प्रस्तुत अन्तर्ग्रही परिस्थितियाँ और सम्भावित प्रतिक्रियाएँ

March 1982

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अन्तर्ग्रही प्रवाह अपना प्रभाव धरती के वातावरण, पदार्थ तथा जीवधारियों पर डालते हैं, इस सम्बन्ध में अधिसंख्य वैज्ञानिक अब एकमत हैं। सौर मण्डल से जो विकिरण प्रवाहित होते हैं, उन्हें पृथ्वी अत्याधिक संवेदनशील होने के कारण ग्रहण करती हैं और परिणाम स्वरूप इसके वातावरण में व्यापक परिवर्तन होते हैं। एस्ट्राँनामी वलाँजी में यों मतभेद तो बहुत समय से चलता आ रहा है, पर इन दिनों एक ऐसा घटनाक्रम घटित हो रहा है जिसने इन दोनों कों एक मंच पर ला खड़ा किया है। दोनों ही परोक्ष रूप से एक ही बात कह रहे हैं, पर कहने का ढंग अलग है।

यह विलक्षण अन्तर्ग्रही योग है डडडड ग्रहों का एक साथ एक ओर इकट्ठा हो जाता है जो फरवरी-मार्च 1982 में सम्भावित है। इसे जुबिटर इफक्ट नाम से गत 2-3 वर्षों से सम्बोधित कर–इस पर काफी मत व्यक्त किये गये हैं तथा विभीषिकाओं से लेकर सामान्य मौसम परिवर्तन तक की अलग-अलग चर्चाएँ की गयी हैं। इसी नाम से जॉन ग्रिबिन, स्टीफेन एच. प्लेजमान तथा जॉन एबडन ने एक पुस्तक भी लिखी है, जिसकी विज्ञान जगत में काफी चर्चा है। इन तीनों ने अपने वर्षों के अनुसंधान के आधारों पर घोषणा की है कि “सन् 1982 में नौ ग्रह सूर्य की एक सीध में आ जायेंगे। हमारे शनि, यूरेक्स, वरुण और प्लूटो के सूर्य के एक और इकट्ठा हो जाने पर सूर्य की गतिविधियों में असाधारण परिवर्तन होंगे। सारी पृथ्वी पर भयंकर तूफान भूकम्प, अकाल-सूखा, बाढ़ आदि प्राकृतिक विपदाएँ इसी असाधारण सौर-गतिविधि की परिणति स्वरूप घटेंगी।”

इन सब विवेचनों को खगोल वैज्ञानिकों ने सही माना है और कहा है कि नौ ग्रहों का ऐसा संगम हर 179 वर्ष में एक बार होता है। पिछली बार जब भी ऐसा हुआ, पृथ्वी पर असाधारण घटनाएँ घटी हैं। इन वैज्ञानिकों का, जो अपने-अपने क्षेत्र के लब्ध, प्रतिष्ठित विद्वान हैं, कथन है कि ग्रहों की एक सीध में आने से सूर्य के अन्दर प्रचण्ड चुम्बकीय तूफान उठ खड़े होंगे, साथ ही सौर कलंकों की संख्या भी बढ़ जायेगी। इन दो परिवर्तनों के साथ इस वर्ष जो सात ग्रहण एक साथ आ रहे हैं वे भी अभूतपूर्व हैं।

इन सबकी सम्मिलित प्रक्रिया क्या होगी? क्या अष्टग्रही योग की चेतावनी की तरह यह नवग्रही योग भी मात्र विनाश की चेतावनी का हल्ला मचाकर चला जायेगा अथवा वास्तव में प्रकृति परिवर्तन होंगे जिनसे मानव जाति को हानि पहुँच सकती हैं, इस सम्बन्ध में काफी मत व्यक्त किये गये हैं। प्रकृति का कहना है कि प्रशान्त महासागर डडडड के सीमावर्ती क्षेत्र विशेष रूप से प्रभावित होगा। इस हिस्से में भूकम्प, विनाश कारी बाढ़ तथा अन्य प्राकृतिक आपदाएँ घटने की की सम्भावना है। अंतर्ग्रही परिवर्तन से पृथ्वी के अन्दर भी तीव्र परिवर्तन होंगे तथा पिछली बार की तुलना में कहीं अधिक विनाशकारी लीलाएँ होंगी। जुपीटर इफेक्ट के लेखकों का तो कथन है कि इस क्षेत्र विशेष में (उत्तर अमेरिका, दक्षिण अमेरिका तथा प्रशान्त महासागर) जो भूकम्प आएंगे वे कई शताब्दियों की तुलना में अत्यधिक संहारकारी होंगे। वैसे यह भविष्यवाणी जियोलॉजिस्टों की भी है जो सीस्मोग्राफी” की अपनी विद्या द्वारा किसी भी क्षेत्र विशेष में भावी भूकम्पों की भविष्यवाणी करते हैं।”

एक अनुमान के अनुसार प्रतिदिन 2 हजार से भी अधिक भूकम्प हमारी पृथ्वी पर आते हैं, जिनमें से 95-97 प्रतिशत बहुत ही हल्के होते हैं, परन्तु पिछले कुछ वर्षों में विकसित तकनीकी ज्ञान के सहारे वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि जब भी सौर कलंक बढ़ते हैं, तूफान व्यापक स्तर पर पृथ्वी के गर्भ में जन्म लेते हैं व यही भूकम्पों का कारण बनते हैं। हर 11 वर्ष की अवधि पर आने वाले ये सौर-कलंक इस वर्ष अपनी चरम सीमा पर हैं। प्रतिवर्ष 10-12 बड़े भूकम्प तो वैसे आते ही हैं पर उनसे उस प्रकार के व्यापक संहार की सम्भावना नहीं की जाती जैसी कि इस वर्ष विशेष रूप में की जा रही हैं। कहा जा रहा है कि भूमध्यसागर, अल्पाइन, हिन्दुकुश, हिमालय जैसे प्रसिद्ध ‘क्वेट बेल्ट’ तथा मृतसागर दक्षिण पूर्व तुर्की-सीरिया- इराक आदि प्रसुप्त क्षेत्र भी अब सोये न रहेंगे। वैज्ञानिकों के अनुसार अन्तर्ग्रही परिवर्तन तथा सौर कलंकों के कारण ही इन भूकम्पों परिवर्तन तथा सौर कलंकों के कारण ही इन भूकम्पों की सम्भावना बढ़ गयी है।

ग्रहों व सूर्य के बीच का जो स्थायी खिंचाव होता है, वह सन्तुलन की सामान्य स्थिति कही जाती है। इस खिंचाव में कोई भी उलट-फेर गम्भीर परिणाम ही उत्पन्न करेगा। विशेषज्ञ कहते हैं कि इस फरवरी-मार्च की अवधि में जब सभी ग्रह सूर्य के एक ओर एक सतह में आयेंगे तो इन सभी का प्रबल गुरुत्वाकर्षण एक साथ सूर्य पर प्रचण्ड दबाव डालेगा, सूर्य असन्तुलित होगा व इन सबका सभी ग्रहों पर तथा अति सम्वेदनशील पृथ्वी पर भी दुष्प्रभाव पड़ेगा।

लन्दन स्थित अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के प्लेनेटोरिम के निर्देशक ने तो यह चेतावनी दी है कि ‘बृहस्पति प्रभाव’ से भयंकर सूखा या प्रलयकारी बाढ़ें आ सकती हैं। इस स्थिति में सूर्य की ज्वालाओं की फेंक और बढ़ती जायेगी तथा कलंकों में भी वृद्धि होगी। सारी पृथ्वी पर रेडियो एक्टीविटी शून्य हो जायेगी, रेडियो तरंगों को लकवा मार सकता है तथा ध्रुओं पर विचित्र प्रकार की आभाएँ-ध्रुवप्रभाएँ दिखाई पड़ेंगी।

इस सब वैज्ञानिक विस्तारों में न जाकर यदि हम सीधे पृथ्वी से सम्बन्धित प्रभावों का विश्लेषण करें तो वैज्ञानिकों से हमें यह ज्ञात होता है कि हवा के बहाव में अनियमितता, पर्यावरण में व्यापक स्तर पर असन्तुलन, संचार व्यवस्था में रुकावट तथा मौसम पर बहुत ही बुरे प्रभाव की आशंका को टाला नहीं जा सकता। ये प्रभाव ऐसे हो सकते हैं कि कहीं बर्फ के तूफान आने लगें, कहीं बाढ़ का प्रकोप अपनी पूरी तेजी पर होगा तथा कहीं असमय वर्षा का।

सन् 82 के प्रस्तुत दिनों में जब ये पंक्तियाँ पढ़ी जा रही होंगी, पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभावों की वैज्ञानिक जाँच-पड़ताल के लिये विश्व के अनेकों भागों में पहले से ही काफी तैयारी हो चुकी होगी। अमेरिका ‘गैलीलियो’ नामक एक अन्तरिक्षयान छोड़ रहा है जो सूर्य के साथ-साथ प्रभावित करने वाले ग्रहों की परिस्थितियों का भी अध्ययन करेगा। अमेरिका व अन्तरिक्षीय यूरोपीय संगठन ने मिलकर एक सोलर पोलर मिशन प्रोजेक्ट बनाया है जो 1983 तक व आगे भी सम्भावित पर्यावरण परिणामों तथा आयोनोस्फायर्स के आसपास होने वाले परिवर्तनों को नोटकर पृथ्वी पर भेजता रहेगा।

सूर्य कलंक, सूर्य व चन्द्र ग्रहणों की शृंखला तथा ‘बृहस्पति प्रभाव’ निश्चित ही पृथ्वी के अयन मण्डल को प्रभावित करने वाले परिवर्तनों का पूर्व संकेत हैं। साथ ही सूर्य लपटों, उसमें चल रहे कम्पन, बढ़ती सिकुड़न आदि इसी तथ्य का द्योतक है कि युग सन्धि की प्रस्तुत बेला व्यापक परिवर्तन की स्थिति से गुजर रही है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह कलियुग के अन्त व सतयुग के प्रारम्भ का समय हैं। अतीन्द्रिय दृष्टा तथा भविष्यविज्ञानी कहते हैं कि यह युगसंधि की बेला है और इन दिनों संसार में अधर्म, अशान्ति, अनाचार का जो व्यापक बोलबाला है, उसके अनुसार परिस्थितियों की विषमता अपनी चरम सीमा पर है। न केवल मानवी कृत्यों ने सूक्ष्म वातावरण को प्रभावित किया है वरन् दैवी परिस्थितियाँ भी अन्तर्ग्रही विभीषिकाओं के रूप में ऐसी बन रही है कि मनुष्य अपने आचरण पर एकबार फिर सोचने पर विवश हो जाय।

सम्भावनाओं का साहसपूर्वक सामना करना ही वास्तविक पुरुषार्थ है। जो घबराते हैं वे स्वयं तो गिरते हैं, दूसरों को भी कठिनाई में डालते हैं। साधनात्मक पुरुषार्थ, चिन्तन में प्रौढ़ता-प्रखरता के समावेश एवं युग देवता के सृजन प्रयोजनों में सहयोग कर हम सभी विभीषिका निवारण तथा नव सृजन में हाथ बँटा सकते हैं।


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