वेदों का अमर सन्देश

May 1941

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ईशावास्य मिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्याँ जगत्।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मागृधः कस्यस्विद्धनम्॥

॥यजु0 40—8॥्र

इस चलायमान संसार में जो कुछ चलता हुआ है, सब ईश्वर से आच्छादित है। इस लिये त्याग भाव से भोग करो और किसी के भी धन का लालच मत करो।

कुर्वन्नेबेह कर्माणि जिजी विषेच्छत œ समाः।

एवं त्वयिनान्यथे तोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥

॥यजु0 40—2॥

इस संसार में कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्छा करो। तभी तुमसे कर्म का लगाव छूट सकेगा। कर्म बन्धन से छूटने का इसके अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं है।

असुर्य्यानाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः।

ताँस्ते प्रेत्याभि गच्छन्ति ये के चात्म हनो जनाः॥

॥यजु0 40—3॥

जो आत्मघात करने वाले पुरुष हैं, वे यहाँ से शरीर छोड़ कर उन लोकों में जाते हैं, जो प्रगट अन्धकार से भरे हुए हैं, और असुरों के योग्य हैं।

यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानु पश्यति।

सर्व भूतेषु चात्मानं ततो न बिजुगुप्सते॥

॥यजु0 40—6॥

जो आत्मा में समस्त प्राणियों को और समस्त प्राणियों में आत्मा को अनुभव करता है, वह किसी से घृणा नहीं करता।

यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभू द्विजानतः।

तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपम्यतः॥

॥यजु0 40—7॥

जिस अवस्था में एकता का दर्शन करने का ज्ञानी पुरुष को सब प्राणियों में आत्म-तत्व ही प्रतीत होने लगता है, उस अवस्था में उसे मोह और शोक नहीं रहता।


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