(श्री महादेव झा ‘सुदेव’)
क्यों न दुख-विष घूँट पी, सुख की सुधा धारा बहाऊं?
ग्रीष्म को कर सिक्त जल से, स्वेद कण से मैं नहाऊ ॥
यंत्रणा, दुख, ताड़ना तो, आत्म-सुख के हेतु ही हैं।
प्राण से संघर्ष भी तो, पूर्णता के केतु ही हैं॥
क्या न कंटक बीच पाटल, झूमता खुश हो पवन में?
क्या न सुन्दर चन्द्र हँसत, नील तम पूरित गगन में?
क्यों न फिर इस जग रुदन में, हास का संगीत गाऊँ?
क्यों न दुख विष घूँट पी, सुख की सुधा धारा बहाऊँ ?
विषम पतझड़ से सुखद, निर्माण मधु-ऋतु का हुआ है।
बीज के संहार पर, शृंगार पतझड़ का हुआ है॥
ग्रीष्म का उत्ताप ही है, हेतु इस वर्षा सुखद का।
है तपस्या में निहित, वरदान ही तो उस वरद् का॥
क्यों न पावस की अमा पर, चाँदनी का हास पाऊँ?
क्यों न दुख-विष घूँट पी, सुख की सुधा धारा बहाऊँ?