प्राणयोग का उच्चस्तरीय प्रयोग सोऽहम् साधना

March 1982

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उच्चस्तरीय प्राणायामों में सोऽहम् साधना को सर्वोपरि माना जाता है। यह मूलतः ध्यानयोग की साधना है एवं उच्चस्तरीय प्राणयोग भी इसे कहा जाता है। इस साधना को प्राणायाम प्रक्रिया एवं प्राणयोग की प्राणाकर्षण साधना से अलग व विशिष्ट माना जाना चाहिए। प्राणायाम तो मात्र श्वास−प्रश्वास का एक विशिष्ट क्रिया विधान है जिससे फेफड़ों का व्यायाम–रक्त का शोधन व जीवनी शक्ति संवर्धन ये तीन लाभ होते पाये जाते हैं। ‘डीप ब्रीदिंग‘ गहरी साँस लेना भी इसी के अंतर्गत आता है।

प्राणयोग साधना जिसका वर्णन पिछले लेख में किया गया, वह प्रक्रिया है जिसमें दिव्य चेतना शक्ति के रूप में प्राण तत्व के शरीर में प्रविष्ट होने की आस्था विकसित की जाती है। यह मूलतः संकल्प शक्ति से सम्भव हो पाता है कि साधक वायु के अन्तराल में घुले प्राण तत्व को अपने अन्दर खींचता–उसे धारण करता व पचाता है। संध्या वंदनादि के समय किये जाने वाले प्राणायामों के संकल्प एवं साधक की प्राण धारणा क्षमता का ही महत्व अधिक रहता है। संकल्प रहित अथवा दुर्बल–भाव−संवेदना रहित प्राण का धारण मात्र एक व्यायाम भर बनकर रह जाता है। यदि प्राण तत्व का चेतनात्मक लाभ उठाना है तो श्वास क्रिया से भी अधिक महत्व प्राणायाम के लिये नितान्त आवश्यक संकल्प बल को दिया जाना चाहिये। यह प्राणायाम मनोनिग्रह में–ध्यान साधना के प्रारम्भिक अभ्यास के रूप में साधना विज्ञान का एक अनिवार्य चरण माना जाता है।

सोऽहम् साधना भावोत्कर्ष व शक्ति अवतरण की साधन प्रक्रिया है। इस साधना के साथ जुड़ा संकल्प चेतना को उच्चतम स्तर तक उछाल देने में, जीव−ब्रह्म का समन्वय संयोग करा सकने में समर्थ होता है। इतनी इस स्तर की–भाव संवेदना और किसी प्राणायाम में नहीं। इसीलिये इसे प्राणयोग नाम न देकर हंसयोग भी कहते हैं एवं इसे एक स्वतन्त्र शाखा के रूप में महत्व दिया जाता है। इसे ‘अजपा जप’ अथवा प्राण गायत्री भी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि श्वास के शरीर में प्रवेश करते समय ‘सो’ जैसी और बाहर निकलते समय ‘हम’ जैसी अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि होती है। इस प्रवाह को सूक्ष्म श्रवण शक्ति के सहारे अन्त भूमिका में अनुभव करना और इस अवधि में निरन्तर प्राण द्वारा बीज रूप में गायत्री जप करना–यही संक्षेप में सोऽहम् साधना का विधान है। चूँकि ध्वनि सूक्ष्म है–इसलिये उसे अपने सूक्ष्म शरीर में रहने वाली सूक्ष्म कर्णेन्द्रियों द्वारा–शब्द तन्मात्रा के रूप में सुना जा सकता है।

सोऽहम् साधना की शास्त्रकारों ने स्थान−स्थान पर विवेचना करते हुए प्रशस्ति की है व इसे कुण्डलिनी योग की साधना का भी एक अनिवार्य अंग माना है।

पंच तन्त्र कहता है–

देहो देवालयः प्रोक्तो जीवो नाम सदाशिवः। त्यजेद् ज्ञानं निर्माल्यं सोहं भावेन पूजयेत्॥

अर्थात्– देह देवालय है जिसमें जीव रूप में शिव विराजमान हैं। इसकी पूजा वस्तुओं से नहीं, सोऽहम् साधना से करनी चाहिए।

योग रसायनम् में शास्त्रकार लिखते हैं–

हंसो हंसोहमित्येवं पुनरावर्त्तन क्रमात्। सोहं सोहं भवेन्नूनमिति योग विंदो विदुः॥

अर्थात्– हंसों, हंसोहं इस पुनरावृत्ति क्रम से जप करते रहने पर शीघ्र ही सोऽहं−सोऽहं ऐसा जप होने लगने लगता है। योगवेत्ता इसे जानते हैं।

प्रश्न उठता है कि सोऽहम् की प्रक्रिया ऐसा क्या परिवर्तन शरीर में लाती है जो इसे उच्चस्तरीय प्राणयोग में गिना जाता है सोऽहम् को तत्ववेत्ता अनाहत शब्द कहते हैं। आहत वे हैं, जो कहीं चोट लगने से उत्पन्न हुए हों। जबकि अनाहत बिना किसी आघात के उत्पन्न होते हैं। नादयोग में सुनाई देने वाले शब्द प्रकृति के अन्तराल की उथल−पुथल व पंचतत्वों की काया के भीतर की गतिविधि हलचलों के होने से आहत माने जाते हैं। जप भी आहत है क्योंकि मुख से जो शब्द उत्पन्न होते हैं वे वाणी संस्थान के अवयवों की गतिविधियों से उत्पन्न होते हैं। सोऽहम् अनाहत है। यह ब्राह्मी चेतना की गतिविधियों का सूक्ष्म श्रवण है। इसीलिये इसे अत्यधिक महत्व दिया जाता है।

वायु का प्रवाह जब तीव्र वेग से छोटे छिद्रों में होकर होता है तो घर्षण से ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता है। बाँसुरी में इसी सिद्धान्त के आधार पर स्वर लहरियाँ उत्पन्न होती हैं। बाँसों में विद्यमान छेदों से जब हवा निकलती है तो जंगलों में बांसुरी जैसी ध्वनि निकलती सुनाई देती है। वृक्षों से टकराकर जब तेज गति से हवा चलती है तो घर्षण की प्रतिक्रिया स्वरूप ऐसी ही ध्वनि सुनाई देती है। यहाँ यह तुलना इस कारण की गयी कि नासिका छिद्र भी बाँसुरी के छेदों के समान हैं। इस सीमित परिधि से होकर जब वायु भीतर प्रवेश करती है तो सूक्ष्म ध्वनि प्रवाह इस घर्षण से उत्पन्न होता है। गहरी और मन्द गति से ली गयी साँस से नासिका छिद्रों से टकराकर उत्पन्न होने वाला ध्वनि प्रवाह और भी अधिक तीव्र हो जाता है, पर इसे कर्णेन्द्रियों की सूक्ष्म चेतना में ही अनुभव किया जा सकता है।

चित्त को श्वसन क्रिया पर एकाग्र कर भावना को इस स्तर का बनाया जाता है कि श्वास लेते समय ‘सो’ शब्द के ध्वनि प्रवाह की मन्द अनुभूति होने लगे। साँस छोड़ते समय यह मान्यता बनानी चाहिए कि ‘हम’ ध्वनि प्रवाह निसृत हो रहा है। धीरे−धीरे चित्त एकाग्र करते−करते यह अनुभूति तीव्र होती जाती है और एक अभूतपूर्व आनन्द की प्राप्ति इसमें होने लगती है। ‘सो’ का तात्पर्य परमात्मा और ‘हम्’ का अर्थ है जीव चेतना। निखिल विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त महाप्राण ‘सो’ की ध्वनि के साथ नासिका द्वारा हमारे शरीर में प्रवेश करता है और हमारे अंग प्रत्यंग में–जीव कोष, तन्तु जाल तथा नाड़ी–नाड़िकाओं में प्रविष्ट हो उसको अपने संपर्क, संसर्ग का लाभ प्रदान करता है। यहाँ प्राणायाम के साथ यह ध्यान परक अनुभूति अनिवार्य है। ‘हम’ शब्द के साथ निश्वास द्वारा यह सोचा जाय कि जीव ने अपनेपन का भाव छोड़ दिया तथा काय–कलेवर से अपना आधिपत्य हटा कर उसने महाप्राण को स्थान दे दिया। प्रकारान्तर से यह परमात्म सत्ता का अपने शरीर और मनःक्षेत्र पर अधिकार स्थापित हो जाने की धारणा है।

तत्वदर्शी ऐसा मानते हैं कि जीवात्मा के गहन अन्तराल में उसकी आत्मबोध प्रज्ञा जो उसके वास्तविक ‘स्व’ का स्वरूप है, जागृत अवस्था में रहती है और उसी की स्फुरणा से सोऽहम् का आत्मबोध अजपा जाप बनकर स्वसंचालित रहता है। सोऽहम् का भाव स्थापित हो जाने का अर्थ है–आत्मा−परमात्मा का एकीकरण–अद्वैत की स्थापना। तत्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म–शिवोऽहम्, सच्चिदानंदोऽहम्, शुद्धोऽसि, बुद्धोऽसि, निरंजनोऽसि आदि विवेचनों में इसी वेदान्त दर्शन का प्रतिपादन है।

सोऽहम् उपासना की सार्थकता इसी में है कि जीव अपने आपको भ्रम जंजाल से मुक्त करे। यह मात्र प्राणायाम व ध्वनि की अनुभूति मात्र न बनकर रह जाय। स्वार्थवादी संकीर्णता, काम, क्रोध−लोभ, मोह आदि भव−बन्धनों से जकड़ी यह जीवात्मा दिग्भ्रांत बनी रहती है। इस स्थिति को ही जीव−भाव या जीव भूमिका कहा जाता है। इस भ्रम−जंजाल भरे जीव भाव को हटा दिया तो ईश्वर का विशुद्ध अंश ही अविनाशी निश्छल आत्मा के रूप में शेष रह जाता है। अपने काय कलेवर के कण−कण पर परमात्मा के शासन की स्थापना ही इस साधना का चरम लक्ष्य है। परमात्मा अर्थात् आदर्शों का समुच्चय, जीवात्मा अर्थात् उसी का एक अंश जो भटकाव में लिप्त है, पर मार्ग नहीं खोज पा रहा। सोऽहम् की श्वास−प्रश्वास प्रक्रिया के माध्यम से ‘सो’ और ‘हम्’ की ध्वनि के सहारे इसी भाव चेतना को जागृत किया जाता है कि अपना स्वरूप ही बदल रहा है−समूचा काया−कल्प हो रहा है। अब शरीर और मन पर से लोभ, मोह का−वासना−तृष्णा का आधिपत्य समाप्त हो रहा है। उसके स्थान पर उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तव्य, दूरदर्शी दृष्टिकोण एवं व्यवहार में सज्जनता–परमार्थ परायणता प्रक्रिया भी प्रभावित होती है। सूर्य स्वर के समय शरीर में दिन तथा चन्द्र स्वर के समय शरीर में रात्रि होती है। दिन रात्रि में मनुष्य शरीर में 21600 बार श्वास का आवागमन स्वाभाविकतः होता है अर्थात् 1 मिनट में 15 या 16 बार। इस प्रकार प्रत्येक जीवधारी का पूर्ण आयु प्राप्त करना, दीर्घजीवी होना उसकी श्वास क्रिया पर आश्रित है। जो इस सम्पदा का अपव्यय करता है अर्थात् 1 मिनट में अधिक बार श्वास लेता है वह आयु उतनी ही कम करता जाता है−व्यसनी, भोगी, रोगी इसी श्रेणी में आते हैं। जो कम श्वास लेता है वह अपने खजाने का दुरुपयोग कम करने से दीर्घायु होता है। प्रतिमिनट श्वास की संख्या जैसे−जैसे घटती है, आयुष्यकाल वैसे ही गुणित क्रम में बढ़ता चला जाता है।

ऐसा कहते हैं कि प्रत्येक पखवारे में श्वास की गति बदलती है और प्रायः एक नासिका से एक घण्टा श्वास चलकर बदल जाती है। शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को सूर्योदय के समय इड़ा नाड़ी अर्थात् दाँया स्वर चलना चाहिये, उसी प्रकार कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को इसी समय पिंगला नाड़ी अर्थात् बाँया स्वर चलना चाहिये। प्रत्येक दिन में पाँच बार स्वर का परिवर्तन होता है। श्वास चलने का यह नैसर्गिक नियम सब में शाश्वत है। इस क्रम को जानकर और परिस्थिति के अनुकूल साध कर स्वर विज्ञानी अपने हर कार्य को सफल बनाते हैं। योगी बताते हैं कि विवेकपूर्ण स्थायी नीति नियोजन सम्बन्धी कार्य तब किये जाने चाहिये जब चन्द्र नाड़ी का प्रवाह गतिमान हो। उत्तेजक–आवेश, जोश वाले कार्यों के लिये उचित समय वही बताया गया है जब सूर्य नाड़ी का प्राधान्य हो।

योगियों का यह निष्कर्ष पूर्णतः वैज्ञानिक है। साइन्स डायजेस्ट (जून 1981) में प्रकाशित एक शोध लेख के अनुसार बांये व दांये मस्तिष्क की गतिविधियों का बांये व दांये नथुने से श्वास लेने के क्रम से बड़ा गहरा सम्बन्ध है। डा. रेमण्डक्लीन एवं रोजीन आर्मीटेज (डलहौजी यूनिवर्सिटी− नोवास्काँटिया) ने पाया कि प्रति 90 या 100 मिनट में दाहिना मस्तिष्क विराम चाहता है व बाँया मस्तिष्क गतिशील हो जाता है। ऐसे में यदि नथुने से श्वास द्वारा इस चक्र से जिसे वे “नेजल सायकल” कहते हैं, संगति बिठा ली जाय तो कार्य क्षमता में उल्लेखनीय परिवर्तन हो सकता है, साथ ही कई प्रसुप्त पड़े केन्द्रों की जागृति में भी इससे सहायता मिल सकती है। हिमालयन इन्स्टीट्यूट पैंसिलवानिया ने तो इस विषय पर पूरी एक प्रयोगशाला ही स्थापित की है और इससे वे मानस रोगों सम्बन्धी महत्वपूर्ण निष्कर्षों पर भी पहुँचे हैं।

स्वर विज्ञान बताता है कि सही ढंग से श्वास नाड़ी चलने की प्रक्रिया से संगति बिठाते हुए यदि अपना श्वास क्रम सुनियोजित कर लिया जाय तो न के वल जीवन व्यापार में सन्तुलन साधने हेतु वरन् आत्मिक प्रगति के लिये भी इस योग विद्या का उपयोग हो सकता है। प्राण प्रवाह पर नियन्त्रण कर योगी अपनी सूक्ष्म चेतना को विकसित कर लेते हैं। भविष्य के गर्भ में छिपी कई घटित होने वाली बातें वे पहले से ही जानते हैं और तद्नुसार ही अपनी गतिविधियों का निर्धारण करते हैं। इसे दिव्य दृष्टि एवं अतीन्द्रिय सामर्थ्य भी कह सकते हैं। न केवल प्राणशक्ति के संरक्षण व संवर्धन हेतु वरन् स्वर योग के माध्यम से दिव्य उपलब्धियों के लिये भी स्वर ज्ञान तथा श्वसन क्रिया का नियमन सुनियोजन जरूरी है। भगवान शंकर ने स्वरयोग की महत्ता बताते हुए कहा है−

सर्वशास्त्र पुराणादि स्मृति वेदांग पूर्वकम्। स्वर ज्ञानात्परं तत्वं नास्ति किचिद्वरानने॥

अर्थात्− सम्पूर्ण शास्त्र पुराणादि, स्मृति और वेदांग आदि ये सब स्वर ज्ञान से श्रेष्ठ नहीं है अर्थात् इनका ज्ञान भी स्वर के ही बल से होता है।

गुह्याद गुह्यतरं सारमुपकार प्रकाशकम्। इदं स्वरोदयं ज्ञानं ज्ञननाँ मस्तकेमणिः॥

अर्थात्− यह स्वर ज्ञान गुप्त से भी गुप्त वस्तु है। इसमें छिपा रहस्य उपकारों का प्रकाशक है और सब ज्ञानों में शिरोमणि है।

प्राण विद्या की इस विद्या को आज के वैज्ञानिक युग में भी पूर्णतः मान्यता मिल चुकी है। स्वर साधना की सिद्धि के लिये उत्सुक साधकों के लिये इससे सुगम प्राण योग की साधना और कोई नहीं।


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