स्थायी होती जाती हैं एवं कुछ समय उपरान्त अपने लिए स्थायित्व प्राप्त करके उन्नति एवं आदत के रूप में दृष्टिगोचर होने लगती हैं। शारीरिक और मानसिक विकास के इन शास्त्रीय सिद्धाँतों पर विचार करने से यह सिद्ध होता है कि मानसिक विकास करना, अपनी बुद्धि को बढ़ाना, मनुष्य के अपने हाथ में है और वह प्रयत्नपूर्वक बुद्धिमान बन सकने में सर्वथा स्वतंत्र है। व्यायाम से शरीर का हर एक अंग उन्नति करता है, यह नियम मानसिक शक्तियों पर भी लागू होता है। एकाग्रतापूर्वक किसी एक विषय पर लगातार कुछ समय गहरा मनन करना बुद्धि बढ़ाने के लिये बहुत ही उत्तम अभ्यास है। इससे सारा बल एक बिन्दु पर एकत्रित होता है और इस एकत्रीकरण से मन की उन्हीं शक्तियों की ओर रक्त की सूक्ष्म स्फुरणा का प्रभाव होता है, जिससे उनके कारण में विशेष सहायता मिलती है।
तुम्हारी रुचि जिस में अधिक हो, ऐसे किसी उत्तम विषय लो। उस विषय की कोई ऐसी पुस्तक चुन लो जिसका लेखक कोई योग्य व्यक्ति हो और उसमें नवीन एवं गूढ़ विचार हों। इस पुस्तक का थोड़ा सा अंश बहुत धीरे-धीरे एक एक शब्द पर विचार करते हुए पढ़ो और फिर रुक कर उस विषय पर खूब गंभीरता के साथ मनन करो। जितने समय में उतना पढ़ा था, कम से कम उससे दूना समय उसे समझने में लगाओ। इस गंभीरता पूर्वक मनन करने से केवल नवीन अध्ययन ही न होगा वरन् बुद्धि को बढ़ाने वाला व्यायाम भी होगा, मन उचटे तो उसे रोक कर उसी विषय पर लगाओ। परन्तु यदि तुमने रुचिकर विषय चुना है, तो उस पर से मन को उचटने की कोई बात ही नहीं है। चूँकि यह अभ्यास कुछ धार्मिक-दृष्टि से नहीं है, इसलिये यदि तुम्हारा मन धर्म में कम रस लेता हो, तो दूसरा कोई विषय खुशी-खुशी चुन सकते हो। हाँ कोई ऐसा विषय न हो जिसका मन पर कोई दुष्प्रभाव पड़े। इस प्रकार का अभ्यास आरंभ में पन्द्रह मिनट और फिर बढ़ा कर आध घंटा या एक घंटा तक किया जा सकता है। आरंभ में थोड़ा ही अभ्यास करना इसलिए उचित है कि अधिक थकान न आवे।
इस अभ्यास में दोनों ही खास हैं, जिस विषय को विचार के लिये चुना गया है, मनन करने से उसमें बहुत सी नवीन बातें मालूम होंगी और उसमें अपनी विशेष योग्यता हो जायेगी, दूसरे प्रकृति अपनी निष्पक्ष और उदार न्यायशीलता के अनुसार तुम्हारे परिश्रम का बदला बुद्धि वृद्धि के रूप में दे देगी, जिसके अनुसार तुम किसी विषय पर अधिक सावधानी के साथ उपयोगी सोच-विचार कर सकोगे, उस समय तुम्हारी बुद्धि जो कुछ निर्णय करेगी वह सच्चा और हितकर होगा।
मनुष्य की आत्मा ज्ञान-स्वरूप है। अज्ञान का कारण अपने मानसिक औजारों का ठीक प्रकार प्रयोग कर सकने में अयोग्य होना होता है, इसलिये औजारों को दोष देने की अपेक्षा उनको चलाने का अभ्यास करो। अपने को बुद्धि का गुलाम मत समझो, असल में बुद्धि तुम्हारी सेविका है। केवल ढील देने के कारण ही वह कुँठित हो जाती है। “मैं ज्ञान स्वरूप सच्चिदानंद आत्मा हूँ। बुद्धि और ज्ञान का अविरल स्रोत मेरे अन्दर बह रहा है। अब मैं विवेक पूर्वक उसका ठीक ठीक प्रयोग करता हूँ”। इन मंत्रों को बार-बार भावना क्षेत्र में दृढ़ीभूत करते रहो। इन मंत्रों को जपने से ही कुछ लाभ न होगा, जब तक तुम पूर्ण श्रद्धा के साथ इन पर विश्वास न करने लगो। बिना नागा अभ्यास करो। नियत समय का ध्यान रखो। प्रमाद और आलस्य को पास भी मत फटकने दो। यह छोटा सा साधन बहुत अल्प समय में ही तुम्हारे सामने आश्चर्य जनक सफलता उपस्थित कर देगा।