लालच मत करो

May 1941

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(ले.—धर्माचार्य श्री सच्चिदानन्द शास्त्री, बदायूँ)

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्याँ जगत्।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥

इस मन्त्र का सार यह है, संसार परमात्मा से व्याप्त है, त्याग पूर्वक भोगो और लालच मत करो। आज हम इस लालच के विषय पर ही विस्तार से विचार करेंगे।

लालच क्यों उत्पन्न होता है? जब हमारा ध्यान इस बात पर जाता है, उस समय हमारे सामने दो विचार उपस्थित होते हैं, एक तो यह कि अपने अन्दर उत्पन्न हुई इच्छाओं का पूर्ण होना और दूसरे यह कि इच्छा पूर्ति से भी ज्यादा अपने पास एक अपार सम्पत्ति इकट्ठी करके उसे देख-देख कर खुश होना, चाहे उस सम्पत्ति का उपयोग बिलकुल भी न किया जाए। एक आदमी तो सिर्फ इसलिये धन कमाता है, कि मेरी इन्द्रियों की इच्छाओं की पूर्ति होती रहे और मेरी इन्द्रियों को आराम मिले मुझे किसी प्रकार के दुःख न हों। दूसरा इसलिये कमाता है कि अपार सम्पत्ति को देख-देख कर मैं प्रसन्न होऊँ अर्थात् कंजूसी के मात्र के लिये यह उस धन को कंजूसों की तरह अपने पास जोड़ता रहता है और जोड़ते-जोड़ते ही उसकी यह लीला खत्म हो जाती है, उसका स्वयं उपयोग नहीं कर पाता है, और न दूसरों को ही उपभोग करने देता है।

इन दोनों में कौन श्रेष्ठ है? यदि लौकिक दृष्टि से देखा जाए तो जो आदमी इन्द्रियों के सुख के लिये उस धन का उपयोग कर लेता है, वही श्रेष्ठ है। कंजूसी करने वाला लौकिक दृष्टि से श्रेष्ठ नहीं माना जाता।

वास्तव में देखा जाए तो कंजूस और इन्द्रियाराम में कोई श्रेष्ठ नहीं है। यदि कोई श्रेष्ठ नहीं है, तो कोई यह कह सकता है कि धन की सत्ता का होना व्यर्थ है। नहीं, ऐसी बात नहीं है। बात यह है, कि हम उस धन का ठीक उपयोग नहीं जानते हैं। यहाँ धन से तात्पर्य केवल रुपये-पैसे से नहीं है, बल्कि उन वस्तुओं से है जो कि हमारे व्यवहार में प्रतिदिन आती हैं धन का ठीक उपयोग हम किस तरह से कर सकते हैं, इस पर विचार करते हुए उपनिषद् हमको बतलाती हैं कि उपयोग करने वाली वस्तु यानी धन में से अपनापन छोड़ दो। जब तक हम अपनापन नहीं छोड़ेंगे तब तक हम इसी लालच के बन्धन में फंसे रहेंगे और नष्ट हो जावेंगे।

जैसे किसी के बाग में बहुत फल-फूल लग रहे हैं। मान लीजिये एक आदमी उधर से गुजरा। उस ने उन फल-फूलों को देखा और देखते ही उसके अन्दर लेने की इच्छा उत्पन्न हुई। परन्तु वह डरता है कि कहीं स्वामी देख न ले। उसने चारों ओर अच्छी तरह से देखा कि स्वामी वहाँ पर नहीं है, उसके अन्दर से डर जाता रहा और उसने फलों को जाकर तोड़ लिया। यहाँ पर देखना यह है कि जब तक उसके अन्दर डर था, तब तक उसने फलों को नहीं तोड़ा, परन्तु जब उसके अन्दर से डर जाता रहा उसने झट फलों को तोड़ लिया। कहने का तात्पर्य है कि जब तक उसके अन्दर डर था, तब तक उसके अन्दर यह भाव था कि इसके अन्दर स्वामी के बाग का अपनापन है, इसलिये कहीं फल तोड़ते हुए पकड़ा न जाऊँ, उसने चारों ओर देखा और निश्चय किया कि कोई नहीं है। निश्चय करते ही हाथ बढ़ा कर तोड़ लिया अर्थात् स्वामी के भाव का अपनापन नष्ट हो गया और फल तोड़ने के लिये वह स्वतन्त्र हो गया। यहाँ पर उस मनुष्य ने स्वामी को न देख कर चोरी की है। इसी तरह जीव चोरी कर रहा है।

जीव देखता है कि यह धन तो मेरा है और अपना समझ कर उसका उपयोग करता है।

उस धन का उपयोग नाना प्रकार के भोग- विलास और ऐश-आराम में प्रयोग करता है। कंजूसी करने वाला बचा-2 कर कंजूसी करता है। इसीलिये जीव दुःखी है, हम किसी चीज को न समझते हुये अपनी ओर से उसका सद् उपयोग न करते हुए दुरुपयोग ही करते हैं। इसीलिये हम दुखी हैं। इस दुरुपयोग करने का क्या कारण है? हमारी नासमझी, अज्ञानता, मूर्खता ही इसका कारण है। इसके लिये उपनिषद्कार ने सीधा रास्ता बताया है, वह यह है कि हम अपने ऊपर किसी न किसी मालिक की सत्ता समझें।

इस त्रिलोकी में जो कुछ भी हमको दिखाई पड़ता है, वह सब ईश्वर के शासन में है, हमारा उस में कुछ भी अधिकार नहीं है। यदि हम ऐसा भाव करके वस्तुओं का उपयोग करेंगे तो हम लालची, शराबी, जुआरी, चोरी इत्यादि के दुर्गुणों से बच कर ठीक रास्ते पर चल पड़ेंगे।

जितने संसार के दुर्गुण हैं, वे सब धन के ठीक उपयोग न होने से ही हैं हम अपना धन व्यर्थ के शान-शौकत के सामान, विषय-भोग विलास इत्यादि में फेंक देते हैं। ऐसा क्यों है? केवल धन का ठीक उपयोग न होने से। जब हम यह समझेंगे कि यह धन परमात्मा का है और उसने केवल जिन्दगी को चलाने के लिये ही यह धन हमको दिया है, और ज्यादा हमको अधिकार नहीं है, तब हम ईश्वर से डरते रहेंगे और इसका केवल अपने जिन्दगी के लिये उपयोग करते हुए बाकी धन को दान इत्यादि शुभ कार्य में लगा देंगे। इस लिये श्रेष्ठ वही है, जो ईश्वर को स्वामी मान कर मन का उपयोग कर रहा है, यह आध्यात्मिक दृष्टि है लौकिक दृष्टि तो हम ऊपर दे ही चुके हैं।

इसलिये जीव को यही उचित यही है कि इस संसार में ईश्वर की सत्ता को अपने सामने रखकर धन का उपयोग करे। जब धन को बुरे रास्ते में लगाने लगे तभी ईश्वर से डरे और उससे शुभ रास्ते में ले जाने का रास्ता पूछे। जब जीव ऐसा करेगा तभी वह लालच इत्यादि अवगुणों में न फंसता हुआ संसार-सागर से सुखपूर्वक पार हो जावेगा।


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