त्राटक की ध्यान साधना का तत्व दर्शन

March 1982

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पौराणिक गाथा के अनुसार पुरातन काल में जब यह दुनिया जीर्ण−शीर्ण हो गयी, तीन रिपुओं–काम, क्रोध, लोभ के कारण उसकी उपयोगिता नष्ट हो गयी, तब भगवान शिव ने अपना तृतीय नेत्र खोलकर प्रलय का दावानल उत्पन्न किया था और ध्वंस के ताण्डव नृत्य में तन्मय होकर भविष्य की–विश्व के अभिनव नव−निर्माण की भूमिका सम्पादित की थी। उस प्रलयकारी ताण्डव नृत्य का बाह्य स्वरूप कितना ही रोमाँचकारी क्यों न रहा हो, कथा तृतीय नेत्र की महत्ता के ऊपर मूलरूप से प्रकाश डालती है। मनुष्य के जीवन क्रम तथा समाज के समष्टिगत जीवन में भी कभी−कभी ऐसी आवश्यकता पड़ जाती है कि प्रचलित ढर्रे में आमूल−चूल परिवर्तन किया जाय, जो चल रहा है उसे उलटना अनिवार्य बन जाय। यह महान परिवर्तन भी तृतीय नेत्र के जागरण अर्थात् उद्भूत दूरदर्शी विवेकशीलता द्वारा ही सम्भव है। शिव के द्वारा ताण्डव नृत्य के समय तृतीय नेत्र खोले जाने के पीछे यही अलंकारिक रहस्य सन्निहित है।

भूमध्य भाग में आज्ञाचक्र अवस्थित है। इसी को तृतीय नेत्र कहा गया है। शंकर एवं दुर्गा के चित्रों में इसी स्थान पर तीसरा नेत्र दिखाया जाता है। एक कथा और आती है कि इसी तीसरे नेत्र को खोलकर भगवान शंकर ने अग्नि तेजस् उत्पन्न किया था और उससे विघ्नकारी कामदेव जलकर भस्म हो गया था। दमयन्ती ने भी व्याघ्र से अपने शील की रक्षा तृतीय नेत्र से प्रचण्ड अग्नि ज्वाला उत्पन्न करके की थी। इन वर्णनों से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि अवाँछनीयताओं का कूड़ा−करकट जलाने में तृतीय नेत्र की अग्नि अर्थात् दूरदर्शी विवेकशीलता ही सक्षम हो सकती है। तृतीय नेत्र के प्रदीप्त होने पर संजय को दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गयी थी। फलस्वरूप घर बैठे ही टेलीविजन की भाँति महाभारत युद्ध के सभी दृश्य उन्हें दिखायी पड़ने लगे थे।

प्रत्यक्ष जगत के दृश्य पदार्थों का एक छोटा-सा क्षेत्र ही इन नेत्रों की पकड़ में आता है। चमड़े की आँखों से देखे जाने की सीमा स्वल्प है। स्पष्ट दिखने वाली वस्तुएँ ही उसकी पकड़ में आती हैं। पर यह संसार अत्यन्त विस्तृत है। उस विस्तार को देख सकना इन स्थूल नेत्रों द्वारा सम्भव नहीं है। परमात्मा ने हर मनुष्यों को एक ऐसी सूक्ष्म दृष्टि दे रखी है कि उसके द्वारा असीम विस्तार को देख एवं समझ सकना शक्य हो। सामान्य अवस्था में अधिकाँश व्यक्तियों में यह सूक्ष्म दृष्टि सुषुप्त स्थिति में रहती है। फलतः वे उसका लाभ नहीं उठा पाते। ध्यान में त्राटक–साधना का उद्देश्य अपनी दृष्टि क्षमता में इतनी तीक्ष्णता उत्पन्न करता है कि वह दृश्य एवं अदृश्य की गहराई में उतरकर उसके अन्तराल में जो अति महत्वपूर्ण घटित हो रहा है उसे पकड़ने एवं समझने में समर्थ हो सके। मानवी विद्युत का अत्याधिक प्रवाह नेत्रों द्वारा ही होता है। उस प्रवाह को एक दिशा विशेष में नियोजित एवं लक्ष्य विशेष पर केन्द्रित कर देने की प्रक्रिया को ‘वाटक’ कहा गया है।

सरसरी एवं उथली निगाह से असंख्यों वस्तुएँ देखी जाती हैं, पर उनमें से किसी−किसी की ही मन पर छाप पड़ती है अन्यथा अधिकाँशतः आँखों के सामने से यों ही गुजर जाती है। देखने की क्रिया होती रहने पर भी दृश्य पदार्थों एवं घटनाओं का प्रभाव मस्तिष्क पर नगण्य पड़े, इसका कारण है– मन की चंचलता, उपेक्षा एवं अन्यमनस्कता। यदि गम्भीरतापूर्वक किसी पदार्थ अथवा घटना का निरीक्षण किया जाय तो उसमें से भी कितने ही महत्वपूर्ण तथ्य उभरते दिखायी देंगे। वैज्ञानिकों, कलाकारों, तत्वदर्शियों की यही विशेषता होती है कि वे सामान्य समझी जाने वाली घटनाओं को अपनी सूक्ष्म दृष्टि से देखते हैं और उसी में से कितने ही ऐसे तथ्य ढूँढ़ निकालते हैं जो अद्भुत एवं असाधारण सिद्ध होते हैं। अपने बचपन से वृद्धावस्था तक सभी पेड़ से फल टूटकर नीचे गिरने का दृश्य अनेकों बार देखते हैं। पर उनके लिए यह कोई विशिष्ट घटना नहीं होती। किन्तु ‘न्यूटन’ ने पेड़ पर से सेब का फल टूटकर जमीन पर गिरते देखा। उनकी सूक्ष्म दृष्टि अन्वेषण में लगा गयी और अन्ततः पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का क्रान्तिकारी सिद्धान्त विज्ञान जगत में एक नवीन आविष्कार के रूप में उभरकर सामने आया। महर्षि चरक ने जमीन पर उगती रहने वाली सामान्य जड़ी-बूटियों के गुणों की खोज से चिकित्सा जगत की प्रगति में असामान्य सहयोग दिया। यह सब विशिष्ट उपलब्धियाँ सूक्ष्म दृष्टि की ही महिमा का प्रतिपादन करती है। जिसके जागरण का अभ्यास प्रत्यक्ष बेधक दृष्टि की ही महिमा का प्रतिपादन करती है। जिसके जागरण का अभ्यास प्रत्यक्ष बेधक दृष्टि से–त्राटक के माध्यम से किया जाता है।

विद्युत का प्रवाह शरीर के रोम-रोम में कार्यरत है पर तीन स्थानों पर उसका प्रवाह अत्यन्त तीव्र होता है–नेत्र जननेन्द्रिय और वाणी। इन तीनों से निकालने वाली विद्युत ही व्यक्तियों एवं परिस्थितियों को अधिक प्रभावित करती है। मस्तिष्क का ब्रह्मरन्ध्र भाग उत्तरी ध्रुव की तरह लिखित ब्रह्माण्ड में संव्याप्त महाप्राण को आकर्षित एवं धारण करता है तथा तीन मार्गों–नेत्र, जननेन्द्रिय तथा वाणी से होकर बहता है। अस्तु साधना क्षेत्र में इन्हीं तीनों के संयम एवं नियमन पर अधिक ध्यान दिया जाता है। जिह्वा की वाक् साधना के लिए जप, पाठ, मौन जैसे कितने ही अभ्यास किये जाते हैं। ब्रह्मचर्य के परिपालन से जननेन्द्रियों को संयमित रखा जाता है। पर इन सबमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण केन्द्र है– नेत्र। कारण यह है कि जिह्वा मुँह के भीतर रहती है। जननेंद्रिय भी कटि प्रदेश में वस्त्रों से ढकी रहती है। नेत्रों के ऊपर कोई परदा–आवरण नहीं होता। इसलिए विद्युतधारा अत्यधिक इसी केन्द्र से होकर प्रवाहित होती रहती है। त्राटक का उद्देश्य नेत्र गोलकों से होकर बहने वाली विद्युत शक्ति को केन्द्रीभूत करना एवं तीक्ष्ण बनाना है।

कहा जाता है कि मनुष्य का अन्तरंग व्यक्तित्व नेत्रों से होकर बाहर झाँकता है। यही कारण है कि प्रेम, द्वेष, ईर्ष्या, उपेक्षा, चिन्ता, उद्वेग के भावों की अन्त स्थिति को आँख मिलाते ही देखा, समझा एवं अनुभव किया जा सकता है। काम कौतुक के आवेश का आरंभिक संचार नेत्रों द्वारा ही होता है। कवि, कलाकार नेत्रों के सौंदर्य एवं प्रभाव की चर्चा करते नहीं थकते। शृँगार रस की कविताओं में सर्वाधिक अलंकार नेत्रों के लिए ही प्रस्तुत किये गये हैं। सज्जनता एवं दुष्टता को उभरने वाली भाव भंगिमा को नेत्रों में प्रत्यक्ष उटते देखा जा सकता है तथा उसके आधार पर व्यक्ति की आन्तरिक स्थिति का पता लगाया जा सकता सम्भव है।

किन्हीं-किन्हीं के नेत्रों में एक विशेष प्रकार का आकर्षण भी पाया जाता है। बरबस ही लोग उनकी ओर आकर्षित हो जाते हैं। यह आकर्षण भला एवं बुरा दोनों ही प्रकार का प्रभाव डालने में सक्षम होता है। यों तो छोटे बच्चों एवं वस्तुओं को नजर लगने की किम्वदंतियां चुनी जाती है। जिनमें प्रायः अन्ध विश्वासों का पुट अधिक होता है, पर मानवी विद्युत विज्ञान की दृष्टि से ऐसा प्रभाव पड़ना सर्वथा असम्भव नहीं है। नेत्रों की बेधक दृष्टि में भले-बुरे दोनों ही प्रकार के तत्व समाहित रहते हैं जिनका प्रयोग मनचाही दिशा में किया जा सकता है। यह डडडड सहज उपलब्ध बेधक दृष्टि की क्षमता हुई जो किसी-किसी को अनायास ही प्राप्त होती है। त्राटक साधना में इसी क्षमता को प्रखर किया जाता तथा उच्च भूमिका में प्रविष्ट करके दिव्य दृष्टि जागरण का प्रयोजन पूरा किया जाता है।

यह तीसरा नेत्र–आज्ञाचक्र यदि जागृत किया जा सके तो उसके राडार, टेलीविजन और एक्सरे यन्त्रों की भाँति ही कितने ही असाधारण काम लिये जा सकते हैं। राडार रेडियो फिरजे फेंकता है और उसके वापिस लौटने से उस स्थान का विवरण देता है जिस स्थान से वे किरणें टकराई था। टेलीविजन में दूरगामी दृश्य दिखायी देता है। तीसरे नेत्र के जागरण से बिना किसी यन्त्र के भी सुदूर क्षेत्र की घटनाओं एवं दृश्यों को देखा जा सकता है। संजय ने महाभारत का सारा दृश्य इसी पद्धति से देखा था तथा धृतराष्ट्र को युद्ध की विस्तृत खबरें देते रहने का दायित्व भाँति-भाँति पूरा किया था। एक्सरे से आवरण में ढकी वस्तुएँ भी दीखती हैं। शरीर के भीतरी भागों का चित्रांकन इसी से सम्भव हो पाता है। भूमध्य पर अवस्थित आज्ञाचक्र की जागृति अवस्था इन तीनों ही प्रयोजनों को पूरा कर सकने में सक्षम हैं।

कितने ही व्यक्तियों में भविष्य बोध की सामर्थ्य पायी जाती है। चलचित्र की भाँति उन्हें भविष्य के गर्भ में पक रही घटनाएँ पहले ही दिखाई पड़ने लगती है। प्रत्यक्ष नेत्रों एवं संपर्क क्षेत्र से दूर रहने वाले व्यक्तियों की परिस्थितियों में क्या हेर फेर हो रहा है तथा वहाँ किस तरह की घटनाएँ घटित हो रही हैं इसका आभास किन्हीं-किन्हीं को होने लगता है। यह सब आज्ञाचक्र की जागृति का ही चमत्कार है। इससे वहाँ के दृश्य देखे जा सकते हैं जहाँ कि नेत्रों की पहुँच नहीं है। भूगर्भ के अन्तराल में छिपे रहस्य, अन्तरिक्ष के सूक्ष्म क्रिया-कलापों का पूर्व स्वरूप देखा और समझा जा सकना सम्भव हैं।

तृतीय नेत्र जागरण की यह भौतिक उपलब्धियाँ हैं। आध्यात्मिक विभूतियाँ तो और भी अधिक रहस्यमय और महत्वपूर्ण हैं। साँसारिक अलभ्य ज्ञान की तुलना में आत्मिक ज्ञान कहीं अधिक उपयोगी है। अपने भीतर क्या है? मूल सत्ता का स्वरूप कैसा है? यह प्रायः अविज्ञात ही बना रहता है। मनुष्य न तो अपने स्वरूप से परिचित होता है और न ही उसे अपनी सामर्थ्य का बोध रहता है। बाह्य संसार एवं सम्बन्धित वस्तुओं की जानकारी मात्र उसे बनी रहती है। रंग–बिरंगा संसार अधिक लुभावना और आकर्षक दिखायी पड़ता है। अपनी आत्मसत्ता का स्वरूप अनुभव में आ जाय तो मनुष्य को मालूम होगा कि संसार की सबसे विलक्षण और सामर्थ्यवान सत्ता अपने ही भीतर बैठी है। तृतीय नेत्र के दिव्य प्रकाश से अन्तः पर छाये मलीनताओं के आवरण कटने छटने लगते हैं और आत्म-सत्ता उस प्रकाश में जगमगाने लगती है। ऐसी शाश्वत अनुभूति में पहुंचे हुए व्यक्ति को परा और अपरा प्रकृति के सम्पूर्ण रहस्यों का अनुभव होने लगता है। तब वह स्थूल जगत के क्रिया-कलापों को बाल-क्रीड़ा में रचे हुए रेत बालू के घर, मकानों जैसी स्थिति में पाता है। अनुभूतियाँ आत्म-सत्ता के स्वरूप को जानने तक ही सीमित नहीं रहती। उद्गम स्रोत परमात्म सत्ता की प्रत्यक्ष अनुभूति सर्वत्र विराट् चेतना के रूप में होने लगती है। ऐसी दिव्य अनुभूतियों का साक्षात्कार करने वाला साधक बाल-बुद्धि की ओछी रीति-नीति त्यागकर अपनी गतिविधियों में उस तत्वों का समावेश करता है जो महामानवों के लिए उचित और उपयुक्त है।

तृतीय नेत्र जागरण से वह दूरदर्शी विवेक बुद्धि जागृत होती है जिसके प्रकाश में–आन्तरिक मनोविकार काम-क्रोध, लोभ मोह आदि अपने असली रूप में प्रकट हो जाते हैं। तब उनकी कुरूपता स्पष्ट दिखायी पड़ने लगती है। वे मानवी गरिमा के सर्वथा प्रतिकूल हैं, ऐसा मात्र बोध ही नहीं होता वरन् उनके निष्कासन के लिए प्रचण्ड संकल्प एवं पुरुषार्थ उभरता है। दिव्य दृष्टि खुलने एवं परिष्कृत दृष्टिकोण विकसित होने से सोचने एवं करने का तरीका माया–मोहग्रस्त अज्ञान अन्धकार में भटकने वाले लोगों से सर्वथा भिन्न होता है।

त्राटक साधना अपने समय पर परिपक्व एवं विकसित होकर साधक को समाधि की उच्चस्तरीय अवस्था में पहुँचाती है। शास्त्रों में अनेकों स्थानों पर उसका वर्णन आता है।

त्राटकाभ्यास तश्चापिकालेन क्रमयोगतः। राजयोग समाधिः स्यात् तत्प्रकारोऽधुनोच्यते॥ –योग रसायन्

अर्थात्–’त्राटक के अभ्यास से समयानुसार राजयोग की समाधि का लाभ सम्भव हैं।’

सामान्य-सी दिखने वाली पर असामान्य भौतिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धियों से साधक को अनुप्राणित करने वाली त्राटक साधना का तत्वदर्शन समझा जा सके और प्रक्रिया को ठीक प्रकार अपनाया जा सके तो दिव्य दृष्टि जागरण का लाभ उठा सकना हर किसी के लिए सम्भव है।


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