साँस कैसे लेनी चाहिये?

May 1941

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(ले0 श्रीनारायणप्रसाद तिवारी ‘उज्जवल’, कान्हींवाड़ा)

साँस लेने का स्वाभाविक यंत्र नासिका है। किन्तु अज्ञानवश लोग मुख से भी साँस लेते हैं, फलतः इस नियम विरुद्ध कार्य का उन्हें दण्ड भी मिल जाता है। योग शास्त्र का उपदेश है, कि श्वासोच्छ्वास क्रियाएं नासिका से करो। किन्हीं विशेष प्राणायामों में जहाँ मुँह से साँस लेने का विधान है, वहाँ भी वायु छोड़ने का मार्ग नासिका ही निर्धारित किया गया है। स्वभावतः मनुष्य नाक द्वारा श्वास लेता है। छोटे बालक प्रकृति दत्त बुद्धि के अनुसार इसी नियम का अनुसरण करते हैं। बड़े होने पर मनुष्य जैसे अन्य अनेक कुटेवें सीखता है। वैसे ही वह इस संबंध में भी नियमोल्लंघन करता है। देखा जाता है, कि थोड़ी सी मेहनत करने पर हाँफने लगते हैं। स्त्रियाँ पानी भरते हुए, आटा पीसते हुए, अन्न कूटते हुए या और कोई इसी तरह का काम करते हुए मुँह खोल कर हाँफने लगती हैं, वे नहीं जानते कि हम इससे अपने को और अधिक कमजोर बना रहे हैं। अंग्रेजी में एक कहावत है, कि “प्रत्येक ‘आह’ का अर्थ हृदय का एक बूँद खून सुखाना है” उस उक्ति का वैज्ञानिक रहस्य यह है कि मुँह से साँस छोड़ने पर बहुत हानि होती है। बीमार लोग जरा से दुख-दर्द में कराहने लगते हैं, और अनजाने में इस कुटेव को अपनाते हैं। यक्ष्मा को असाध्य इसलिये बताया जाता है कि उसका रोगी मुँह से ही साँस लेता रहता है, और जो घायल अपने घाव को हर वक्त घिसता रहे उसका अच्छा होना प्रायः कठिन ही समझना चाहिये।

हमारे फेफड़े बहुत ही कोमल हैं। इसलिये उनकी रक्षा के लिये प्रकृति ने पर्याप्त व्यवस्था कर रखी है। हवा में मिला हुआ कूड़ा-कचरा या अन्य हानिकर रोग जन्तु भीतर न जाने पावें, इसीलिये नाक में बालों की छलनी लगा दी गई है, ताकि वह कचरा इनमें ही उलझा रह जाए। नाक में एक प्रकार की श्लेष्मा रहती है, जो कचरा बालों में छनने से भी रह गया था, वह इस श्लेष्मा में चिपक जाता है। इसके बाद भी जो बचता है, वह लम्बी श्वास नलिका में रुक जाता है, और कफ या छींक के रूप में निकल जाता है। फेफड़े में अन्ततः जो वायु पहुँचती है, उसका पूरा संशोधन हो जाता है, किन्तु मुख से वायु लेने पर ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि मुँह में न तो बाल हैं, और न छिद्र इतना कम चौड़ा है, कि धूलि कणों को उसकी दीवारों से चिपकना ही पड़े। इसलिये जैसी-तैसी हवा जब भीतर जाती है तो उसका कचरा कंठ और श्वास नलिका में इकट्ठा होता है, और बहुत सा भाग फेफड़े में भीतर तक सीधा चला जाता है। इसलिये मुख से साँस लेने वाले अक्सर चेपी, दमा, क्षय, आदि के शिकार हो जाते हैं। डाक्टरों का अभिमत है कि इन्फ्लुएंजा, हैजा, प्लेग आदि के दिनों में मुँह से साँस लेने वालों की अपेक्षा नाक के साँस लेने वाले कम मरते हैं। ऋतुओं का प्रभाव वायु पर पड़ता है। इसलिये सर्दी में ठंडी और गर्मी में गर्म हवायें चलती हैं। इनका ताप, फेफड़े के ताप से बहुत न्यूनाधिक होता है। यह सर्द-गर्म हवाएं जब नाक की लम्बी नली द्वारा फेफड़ों तक पहुँचती हैं, तो उनकी गर्मी इतनी ही रह जाती है, जितनी कि फेफड़ों को चाहिये। बढ़ा या घटा हुआ तापमान श्वास-नली की गर्मी से ठीक हो जाता है, किन्तु मुख द्वारा साँस लेने से ऐसा नहीं हो सकता है, क्योंकि एक तो इसमें एक साथ बहुत सी हवा जाती है, जिसका ताप आसानी से ठीक नहीं किया जा सकता, दूसरे कंठ और फेफड़ों का फासला बहुत थोड़ा है, इतने थोड़े स्थान की शक्ति भी थोड़ी ही होती है। इस प्रकार मुँह से ग्रहण की हुई वायु अपनी सर्दी-गर्मी को फेफड़ों तक पहुँचा कर उसका पर्याप्त अहित करती है। यही कारण है, कि रात को मुँह खुला रखकर सोने वाले जब सवेरे उठते हैं तो गले में सूजन, दर्द, खुजलाहट और साँस में भारीपन का अनुभव करते हैं।

तालाब और कुएं के जल में जो अन्तर है वही अन्तर मुँह और नाक से ली जाने वाली साँस में है। एक अशुद्ध है, तो दूसरी शुद्ध मुँह से साँस लेने की आदत पड़ जाने पर नासिका मार्ग बेकार पड़ा रहता है, और उसमें रुके हुए पानी की तरह खराबियाँ इकट्ठी होती रहती हैं। यह खराबियाँ बढ़कर कभी-कभी भयंकर रोगों का रूप धारण कर लेती हैं। नकसोरे रुक जाना, सारे दिन नाक से खूँ खूँ करते रहना आदि व्याधियाँ सूचित करती हैं, इस व्यक्ति ने नासिका मार्ग का उचित उपयोग नहीं किया है।

जो लोग फेफड़ों की रक्षा करना चाहते हैं उन्हें चाहिये कि सदा नाक से स्वास लें। मेहनत करने पर जब श्वास की गति तीव्र हो जाए तो भी मुँह खोल कर न हाँफें, वरन् नाक से ही श्वास लें। जंगली जाति की स्त्रियाँ अपने बालकों के होंठ बन्द कर देती हैं। जब बालक सोते हैं, तब बे उसके सिर को आगे नवा देती हैं, जिससे उसका मुँह बन्द हो जाता है और नाक से ही साँस लेने की आदत पड़ जाती है। हम लोगों को उन जंगली स्त्रियों से इस सम्बन्ध में शिक्षा प्राप्त करनी चाहिये। यदि बालक को मुँह खोल कर सोने की आदत पड़ रही हो तो माताओं को उचित है कि उसका सिर जरा सा आगे को झुका दें, इससे मुँह बन्द हो जाएगा; और नाक द्वारा शवासन क्रिया होने लगेगी, जो कि उनकी तन्दुरुस्ती के लिए बहुत जरूरी है।

मुँह से साँस लेने के कारण जिनकी नाक रुकने लगी हो, उन्हें चाहिये कि प्रातः काल एक दो चुल्लू स्वच्छ जल नाक द्वारा ऊपर चढ़ाया करें, या ‘अनुलोम विलोम रेचक पूरक क्रिया किया करें। खुली हवा में नाक के एक छेद को बन्द करके दूसरे खुले छेद से बार-बार साँस लेना और छोड़ना, फिर दूसरे छेद को बन्द करके पहले छेद द्वारा बार-बार श्वाँस लेना और छोड़ना, यही ‘अनुलोम विलोम रेचक पूरक क्रिया’ कहलाती है। इससे नाक रुकने की खराबी दूर हो जाती है। जिन्हें कफ की शिकायत रहती हो उन्हें थोड़ा सा गाय का घी नाक में डालना चाहिये। कितने ही लोग नाक के भीतर के बालों को उखाड़ डालते हैं, वे नहीं जानते कि इस अज्ञान द्वारा फेफड़ों को कितनी क्षति पहुँचेगी। हिन्दुस्तानी कहावतों में “नाक का बाल” प्रियजनों के अर्थ में उपयोग होता है। परन्तु हम लोग उसे रद्दी या निकम्मी वस्तु समझ कर हटा देते हैं, यह दुख की बात है। पाठक ध्यान रखें स्वास्थ्य की दृष्टि से नाक द्वारा साँस लेना ही उचित है।


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