साधना की सफलता में मार्गदर्शक की महत्ता

March 1982

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अध्यात्म क्षेत्र में मार्गदर्शक की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण मानी जाती है। बच्चा अपना पठन−पाठन आरम्भ करता है तो विद्यालय में शिक्षक से लेकर घर में माता−पिता तक–सभी गुरु की भूमिका निभाते हैं। लौकिक समृद्धि एवं भौतिक प्रगति के प्रबन्ध में भी यह एक सुविदित तथ्य है कि मार्ग−दर्शन के सही मार्ग पर स्वयं चल पड़ना शक्य नहीं। पुरुषार्थ तो स्वयं को ही करना पड़ता है, पर उँगली पकड़ कर चौराहे के भ्रम−जंजाल से मुक्त कर सही रास्ता दिखा देने का कार्य गुरु ही करते हैं।

सद्गुरु की महिमा गाते शास्त्रकार थकते नहीं। मनीषीगण निरन्तर यही कहते आये हैं कि आत्मिक प्रगति बिना गुरु की सहायता के सम्भव नहीं। आत्मकल्याण का द्वार इसके बिना खुलता नहीं। सारी साधनाओं की सफलता सद्गुरु के मार्गदर्शक पर निर्भर है। इसके लिए व्यक्ति विशेष को गुरु मानने की भी आवश्यकता पड़ती है। परन्तु उसका कार्य एक ही है–व्यक्ति को सद्गुरु की पहचान करा देना–उपासना की सही दिशा दे देना तथा अध्यात्म−पथ का पथिक बना देना। यात्रा पूरी करने में हमें अपने पैरों का सहारा लेना होता है। लाठियाँ तो सहारा भर देती हैं। सद्गुरु हमें पार उतारते हैं, पर उन तक पहुँचने के लिये शरीरधारी गुरु की भी अपने ढंग की आरम्भिक किन्तु महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सद्गुरु कैसे हों, उनकी पहचान क्या हो–इस विषय में आचार्य शकर ‘विवेक चूड़ामणि’ में लिखते हैं–

श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतो यो ब्रह्मवित्तमः ब्रह्मण्युपरतः शान्तो निरिन्धन इवानलः

अहतुकदया, सिन्धुर्बन्धुरानमताँ सताम् तमाराध्य गुरं भक्त्या प्रह्न प्रश्रयसेवनैः। प्रसन्नं नमनुप्राप्य पृच्छे ज्ञातव्यनात्मनः॥

अर्थात्− जो श्रुति के ज्ञान से युक्त हों, पाप रहित हों, कामना शून्य हों, श्रेष्ठ ब्रह्मनिष्ठ हों, ईंधन रहित अहित अग्नि के समान शान्त हों, अकारण दयालू हों और शरण में आये हुए सज्जनों के हितैषी हों, उन सद्गुरु की विनम्रतापूर्वक अभ्यर्थना करके उनके प्रसन्न होने पर अपना ज्ञातव्य पूछ।

इतनी विशेषताएँ गुरु में हों और पात्रता तथा असीम श्रद्धा शिष्य में, तो वह आदान−प्रदान सम्भव है जो आत्मिक प्रगति में सहायक होता है। रामकृष्ण परमहंस बनने के लिये जन्म−जन्मान्तरों की साधना अभीष्ट है, पर विवेकानन्द बनना पात्रता अर्जित करना सरल है। समुद्र बनना कठिन है, परन्तु उसका जल लेकर मेघ बनकर उड़ना सरल है। पारसमणि बनना कठिन है, पर लोहे का उसे छूकर सोना बन जाना सरल है। चाणक्य जैसी प्रचण्ड सत्ता–अग्निपुँज बन सकना हर किसी का काम नाम नहीं, पर एक दासी पुत्री का चाणक्य का अनुग्रह पाकर दिग्विजयी सम्राट बनकर सफल होना सरल है। बुद्ध कभी−कभी ही ईश्वरीय विधिव्यवस्थानुसार अवतरित होते हैं, पर उनके वट वृक्ष रूपी व्यक्तित्व की छाया में अशोक, आनन्द, अंगुलिमाल, आम्बपाली आदि अगणित व्यक्ति संकीर्णता की परिधि लाँघकर महानता का वरण कर सकने में सफल हो जाते हैं। समर्थ गुरु रामदास बनने के लिये तलवार की धार पर चलने जैसी साधना करने का साहस सामान्य व्यक्तियों के पास नहीं होता। परन्तु शिवाजी के रूप में एक नगण्य से व्यक्तित्व वाला बालक भी छत्रपति के रूप में विकसित हो सकता है। गाँधी कभी−कभी ही उत्पन्न होते हैं पर उनका अनुगमन करने वाले व्यक्ति महान राजनेता पद पाकर इतिहास में अपना नाम अमर कर जाते हैं।

वस्तुतः आत्मिक प्रगति की उपलब्धियाँ भौतिक प्रगति की तुलना में असंख्यों गुनी सामर्थ्य से भरी पड़ी है। बशर्ते सही मार्ग−दर्शन उपलब्ध हो गया हो। जिन्हें समर्थ, आत्मबल सम्पन्न और अनुभवी गुरु का प्रत्यक्ष मार्ग दर्शन मिल गया हो, समझना चाहिए कि आत्मिक प्रगति के लिये सशक्त अवलम्बन प्राप्त हो गया। ऐसे गुरु न केवल शिष्य का साधनात्मक मार्गदर्शन करते हैं वरन् अपनी शक्ति का एक अंश देकर साधक को आत्मबल से अनुग्रहीत भी करते हैं। साधना ग्रन्थों में इस गुरु−शिष्य आदान−प्रदान की प्रक्रिया व महत्ता के सम्बन्ध में काफी प्रकृति लिखा जाता है। यह सब मात्र इसलिए कि ग्रन्थों का पठन पाठन, एकाँगी तप−तितिक्षा ही नहीं−गुरु की शक्ति का अंश तथा अनुभवजन्य मार्गदर्शन अत्यन्त आवश्यक है। नहीं तो हर मोड़ पर भटकाव की सम्भावना होती है। इसके लिये भक्त को सद्गुरु का चयन करने के अतिरिक्त अपनी साधन श्रद्धा का भी आरोपण करना होता है।

श्वेताश्वतरोपनिषद् में ऋषि लिखते हैं–

“जिसकी अपने अभीष्ट देव के प्रति प्रगाढ़ भक्ति होती है और उस देव के समान ही गुरु के प्रति भी प्रगाढ़ श्रद्धा होती है, उस महापुरुष को सारा ज्ञान स्वयमेव प्रकट हो जाता है।”

साथ ही यह भी ध्यान रखना होता है कि कोई विदूषक गुरुपद का स्वांग रचने बैठा हो और अपने साथ−साथ अनुगमनकर्त्ता को भी न डुबा रहा हो। सही एवं सफल मार्ग−दर्शन की तलाश में निकले जिज्ञासु पथिक को जहाँ श्रद्धालु होना चाहिए वहाँ सतर्क भी, अन्यथा इस धूर्तता के युग में किसी अनाड़ी छलिया के जाल में फँसकर प्रगति तो दूर, जो पास में था उसे भी वह गँवा बैठेगा। इसीलिये शास्त्रकार लिखता है–

तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तयमम्। शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मपरे च समाश्रयम्॥

अर्थात्–आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले जिज्ञासु को बौद्धिक ज्ञान से परे, परब्रह्म की स्थिति के अनुभवी, अध्यात्म शास्त्र में निष्णात ‘गुरु’ का सान्निध्य प्राप्त करना चाहिए।

ऐसे गुरु की प्राप्ति हर साधक के जीवन का एक बहुत बड़ा सौभाग्य है। वह अपनी शक्ति में गुरु से प्राप्त शक्ति को जोड़कर स्वयं को आत्म बल सम्पन्न एवं प्रगति पथ पर अग्रगामी होते प्रत्यक्षतः देखता है।

गुरु द्वारा अपनी शक्ति हस्तान्तरित करने, अपने तेजोवलय द्वारा चक्षु, वाणी, स्पर्श से शिष्य की क्षमताओं को विकसित करने की घटनाओं का उल्लेख योग ग्रन्थों में स्थान−स्थान पर आया है। साधना पथ पर चलने वाला प्रत्येक साधक जिज्ञासु हो उठता है कि यह शक्तिपात क्या है, किस सीमा तक वैज्ञानिक है? उसकी प्रक्रिया क्या है एवं क्या प्रत्येक व्यक्ति ऐसे समर्थ व्यक्ति, महापुरुषों के अनुदान प्राप्त कर सकता है? पात्रता विकसित करने के लिये क्या करना पड़ता है? सामान्य व्यक्ति इसकी परख कैसे करें, ये ऐसे प्रश्न हैं जो साधना मार्ग और उन्मुख हर साधक जानना चाहता है।

योगीराज अरविंद एवं माताजी, स्वामी रामकृष्ण परमहंस एवं विवेकानन्द, युक्तेश्वरगिरी एवं योगानन्द इनके प्रसंगों में इसी प्रकार के वर्णन मिलते हैं। शैव धर्म में तो शिष्य के कल्याण का मूल कारण शक्तिपात को माना गया है।

“शक्ति पातानुसारेण शिष्योऽनुग्रहमर्हति। शैवधर्मानुसारस्य तन्मूलत्वात् समासतः॥

जिस शिष्य को इसका लाभ नहीं मिल पाता उसका कारण बताते हुए कहा गया है कि–

यत्र श्क्ति र्नपतिता तत्र शुद्धिर्न जायते। न विद्या न शिवाचारो न मुक्ति र्न च सिद्धयः॥

अर्थात्− कषाय कल्मषों की अशुद्धि, अविद्या, अनुचित आचरण वाला मुक्ति को नहीं प्राप्त होता, नहीं शक्तिपात का लाभ उठा पाता है अथवा प्रकारान्तर से कहा जा सकता है कि जिसे गुरु की शक्ति नहीं मिली वह मुक्ति नहीं पाता तथा कषाय−कल्मषों से आच्छादित अन्तःकरण लिये अविद्या, अनाचरण युक्त जीवन बिताता है।

गुरु−शिष्य परम्परा में शक्पात की यथार्थता पर सन्देह नहीं किया जाना चाहिए। गुरु के सुपात्र शिष्य को प्राप्त अनुदान उसे सामान्य से असामान्य बना देते हैं, इन प्रसंगों से पुराण–इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। परन्तु प्रकृति भ्रान्तियाँ इस क्षेत्र में ऐसी व्याप्त हैं जिन्होंने सामान्य व्यक्ति को दिग्भ्रान्त ही नहीं किया है−शक्तिपात के नाम पर गुरु शिष्य परम्परा को कलंकित भी किया है। तथाकथित गुरुओं ने ऐसे जाल−जंजाल खड़े कर दिये हैं जिन्हें देखकर कोई भी व्यक्ति भटक सकता है। इसलिये इसके वास्तविक स्वरूप को जानना जरूरी है।

साधना पथ में गुरु वरण किया जाता है। गुरु वह जो अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलता है। कहा गया है–

अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलित येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥

“जिस गुरु ने ज्ञान के अंजन की शलका आँखों में लगाकर अज्ञान रूपी अन्धकार को मिटाया उन गुरुदेव को नमस्कार है।”

गुरु भी दो होते हैं। एक वह जो अन्तरात्मा के रूप में बैठे प्रेरणा देते रहते हैं, दूसरे वह जिन्हें विशिष्ट व्यक्ति −मार्गदर्शक के रूप में वरण किया जाता है। महत्ता दोनों की ही है।

निरन्तर सद्शिक्षण और ऊर्ध्वगमन का प्रकाश दे सकना अन्तःकरण में विराजमान गुरुद्वारा ही सम्भव है, बाहरी .गुरु हर समय शिष्य के साथ तो है नहीं। जबकि शिष्य के समक्ष, निरूपण और निराकरण हेतु अगणित समस्याएँ प्रस्तुत होती रहती हैं। इनमें से किस का किस प्रकार समाधान किया जाय, इसका मार्गदर्शन मात्र अपना परिष्कृत सत्ता का लघु रूप में हर समय साथ रहता है। यह भीतरी और बाहरी परिस्थिति की जितनी जानकारी रखता है उतनी और किसी को नहीं है।

परन्तु मानव की दृष्टि स्थूल है। इस कारण वह सूक्ष्म आत्म−प्रेरणाओं को नहीं समझ पाती। आत्मबल सम्पन्न गुरु का वरण शिष्य को इन प्रेरणाओं को समझने–आत्मसात कर दिशा निर्धारित करने के लिये ही किया जाता है। अन्तःगुरु को जगाने का काम भी गुरु ही करता है। अपने आत्मबल द्वारा वह शिष्य में ऐसी शक्ति प्रेरणाएं भरता है जिससे वह सद्मार्ग पर चल सके। साधना मार्ग के विक्षोभों एवं अवरोधों के निवारण में गुरु का असाधारण योगदान होता है। मनुष्य की सामर्थ्य अनन्त है। वह शक्ति का पुञ्ज है। पर जब तक यह आत्मबोध न हो जाय अन्तःशक्ति के वैभव का समुचित लाभ उठा पाना साधक के लिये सम्भव नहीं हो पाता। गुरु शिष्य को अंतर्जगत का पर्यवेक्षण कराते हैं, उसकी सामर्थ्य का बोध कराते हैं। सामर्थ्य को जागृत विकसित कर सुनियोजित करने के हर सम्भव उपाय बताते है। इसका साधक को आत्मबल व मनोबल के रूप में मिलता है। यही शक्ति साधक के अंतर्जगत के देवासुर संग्राम में विकारों को उखाड़ फेंक देने में सहायक सिद्ध होती है।

गुरु का यह अनुदान शिष्य अपनी आन्तरिक श्रद्धा के रूप में उठाता है। जिस शिष्य में आदर्शों व सिद्धान्तों के प्रति जितनी अधिक निष्ठा होगी वह गुरु के इस अनुभव से उतना ही लाभान्वित होता है। प्रत्येक शिष्य अपनी श्रद्धा−पूँजी के अनुरूप उसी अनुपात में उसे प्राप्त करता है।

अधर्म अधर्मयोःसाम्ये जात शक्तिःपतत्यसै। ज्ञानात्मिका पराशक्तिः शंभोर्यास्मिन्निपातिता॥ (महायोग विज्ञान)

अर्थात्– जब शिष्य के धर्माधर्म, रूप, संस्कार सभ्यता को प्राप्त होते हैं, तब ईश्वर से प्राप्त उस ज्ञानात्मिका पराशक्ति का समर्थ गुरु द्वारा शक्तिपात किया जाता है।

लोहा जिस प्रकार के संपर्क में आकर सोना बन जाता है। उसी प्रकार ऐसे उच्चस्तरीय प्राण प्रहार प्रयोगों में साधक में जीवन में आमूल−चूल परिवर्तन न हो जाता है। ऐसे शिष्य जन−प्रवाह के बहते ढर्रे के जीवन से मुख मोड़कर वह मार्ग अपनाते है जो कठिनाइयों–संघर्षों से भरा होता है। वे अपने व्यक्तित्व को गुरु की प्राणशक्ति के चुम्बक से प्रभावित कर उसे भी वैसा ही प्रभावशाली–प्रबल बना सकने में समर्थ हो जाते हैं। शक्तिपात की अनुभूति नहीं–परिणति महत्वपूर्ण है। चरित्र की उत्कृष्टता एवं व्यक्तित्व में उदार आत्मीयता ही गुरु अनुग्रह की वास्तविक उपलब्धि है। जिस भी साधक में यह जितनी अधिक मात्रा में दीख पड़े समझना चाहिए गुरु कृपा प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में उसी अनुपात में मिली है।


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