आन्तरिक परिष्कार का सुवर्ण सुयोग

March 1982

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

उपवासपूर्वक सवालक्ष गायत्री अनुष्ठान प्रायः लोग अपने-अपने घरों पर भी करते रहते हैं। उपवास में आमतौर पर आधे पेट से अधिक भोजन नहीं किया जाता। पेटू लोगों की बात अलग हैं। जो उपवास जैसी तपश्चर्या को भी मात्र आहार परिवर्तन भर समझते हैं और पेट पर अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक बोझ लादते हैं। चान्द्रायण में कुल मिलाकर आधे पेट भोजन का प्रबन्ध तो हो ही जाता है। ऐसी दशा में चान्द्रायण साधना का वैसा स्वरूप नहीं रह जाता, जैसा कि शास्त्रकारों न उसका असाधारण माहात्म्य वर्णन किया है।

जिस विशेषता के कारण देखने में साधारण किन्तु परिणाम में महान चांद्रायण तपश्चर्या का माहात्म्य बताया गया है, वह है “आत्मिक काया-कल्प”। इसी के निमित्त अनेकानेक नियम, संयमों एवं विधि-विधानों का निर्धारण हुआ है। उपवास और जप तो उस प्रक्रिया के दृश्यमान एवं शारीरिक क्रिया-प्रक्रिया के रूप में सम्पन्न होने वाले उपचार भर हैं।

वस्तुतः चान्द्रायण को अध्यात्म कल्प उपचार समझा जाना चाहिए और उसके साथ उन सभी प्रयोजनों का महत्व समझा जाना चाहिए जो उसके साथ चिन्तन और भावना के रूप में अविच्छिन्न रूप में जुड़े हुए हैं। यदि उन पर ध्यान न दिया जाय और केवल शरीरचर्या वाली प्रक्रिया चलती रहे तो समझना चाहिए कि शास्त्र निर्धारण का एक बहुत छोटा ही अंश पूरा हुआ।

साधना विधानों के अंतर्गत आने वाले अगणित क्रिया-कलाप जिनमें चान्द्रायण भी सम्मिलित है, एक ही उद्देश्य है–देव जीवन की दृष्टि से हेय समझी जाने वाली मान्यताओं एवं आदतों का निराकरण तथा सदाशयता को स्वभाव में सम्मिलित करने का अभ्यास। पशु-प्रवृत्तियों को देव प्रवृत्तियों में बदलने का जो पुरुषार्थ किया जाता है उसी को साधना कहते हैं।

चान्द्रायण साधना में भक्ति योग, ज्ञानयोग और कर्मयोग की त्रिविध क्रिया-प्रक्रियाओं का समन्वय हैं। गायत्री उपासना एवं ध्यान धारण को भक्ति योग, स्वाध्याय-सत्संग को स्थूल और चिन्तन-मनन को सूक्ष्म ज्ञानयोग तथा व्रतोपवास के अनुशासन को कर्मयोग कहा जाता है। इस समन्वय में तीनों शरीरों को परिष्कृत करने वाली तीन प्रकार की विधि-व्यवस्था के अंतर्गत समूचे

व्यक्तित्व की गलाई ढलाई होने लगती है। इस समग्र समन्वय की कार्य पद्धति से ही चांद्रायण का तात्विक प्रयोजन पूर्ण होता है। मात्र उपवास या जप का उपक्रम चलता रहे और जीवन के हर क्षेत्र की उत्कृष्टता की दिशा में धकेलने वाले अन्यान्य अनुबन्धों की उपेक्षा होती रहे तो समझना चाहिए कि बाह्य कलेवर की ही व्यवस्था बनाई गई हैं। उसमें प्राण संचार करने वाली आध्यात्मिक प्रखरता उत्पन्न करने में समर्थ भावनात्मक तपश्चर्याओं का समावेश नहीं किया गया। सर्वविदित है कि कलेवर कितना ही सुन्दर क्यों न हो, उसमें प्राण नहीं होगा तो अभीष्ट हलचल उत्पन्न होने और परिणति का लाभ मिलने जैसा अवसर ही उत्पन्न न होगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles