धर्म द्वारा शाश्वत शान्ति

May 1941

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(प्रे.—धर्मपालसिंहजी S.S.A. वरला)

सभ्यता के आदि युग से लेकर आज तक धर्म के विषय में विविध मार्गों से छानबीन होती चली आ रही है और प्रत्येक सम्प्रदाय के जन्मदाता अपने-अपने मतानुसार इस विषय पर प्रकाश डालने आते रहे हैं। परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि इस विषय पर पूर्ण प्रकाश पड़ चुका है और इसकी खोज का कार्य बन्द हो गया है। वास्तव में धर्म की परिभाषा का विषय असीम-कठिन और गहन है, जब तक संसार चक्र रहेगा तभी तक इसकी खोज का कार्य भी बराबर चलता ही रहेगा।

मनुष्य जब अन्य सम्प्रदाओं के मतों तथा ग्रन्थों का अवलोकन करता है, और जब उनके भिन्न-2 मतों और विचारों का अपने लिए कुछ फैसला लेने बैठता है, उस समय उसका मस्तिष्क अनेक शंकाओं का खजाना बन जाता है, वह एक बड़ी भ्रान्ति में पड़ जाता है, इस अवसर पर धर्म के वास्तविक स्वरूप को जानने की उत्कंठा उस में उपजती है, परन्तु वह चाह—धर्म के वास्तविक स्वरूपों को समझने की, सच्ची चाह नहीं कही जा सकती। सम्प्रदायों के परस्पर के वाद-विवाद में किसी विशेष पक्ष की ओर से पाठ लेने के लिए यह विशेष लाभदायक सिद्ध हो सकती है। अथवा इस उत्कंठा को धर्म की सच्ची जिज्ञासा का प्रथम सोपान कह सकते हैं।

मनुष्य जब अनुभव के मैदान में कदम रखता है और जीवन के अनन्त मार्ग में जब आपदायें, भूलें, उलझनें आकर रोड़ा बनती हैं और किसी प्रकार सुलझाये नहीं सुलझती, तब अन्दर एक द्वन्द्व छिड़ जाता है और जिसका बगैर निबटारा हुए जीवन-गति का आगे बढ़ना बिलकुल बंद हो जाता है, उस अवसर पर धर्म के वास्तविक स्वरूप को जानने की सच्ची चाह उत्पन्न होती है।

जीवन पथ पर जितना बढ़ते जाते हैं उतना ही अनुभव भी बढ़ता जाता है और भावों के अन्दर सरलता-निष्कपटता, गम्भीरता भी आती जाती है। जितनी तेज़ी से इन गुणों में वृद्धि होती है, उतना ही हम धर्म के निकट आते चले जाते हैं। जब सरल और निष्कपट हृदय में धर्म के लिये सच्ची चाह उपजती है, उस समय उसका समाधान किसी धर्म पुस्तक अथवा किसी अन्य बाहरी साधन द्वारा नहीं होता है बल्कि अंतर्यामी गुरु (आत्मा) ही सब शंकाओं का उत्तर देकर सन्तुष्ट कर देता है, जिन सौभाग्यशाली-पुण्यात्मा पुरुषों के हृदय में सत्य ने स्थान पा लिया है, उनको धर्म-निर्माण के लिए किसी ग्रन्थ-विशेष अथवा उपदेश की आवश्यकता नहीं रहती—वह धर्म के भिन्न-2 बाहरी रूपों को न देख कर अन्तर के एक ही वास्तविक रूप को देखते हैं, जो सर्वव्यापक ईश्वरीय धर्म है। वह कहते हैं कि देश-काल आदि अवस्थाओं के अनुसार बाहरी रूप में परिवर्तन होता है परन्तु उन सबका केन्द्र एक ही है।

धर्म की शरण आये बगैर किसी भी प्रकार की उन्नति होना असम्भव है, इसी पारस की शरण आकर लोहा-जीवन स्वर्ण बनाया जा सकता है। अतएव धर्म के विषय में जानकारी ही जीवन में परम पुरुषार्थ है। प्राकृतिक धर्म, प्रवृत्ति और निवृत्ति दो प्रकार का कहा गया है। प्रवृत्ति धर्म वासना से भरे हुए जीवों का स्वाभाविक धर्म है। जन्म-जन्मान्तर की अच्छी, बुरी वासनाएं जो इनसे चिमटी हुई हैं, वही जीव को आनन्द से अलग ले जाकर दुःख-सुख के चक्र में डाले हुए हैं। ऐसी दशा में प्रवृत्ति को धर्म कहने में संकोच हो सकता है। क्योंकि धर्म अवनति से हटाकर उन्नति की ओर ले जाने वाला कहा जाता है। सत्य वक्ताओं ने कामनाओं का नाश ही उच्चतम अवस्था कही है। अतएव प्रवृत्ति का विरोध हुए बिना आनन्द उद्देश्य की ओर बढ़ना असम्भव है। परन्तु यह भी एक विशेष बात है कि एक दम कोई भी प्रवृत्ति का निरोध (भोगों की इच्छा का त्याग) नहीं कर सकता। या बद्ध जीव जन्म-जन्मांतर की जिन भोगाकाँक्षाओं से बंधा हुआ है, उन की तृप्ति हुए बगैर इसका संसार से तरना असंभव है। इसी को भगवान कृष्णा गीता के श्लोक 58 अ॰ 2 में कहते हैं—

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः

रसवर्ज रसोऽप्यस्य परम् दृष्ट्वा निवर्तते।

अर्थात् विषयों के त्याग करने से विषय तो दूर रहते हैं पर विषय भोग की वासना बनी ही रहती है। केवल आत्म स्वरूप के जानने से उनका नाश होता है—गीता में एक स्थान पर यह भी कहा गया है कि वासनाओं को तृप्त करने के लिए नाना प्रकार के भोग भोगे जाते हैं परन्तु वह घटने की अपेक्षा इस प्रकार और अधिक बढ़ते हैं, जैसे अग्नि घी की आहुति से बढ़ती है, इस दशा में प्रवृत्ति मार्ग पर चलने से भोगाकाँक्षाएं और बढ़ेंगी। फिर वासनाओं की शाँति इस पथ से कैसे सम्भव है? वास्तव में प्रवृत्ति का असली रूप यदि समझ लिया जाए और उसके अनुसार भोगाकाँक्षाओं को भोगते हुए आगे बढ़ा जाए तो जीवन शनैः 2 उस अवस्था को प्राप्त कर लेगा, जहाँ उसकी सब वासनाएँ आत्म-स्वरूप के दर्शन से भस्म हो जाएंगी।

हमारे भोग्य पदार्थ जो मलिन प्रकृति के द्वारा पालित व पोषित किए हुए हैं, वह पूर्ण विशुद्ध भोग नहीं हैं, इन भोज्य पदार्थों में बहुत कम मात्रा में ऐसे कणों की संख्या होती हैं जो हमारी भोगाकाँक्षा तृप्ति का कारण होते हैं और वह भी थोड़े ही समय के लिए, जैसे जल तथा अन्नादि भोगों की शीघ्र ही आवश्यकता बनी रहती है। यदि हम उन कणों को जो कि हमारी भोगाकाँक्षा को अधिक समय के लिए तृप्त रखने वाले हैं, अपने भोज्य पदार्थों से अधिक संख्या में प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त कर लें तो हम एक समय के लिए भोगवासनाओं से मुक्त रहने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेंगे। जिस प्रकार लोहा, सोना, चाँदी आदि धातुओं के मिश्रित वर्ग में से चुम्बक द्वारा लोहे के कण प्राप्त किए जा सकते हैं और जिस प्रकार चुम्बक अन्य सब धातुओं को छोड़कर केवल लोहे के कणों को ही अपने में खींच लेता है, ठीक इसी प्रकार प्रकृति मलिन भोगों से विशुद्ध भोग ग्रहण करने के लिए हमें चुम्बक जैसी शक्ति प्राप्त करनी होगी।

ईश्वर विश्वास, संयम और प्रबल इच्छा शक्ति द्वारा यह शक्ति स्वयं मेव उत्पन्न होने लगती है। संयम में मन की शुद्धि ही सर्वोपरि है, जिसके लिए पवित्र कमाई का पवित्रता से बना सात्विक भोजन अधिक आवश्यक है। वैसे सभी अंगों की शुद्धि होनी चाहिए। मनु ने चार प्रकार की शुद्धि कही है—

अद्भिर्गात्राणी शुष्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति।

विद्या तपोभ्याँ भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति।

इस प्रकार प्रकृति को समझा-बुझा कर एवं आहार विहार में सावधानी रखकर, नियमित बनकर चुम्बक शक्ति को प्राप्त करना चाहिए। गृहस्थ-आश्रम की व्यवस्था बिन्दु (वीर्य) के वेग को संयमित रखने के उद्देश्य से थी। अभ्यास द्वारा व्यभिचार की गंदगी को हटाकर ब्रह्मचर्य पथ पर आरुढ़ होना चाहिए। प्रेम के स्वार्थ में मैले किए हुए रूप को त्याग कर विशुद्ध प्रेम करने का अभ्यास करना चाहिए।

इच्छा-शक्ति की शक्ति अद्भुत ही है, अपने प्रत्येक भोज्य पदार्थ को वैसी ही भावना रखकर भोगना चाहिये, जैसा हम कल्याणकारी समझते हैं। जैसे स्नान करते हुए यही भावना रखनी चाहिये कि जल द्वारा मेरे सब भोग्य पदार्थों से विशुद्ध भोग प्राप्त होने लगेगा। संयम-पूर्वक भोग भोगते हुए उसकी यदि कोई भोग वासना पूर्व में परिमाण में दस थीं, तो कम होकर 9 रह जायेंगी और एक समय ऐसा होना सम्भव है कि वह इसी क्रम से घटते-2 बिन्दु पर पहुँच जाएंगी। इस प्रकार यह प्रवृत्ति मार्ग का पथिक शान्ति के धाम को ले जाने वाला मार्ग पर जा खड़ा होता है।


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