चिन्तन कण (kavita)

March 1982

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इतने अमूल्य मानव जीवन को, नाच नचायेगा क्या-क्या?

कुल चार दिनों का जीवन था, दो काट चुके दो कटने हैं, दो दिन के बाकी जीवन में, संसार दिखायेगा क्या-क्या?

खुद जान-बूझ कर ही जिसने काँटों में पैर बढ़ाया हो, तरकीब काँटों से बचने की तरकीब बताएगा क्या-क्या?

अनुमान लगाने बैठूँ तो सचमुच सिर चकरा जायेगा, मैंने थोड़े से जीवन में खोया क्या-क्या पाया क्या-क्या?

सब भले-बुरे की परिभाषा ही बदल जाएगी क्षण भर में, यदि तुम्हें बताने बैठूं मैं देखा है भला-बुरा क्या-क्या?

हर चीज मुझे जब हासिल था, मिलता था मगर एक तू ही नहीं, क्या तुझको बताएँ तेरे बिना इस दिल का तमाशा था क्या-क्या?

मैं तो पहचान नहीं पाया तू ही जाने तेरी माया, जीवन के इन व्यापारों में, मेरा क्या-क्या तेरा क्या-क्या?

–यादराम शर्मा रजेश

*समाप्त*


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