साधना विज्ञान की तात्विक पृष्ठभूमि

March 1982

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आध्यात्मिक दृष्टि से मानवी सत्ता का विश्लेषण किया जाय, तो उसे तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है, पहला–अस्थि, माँस का पंचतत्वों का बना पिण्ड जिसे स्थूल शरीर कहते हैं। ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के द्वारा इसके माध्यम से विविध−विधि क्रियाएँ सम्पन्न की जाती हैं। दूसरा– मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार द्वारा बना, शब्द−रूप−गन्ध−स्पर्श की तन्मात्राओं स विनिर्मित अनुभूतियों, इच्छाओं और प्रेरणाओं का आधार सूक्ष्म शरीर जिसे ‘माइण्ड’ या ज्ञान संस्थान भी कहते हैं। तीसरा–आस्थाओं, मान्यताओं, आकाँक्षाओं का उद्गम। जीवन की दिशाओं का निर्धारण करने वाला कारण शरीर जिससे अन्तरात्मा अथवा अन्तःकरण भी कहते हैं। भाव−सम्वेदनाएँ, उच्चस्तरीय आवेग यहीं जन्म लेते हैं। संक्षेप में इन तीनों को क्रमशः क्रियाशक्ति, ज्ञानशक्ति और इच्छाशक्ति का उद्गम केन्द्र कह सकते हैं। इन तीनों का समन्वित रूप ही मानवी सत्ता है।

साधना की दृष्टि से इन तीनों की विवेचना आवश्यक है। जब तक संरचना का ज्ञान न होगा–प्रतिक्रियाओं व परिणति की जानकारी कैसे होगी? इसी कारण साधना−विधान के विस्तार में जाने वाले साधकों को पहले ‘स्प्रिचुअल एलाँटामी’ की जानकारी करायी जाती है। साधना क्रमों का चयन इस प्रारंभिक शिक्षण के बाद ही किया जाना उचित होता है।

तीनों शरीरों की महत्ता और सामर्थ्य अपने आप में अलग एवं अद्भुत है। स्थूल शरीर द्वारा सम्भव श्रम का मूल्य स्वल्प है। वह तो पशु व मशीनों द्वारा भी कराया जा सकता है। महत्वपूर्ण तो है पंचतत्वों द्वारा विनिर्मित यह कलेवर जिसके माध्यम से अन्य दो सूक्ष्म−गहराई में विराजमान परतें अपनी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करती हैं।

सूक्ष्म शरीर वह संस्थान है जिसको परिमार्जित– प्रखर बना कर हम वैज्ञानिक–कलाकार–विद्वान बनते हैं। बौद्धिक क्षमता के उपार्जन से धन−यश−सम्मान प्राप्त करते हैं। वासना−तृष्णा का उद्भव इसी में होता है। तरह−तरह की महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने वाला ताना−बाना यहीं बुना जाता है। ‘माइण्ड’ रूप में विद्यमान इसी चेतन परत को विकसित कर बुद्धिमान, दूरदर्शी, कला–कौशल सम्पन्न बना जाता है।

इन दोनों से ऊँची परत है कारण शरीर की। यह सबसे शक्तिशाली स्तर है। यहाँ आस्थाएँ, मान्यताएँ, विश्वासों की गहरी परतें जमा होती हैं। सम्वेदनाएँ यहीं जन्म लेती हैं। शौर्य, साहस एवं आदर्शवादी– प्रेरणाओं का उभार इसी क्षेत्र में होता है। अपने आत्मस्वरूप का निर्धारण– आध्यात्मिक जीवन की रीति−नीति अभिरुचियों का नियोजन यहीं होता है। व्यक्तित्व का निर्धारण और निखार यहीं से सम्भव होता है। इसी केन्द्र के उत्थान या पतन पर व्यक्तित्व का समुन्नत बनना अथवा गिरना सम्भव हो पाता है। आध्यात्मिक मनोविज्ञान की दृष्टि से यही जीव चेतना केन्द्र है। आस्थाओं की जैसी परत यहाँ चढ़ी होती है, उसी प्रकार गतिविधियों का संचालन मन व शरीर द्वारा सम्भव हो पाता है।

आमतौर से ध्यान शरीर पर दिया जाता है। खाने पीने−सोने से लेकर तरह−तरह के इन्द्रिय उपभोगों से इसी पिण्ड को सन्तुष्ट करने का प्रयास किया जाता है। रुग्ण व स्वस्थ यही होता है। बहिरंग में सुन्दर व कुरूप यही नजर आता है, अतः स्थूल दृष्टि इसे सुन्दर−स्वच्छ−समुन्नत बनाने में नियोजित होती है। निम्न वर्ग के व्यक्ति अपनी गतिविधियों को इसी शरीर तक केन्द्रित रखते हैं। “मावज्जवेत् सुखं जीवेत्” का सिद्धान्त ही उनके लिये अनुकरणीय होता है।

जिनका चेतन स्तर मध्यवर्ती विकास तक पहुँच चुका होता है, उनको मस्तिष्कीय विकास का महत्व समझ में आता है। वे शिक्षार्जन, बुद्धि−कौशल उपार्जन व ज्ञान सम्पादन में रुचि लेते हैं। विद्यालयी शिक्षा से लेकर सामान्य जीवन व्यवहार का ज्ञान, सत्संग−स्वाध्याय द्वारा ज्ञानवृद्धि कर वे सम्मान, नेतृत्व पाते हैं, यशस्वी बनते हैं। उनकी महत्वाकांक्षाएं इसी उद्देश्य की पूर्ति तक सीमित रहती हैं। इसी कारण मस्तिष्क विकास के जितने भी विनोदात्मक सम्वर्धनात्मक, उपभोगात्मक तरीके उपलब्ध हो सकते हैं उसे वे जुटाते रहते हैं। जीवन का अधिकाँश समय उनका इसी पुरुषार्थ में निकल जाता है। यह सामान्य से ऊँचे स्तर वाली प्रक्रति की स्थिति हुई।

तीसरा स्तर जो सर्वोच्च व शक्तिशाली है– कारण शरीर का है। इसके स्वरूप को समझना एवं परिष्कृत करने का प्रयत्न करना मात्र उच्च भूमिका में विकसित व्यक्ति के लिये ही सम्भव हो पाता है। इस स्तर की उपयोगिता– महत्ता सामान्य बुद्धि के व्यक्तियों को समझ में नहीं आती, न ही उन्हें प्रत्यक्ष रूप में इसका कोई प्रतिफल ही नजर आता है। भाव सम्वेदनाएँ, आस्थाएँ ही समग्र मानवी व्यक्तित्व को दिशा देती हैं, उसका स्वरूप निखारती हैं– उच्चस्तरीय चिन्तन में निमग्न होने की प्रेरणा देती हैं– यह समझना–अनुभव करना− व उस स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास करना हर किसी से नहीं बन पाता। अस्तु यह अछूत ही पड़ा रह जाता है। स्वभाव बदलता नहीं, आदतें सुधरती नहीं, पशुवृत्तियों से मोर्चा लेते बनता नहीं व जीवन−संकट जैसे− तैसे खिंचता रहता है। ऐसे व्यक्ति भोंडे, असभ्य कहलाते हैं। वह अस्तु−व्यस्त असफल जीवन जीकर, बहुसंख्य जीवों की तरह मृत्यु की शरण लेते हैं। अतीन्द्रिय दैवी क्षमताओं की –सिद्धियों की–व्यक्तित्वोत्थान की चर्चाएँ जो भी सुनी जाती हैं, वे इसी ‘कारण शरीर’ के विकासोन्मुख उभार है। पाश्चात्य विज्ञान के ज्ञाताओं ने थोड़ा−थोड़ा स्पर्श मात्र इस विषय को किया है, पर वहाँ भी वे ‘आँकल्ट’ का जिक्र कर चुप हो गये हैं। ‘मिस्टीसिज्म’ नाम से जाना जाने वाला यह विषय उतना ही स्पष्ट एवं खुला हुआ है जितने भौतिकी के अन्य अध्याय। पर स्वरूप को सही जानकारी के अभाव में उथले प्रयत्नों को ही समग्र मान उनकी परिणति हुई समझ ली जाती है।

अगले दिनों जब भी साधना विज्ञान का सह स्वरूप लोगों की समझ में आयेगा तो वे जानेंगे कि मानवी सत्ता के इस मूल आधार को विकसित करने पर शारीरिक कायाकल्प– मानसिक प्रत्यावर्तन एवं अतिसूक्ष्म स्वर्ग और मुक्ति जैसे दिव्य वरदानों से लाभान्वित हुआ जा सकता है। व्यक्ति स्वयं को लघु से महान्, नर से नारायण एवं आत्मा से परमात्मा बना सकता है। सारे महामानव अपने इसी आस्था संस्थान को परिष्कृत समुन्नत बनाकर ऊँची स्थिति पर पहुँच पाये हैं।

अध्यात्म विज्ञान भारतीय संस्कृति की अमूल्य सम्पदा व विश्व को एक बहुमूल्य देन है। साधना विधान का जो स्वरूप पूर्व में प्रचलित था उसके अनुसार हठयोग द्वारा स्थूल शरीर का– राजयोग से सूक्ष्म शरीर अथवा मनस् का एवं ब्रह्मयोग द्वारा अन्तःकरण का परिशोधन−परिमार्जन किया जाता था। इन्हीं का व्यावहारिक स्वरूप था–कर्म, ज्ञान एवं भक्ति योग। साधनात्मक उपक्रमों की विविधताओं का विभाजन इन्हीं तीन समूहों में करके व्यक्ति−विशेष की स्थिति के अनुसार उसे मार्गदर्शन दिया जाता था। यह पुरुषार्थ साधारण स्तर का नहीं−तप अर्जित, मनोबल की शक्ति से सुपात्र बनने वाले साधक को ही प्राप्त हो पाता था। आज तो अति सुगम बनाने के चक्कर में इस अध्यात्म विज्ञान को एक षड्यन्त्र द्वारा मात्र स्थूल तक ही सीमित कर दिया गया है। यह एक शाश्वत−सनातन सत्य है कि अन्तरात्मा का गहन स्तर ही व्यक्तित्व को दिशा एवं समर्थ बनाता है। अतिमहत्वपूर्ण, अतिमानव− देवपुरुष, अग्रगामी, महापुरुष कहे जाने वाले व्यक्ति अपने इसी स्तर को दिशा विशेष में परिपुष्ट कर आगे आये हैं। जिसका यह अन्तस्−अन्तःकरण का गहनतम स्तर खोखला होगा वह बहिरंग में सम्पन्न होते हुए भी व्यक्तित्व की दृष्टि से ओछा, बौना एवं गया−गुजरा ही बना रहेगा। ऐसे व्यक्ति का वैभव उसके तो अभिशाप सिद्ध होगा ही, समाज में अन्य सभी के लिये विपत्ति का कारण बनेगा।

सारे साधना उपचारों का लक्ष्य एक ही रहता है– इस मर्मस्थल अन्तःकरण की गहन परतों को स्पर्श कर–वहां छाये अन्धकार को मिटाना तथा उस स्थान को श्रेष्ठ समुन्नत बनाना। साधना विधानों का स्तर बहिरंग से अन्तरंग तक परत दर परत छूने के लिये अलग−अलग होने के कारण उनके प्रकार भी भिन्न−भिन्न हैं। पर मोटा विभाजन यही है कि स्थूल शरीर की साधना व उसे उच्चस्तरीय साधना उपक्रमों के योग्य समर्थ बनाने हेतु क्रियायोग तथा सूक्ष्म एवं कारण शरीर की साधना हेतु चिन्तन−भाव सम्वेदनापरक −ध्यान योग। इन्हीं दो में सारे साधना विज्ञान का ढाँचा विभाजित हो जाता है।

अध्यात्म विद्या को भी तत्ववेत्ताओं ने इसी प्रकार चिंतन और क्रिया के दो भागों में विभक्त किया है। चिन्तन में उत्कृष्टता का समावेश करने वाले प्रतिपादन को ब्रह्मविद्या कहते हैं। इसमें ईश्वरीय निर्देशों एवं ऋषि अनुभवों को इस प्रकार गूँथा गया है कि मानवी अन्तःकरण उसे स्वीकार कर ले। शास्त्र वचनों का स्वाध्याय, चिन्तन, मनन एवं शास्त्रज्ञों का सत्संग इसी निमित्त किया जाता है। यह अध्यात्म विद्या का तत्वदर्शन वाला पक्ष हुआ जिसमें मान्यताओं की श्रद्धा−तर्क के आधार पर मान्यताओं से काट की जाती है।

दूसरा पक्ष साधना का है। सूक्ष्म जगत से – दैवी शक्तियों से− संपर्क का आदान−प्रदान का द्वार खोलने वाला यह प्रयास उपासना−साधना के रूप में जाना जाता है जिसमें व्यक्ति स्वयं को अनगढ़ से सुगढ़ व ईश्वर का सामीप्य पाने योग्य बनाता है।

चिन्तनपरक ब्रह्म विद्या तथा साधनापरक तपश्चर्या दोनों ही तथ्यपूर्ण हैं। एक ज्ञानपक्ष है तो दूसरा विज्ञान पक्ष। एक को ब्रह्मवर्चस् का ब्रह्म पक्ष व दूसरे को वर्चस् पक्ष कह सकते हैं। दोनों मिलकर ही सम्पूर्ण बनते हैं। ब्रह्मवर्चस् विज्ञान की इन दोनों ही विधाओं का सारे साधना उपक्रमों में समावेश रहता है। ज्ञान व विज्ञान दोनों का समन्वय क्रियायोग व ध्यानयोग में है। बिना चिन्तन में भाव सम्वेदनाओं की उत्कृष्टता उभारे तप साधना के प्रयास अधूरे व एकाँगी ही बने रहेंगे। इस मूल तथ्य को सबसे पहले समझा जाना चाहिए कि उच्चस्तरीय आस्थाओं की वरीयता स्वीकार करके ही साधना पथ पर आगे बढ़ा जा सकता है।

स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर व कारण शरीर, क्रियायोग व ध्यानयोग, ब्रह्मविद्या एवं साधनापरक तपश्चर्या ये सभी विभाजन साधना विज्ञान की तात्विक पृष्ठभूमि को समझने के लिये ही किये गये हैं। वस्तुतः इन सभी के पीछे तथ्य एक ही है कि समस्त साधना उपक्रमों का लक्ष्य एक ही हो। अन्तःकरण मर्मस्थल को स्पर्श करने वाली आस्थाओं का उन्नयन, मान्यताओं का परिष्कार–परिमार्जन, प्रसुप्त पड़ी क्षमताओं का जागरण, तथा देवपुरुष–ऋषि– महामानव बनने की दिशा में चिन्तन एवं क्रिया का सुनियोजन। इस लक्ष्य की पूर्ति में आप्त वचनों के अतिरिक्त सुनियोजित मार्गदर्शन की समय−समय पर आवश्यकता पड़ती है। इसीलिये तत्वदर्शन व चिन्तन के रूप में आत्मतत्व रूपी सद्गुरु अथवा आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति काया में विद्यमान प्रत्यक्ष गुरु की सहायता ली जाती है। गुरु उस सद्गुरु से दिशा निर्देश प्राप्ति में सहायता करता है व पात्रता के अनुरूप अपनी शक्ति का एक अंश भी साधक को देता है। परन्तु वास्तविक सहायता उसी आत्मतत्व से मिलती है जिसे अपने अतः में जगाया जाता है। यदि आत्मतत्व परिष्कृत– जागा हुआ न हो तो गुरु कृपा भी सूखी चट्टान पर बरसे वर्षा जल की तरह निरर्थक चली जाती है।

अपने आपे को परिष्कृत करने–जगाने की–जो साधना की जाती है उसमें ध्यान−धारण का महत्वपूर्ण स्थान है। अपने चिन्तन को इधर−उधर भटकने से रोक कर उत्कृष्ट प्रवाह के साथ जोड़ देना उसी प्रकार है जैसे अपने अन्दर के क्रिस्टल को ईथर में संव्याप्त तरंगों को ग्रहण करने योग्य बना लेना व आदान−प्रदान का क्रम आरम्भ कर देना। सद्भाव सम्वर्धन –श्रद्धा अभिवर्धन हेतु ध्यानयोग से श्रेष्ठ कोई साधना नहीं। सोऽहं की– हंसयोग साधना, नादयोग, त्राटक, बिन्दु, अवतरण एवं चक्र भेदन इत्यादि साधनायें मूलतः ध्यानपरक हैं। इन सभी में अपने चिन्तन को ध्यान प्रक्रिया द्वारा उत्कृष्टता से जोड़ने व उस महत्तत्व से प्राप्त प्राणशक्ति से प्रसुप्त को जगाने−उभारने का पुरुषार्थ किया जाता है। इन्हीं साधनाओं के विस्तार का स्पष्ट विवेचन अगले पृष्ठों में किया गया है


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