नादयोग द्वारा दिव्य ध्वनियों की संसिद्धि

March 1982

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प्रकृति और पुरुष का जिस स्थल पर संयोग होता है वहाँ से एक अनाहत ध्वनि निरन्तर प्रसृत और निनादित होती रहती है। योगियों, ऋषियों ने उस ध्वनि प्रवाह को ॐकार गुँजन–ब्रह्मनाद कहा है। उसी से सप्त−स्वर प्रस्फुटित हुए। श्रुति−शास्त्रों में प्रयुक्त होने वाले उदात्त अनुदान स्वरूप उसी के आरोह−अवरोह हैं। संगीत शास्त्र में वे ही आगे चलकर सा, रे, ग, म, प, ध, नि के स्वर सप्तक बन गये। जिस प्रकार सूर्यरथ के सप्तअश्व उसके प्रभा किरणों में सन्निहित रंग हैं, उसी तरह ब्रह्मनाद का ध्वनि गुँजन सप्तधा स्वर लहरी में निनादित होता रहता है। प्रकृति के अन्तराल में एक प्रकार का ध्वनि स्पन्दन होता रहता है जिसकी तुलना घड़ियाल में हथौड़ी मारने से उत्पन्न होने वाली टंकार से कर सकते हैं। टंकार के उपरान्त जो झनझनाहट होती है उसे दिव्यदर्शियों ने ॐकार ध्वनि कहा है। उनका मत है कि प्रकृति और ब्रह्म के संयोग से निस्मृत होने वाले ध्वनि प्रवाह के आघात प्रतिघात से ही सृष्टि की समस्त हलचलों का आरम्भ एवं अग्रगमन होता है। अणु सत्ता की गति यहीं से मिलती है। ऊर्जा की तरंग शृंखला इसी केन्द्र से उत्पन्न होकर ब्रह्माण्डव्यापी बनती है।

एकोऽहम् बहुस्यामि की उक्ति का आरम्भ इसी गर्म बिन्दु से आरम्भ होता है। नादयोग की नाभि यही है। शब्द ब्रह्म का अपनी माया स्फुरणा इच्छा के साथ चल रहा यही संयोग ॐकार के रूप में निस्मृत होकर परा और अपरा प्रकृति के गह्वर में जड़ चेतन की हलचलों एवं गतिविधियों का कारण बनता है।

दीवार में लटकी घड़ी का पेन्डुलम एक बार हिला दिया जाय तो घड़ी की चाबी रहते वह अपने क्रम में निरन्तर हिलता रहता है। ठीक इसी प्रकार एक बार आरम्भ हुई सृष्टि एवं संचालित प्रक्रिया के अनुसार अपना कार्य करती अपनी धुरी पर एक बार घुमाये गये लट्टू की तरह देरी तक घूमती रहती है। इसकी संचालक सत्ता शब्द ब्रह्म की वह ध्वनि है जिसे ॐकार कहते हैं। यों सुनने में ध्वनि के सप्त स्वर और उनके आरोह−अवरोह शब्दों का उतार−चढ़ाव भर प्रतीत होते हैं। उनका उपयोग वाद्य−गायन में प्रयुक्त होना भर लगता है पर वस्तुतः उनकी सीमा इतनी स्वल्प नहीं है। मनुष्यकृत स्वर लहरी के अतिरिक्त प्रकृतिगत स्वर प्रवाह और जीवधारियों द्वारा विविध प्रकार के उच्चारण भी कम महत्व के नहीं हैं। मेघ गर्जन, समुद्र की लहरों का विद्युत शोर की कड़क, वायु की सनसनाहट तथा पक्षियों का कलरव सुनकर ऐसा लगता है कि स्वर ब्रह्म अपने अगणित ध्वनि प्रवाहों में न जाने कितने भाव भरे संकेतों और सन्देशों को इस विश्व ब्रह्माण्ड में भरता रहता है।

यह सब आहत ध्वनियाँ हैं जो कानों से सुनी जा सकती हैं। वे ध्वनियाँ भी विज्ञान की पकड़ में आ गयी हैं जो मनुष्य के कानों से सुनी जा सकने वाली मर्यादा से या तो ऊँची हैं या नीची। आविष्कृत साधन उपकरणों द्वारा उन्हें उसी प्रकार सुना जा सकता है जैसे खुली आँख से न दिखने वाले लघु जीवाणु सूक्ष्म दर्शक यन्त्रों से भली प्रकार देखे जा सकते हैं। ये प्रकृतिगत ध्वनियाँ हैं जो जड़ अणुओं के परस्पर आघात से उत्पन्न होती हैं।

इससे उच्चस्तर की ध्वनियाँ वे हैं जिन्हें जड़ परमाणुओं द्वारा स्पन्दित नहीं कहा जा सकता। उनका सीधा सम्बन्ध चेतना जगत के जीवन प्रवाह से है–मूल स्रोत चेतना तत्व है। इसलिए उन्हें ब्रह्म वाणी भी कहते हैं। इसी का अलंकारिक वर्णन कृष्ण की वंशी, शंकर के डमरू, सरस्वती की वीणा के रूप में किया जाता है। सरस्वती की वीणा मानवी काया का मेरुदण्ड, कृष्ण वंशी की कण्ठ स्थित स्वर नलिका, शंकर का डमरू धड़कता हुआ हृदय कहा जा सकता है। लप−डप को, धड़कन को शंकर का डिमडिम घोष कहा जाता है। श्वास नलिका में वायु का आवागमन ‘सोऽहम्’ की ध्वनि में कृष्ण−बांसुरी के रूप में निनादित होता है।

कृष्ण द्वारा रात्रि की नीरवता में वंशी बजाये जाने और गोपियों के घर−बार छोड़कर उस रास आह्वान को सुनकर निकल पड़ने का सविस्तार वर्णन भागवत आदि पुराणों में मिलता है। यह सामाजिक एवं व्यावहारिक मर्यादाओं की दृष्टि से प्रतिकूल लगता है, पर अध्यात्म परम्परा के सर्वथा अनुकूल है। वस्तुतः कथा–गाथाओं में रहस्यमय पहेली की तरह गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों का उद्घाटन किया गया है। रास−लीला के पीछे नादयोग की व्याख्या विवेचना ही सन्निहित है। भगवान वंशी बजाते हैं अर्थात् मधुर दिव्य रसास्वादन के लिए आह्वान करते हैं। गोपियाँ समस्त साँसारिक बन्धनों को तोड़कर उस ओर दौड़ पड़ती हैं। संकेत आह्वान का स्वागत करती हैं और उसी के लिए आकुल व्याकुल होकर अपना समर्पण कर देती हैं। अपना आपा खोकर दिव्य ध्वनि के साथ थिरकना, नाचना आरम्भ कर देती हैं। यही रासलीला है। कृष्ण अर्थात् परमात्मा, वंशी ध्वनि अर्थात् ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए चल पड़ने का संकेत, गोपियाँ अर्थात् जीव सत्ता की भौतिक एवं आत्मिक सम्पदाएँ रास−नृत्य अर्थात् दिव्य संकेतों के अनुरूप कठपुतली जैसा भाव विभोर आचरण एवं समर्पण।

वर्णन मिलता है कि रासलीला में सम्मिलित गोपियाँ आनन्द विलग्न हो जाती थीं। यों एक पुरुष के साथ इतनी नारियों का सहवास एवं नृत्य न तो अभिनन्दनीय हो सकता है और न ही सामाजिक मर्यादाओं के अनुकूल। पर आत्मा और परमात्मा के बीच आदान−प्रदान का जो भावभरा अलंकारिक चित्रण रासलीला में किया गया है वह पहेली जैसा लगते हुए भी आध्यात्मिक दृष्टि से अर्थपूर्ण तथा तथ्यपूर्ण है। रास की प्रधान नायिका राधा हैं और अन्य सभी सखियाँ सहेलियाँ। वे उनके साथ पूर्ण स्नेह–सहयोग के साथ नृत्य में तल्लीन होती हैं। राधा अर्थात् आत्मा, उनकी सहयोगिनी सखियाँ, अन्तरंग की सत्प्रवृत्तियाँ, बौद्धिक विभूतियाँ और साँसारिक सम्पदाएँ। ये सभी आत्मा का आकांक्षा में सहयोग देती हैं। आत्मा और परमात्मा के मिलन सत्प्रयत्नों में कोई अवरोध नहीं उत्पन्न करतीं वरन् उसे सफल बनाने के लिए अपना पूर्ण समर्पण प्रस्तुत करती हैं। आत्मा की दिव्य आकाँक्षा की पूर्ति में उनका पूरा−पूरा सहयोग मिलता है। यह स्थिति प्राप्त हो सके तो हर राधा को–हर आत्मा को रासलीला का–जीव ब्रह्म मिलन का दिव्य आनन्द मिल सकता है। नादयोग की साधना इसी उपलब्धि के लिए की जाती है।

नादयोग के साधक सूक्ष्म कर्णेन्द्रियों के माध्यम से घण्टा, शंख, नाद, बाँसुरी, वेणु, मेघनाद, निर्झर प्रवाह आदि के रूप में सुनने का प्रयास करते हैं और उसी आधार पर सूक्ष्म प्रकृति के अन्तराल में चल रही अगणित गतिविधियों के ज्ञाता बन जाते हैं। इन स्वर निनादों के साथ जो अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है वह प्रकृति पर आधिपत्य स्थापित करने और उसके अनुदानों का लाभ उठाने में सफल हो जाता है। नादयोग की साधना में कानों की सूक्ष्म चेतना की दिव्य ध्वनियाँ सुनाई देती हैं। कई बार ये मन्द होती हैं और कई बार अत्यन्त प्रखर। ध्वनियों को श्रवण करने के साथ−साथ उच्चस्तरीय विचारों एवं भावनाओं का समन्वय भी उनके साथ होना चाहिए। कृष्ण की बाँसुरी सुनने की भाव भूमिका का वर्णन किया जा चुका है। बंशी के अतिरिक्त भी कई प्रकार की ध्वनियाँ साधकों को सुनाई पड़ती हैं। उनका तत्व दर्शन समझना भी नादयोग के साधकों के लिए आवश्यक है।

अन्य स्वर लहरियों की भी तात्विक संगति बिठायी जाती है। भगवती सरस्वती अपनी वीणा झंकृत करते हुए ऋतंभरा प्रज्ञा और अनासक्त भूमा के मृदुल मनोरमा तारों को झनझना रही हैं और अपनी अन्तःचेतना में वही दिव्य तत्व उभर रहे हैं। साधक को वीणा की झंकार सुनते समय यह भावना करनी चाहिए। भगवान शंकर का डमरू बज रहा है–उससे प्रलय के –मरण के संकेत आ रहे हैं और सुझाया जा रहा है कि इस नश्वर काया का अन्त करने वाला ताण्डव किसी भी सम्मुख आ सकता है, इसलिए प्रमाद में न उलझा जाय। माया−मोह से निकला एवं यथार्थता को समझा जाता। शंखनाद की ध्वनि को महाभारत के पाञ्चजन्य का, महाकाल में भैरव नाद का उद्घोष माना जाय और ऐसा अनुभव किया जाय कि अब महाप्राण का ऐसा समय आ पहुँचा है जिसमें आनाकानी करने की गुँजाइश नहीं है। युग की–कर्त्तव्य की–पुकार गुँजित हो रही है कि अविलम्ब जीवनोद्देश्य की दिशा में कदम बढ़ाया जाय।

नादयोग का अभ्यास जब परिपक्व होने लगता है तो भावोत्कर्ष से आगे बढ़कर सुविस्तृत अन्तरिक्ष में संव्याप्त हलचलों को समझने का अवसर मिलता है। ‘ब्रह्माण्ड में संसार को प्रभावित करने वाली अगणित ब्रह्म प्रेरणाओं के प्रवाह बहते रहते हैं। उनके स्पन्दन हमारी कर्णेन्द्रियों से शब्द रूप में टकराते हैं। उन्हें पहचानने और पकड़ने की क्षमता साधना में परिपक्वता के साथ−साथ सहज ही बढ़ने लगती है। सूक्ष्म जगत की अदृश्य घटनाओं का बोध होने लगता है। क्या हो रहा है और क्या होने वाला है, उसकी जानकारी नादयोग के साधक को मिल जाती है। इस अविज्ञात स्तर को ज्ञात स्तर पर उतारने में नादयोग की साधना बहुत ही उपयोगी एवं प्रभावशाली सिद्ध होती है।

नाद साधना में मिलने वाले संकेत सूत्र ऐसे होते हैं जिनके सहारे परमात्मा के विभिन्न शक्ति स्रोतों के साथ आदान−प्रदान कर सकना सम्भव है। जिस प्रकार टेलीग्राम, टेलीफोन, वायरलैस, टेलीविजन पद्धतियों का आश्रय लेकर हम दूरवर्ती व्यक्तियों से संपर्क साध सकते तथा परस्पर विचार विनिमय कर सकते हैं ठीक उसी तरह ईश्वर के विभिन्न शक्ति केंद्रों के साथ इन ध्वनियों के माध्यम से सम्बन्ध मिला सकते हैं और उस स्थिति पर पहुँच सकते हैं कि अपनी बात ईश्वर तक पहुँचा सकें और उससे आवश्यक निर्देश प्राप्त कर सकें। सिद्ध पुरुषों एवं योगियों में यह विशेषता दिखायी पड़ती है। वे ऐसे ही माध्यमों के आधार पर अपने को परमेश्वर के साथ जोड़कर अभीष्ट आदान−प्रदान का लाभ प्राप्त करते हैं।

नादयोग की महिमा से शास्त्रों के पन्ने भरे पड़े हैं–

उक्त त्ममानतः पूर्व पश्चात् च विविधः कंपे। अभिव्यंजन्त एतस्य नादास्तत्सिद्धि सूचकाः॥

अनाहतमनुच्चार्य शब्द ब्रह्म परं शिवम्। ब्रह्मरधं्र गतेवायौ नादश्चोत्पद्यतेऽनघ॥ शंख ध्वनि निभश्चादो मध्ये मेघध्वनिर्यथा॥

पवने व्यौम सम्प्राप्ते ध्वनि रुत्पद्यते महान्। घण्टादीनाँ प्रवाद्यानाँ ततः सिद्धिरदूरतः॥ –महायोग विज्ञान

भावार्थ यह कि जब अन्तर में ज्योति स्वरूप आत्मा का प्रकाश जागता है तब साधक को कई प्रकार के नाद सुनाई पड़ते हैं। इसमें से एक व्यक्त होते हैं दूसरे अव्यक्त। जिन्हें किसी बाहर के शब्द से उपमा न दी जा सके उन्हें अव्यक्त कहते हैं, यह अन्तर में सुनायी पड़ते हैं और उनकी अनुभूति मात्र होती है। जो घण्टा आदि की तरह कर्णेन्द्रियों द्वारा अनुभव में आवें उन्हें व्यक्त कहते हैं। अव्यक्त ध्वनियों को अनाहत अथवा शब्दब्रह्म भी कहा जाता है।

‘चित्त की चंचलता’ की रोकथाम करने में नादयोग की साधना विशेष रूप से सहायक सिद्ध होती है। नादयोग चंचल मन के निग्रह एवं प्राणों के निरोध में उसी प्रकार सफल सिद्ध होता है जिस तरह सपेरा विषधर चपल सर्प को पकड़ने में। इस अभ्यास में चित्तवृत्ति नाद श्रवण में लीन हो जाती है। फलस्वरूप मन की चंचलता अपने आप रुक जाती है। इससे चित्त में शास्त्र भाव प्रबल होता है और वासना की मादकता से विरक्ति होती चली जाती है। शास्त्रकार इसी तथ्य को स्पष्ट करता है–

बुद्धः सुनाद−गन्धेन सधः संत्यक्त चापलम्। नाद ग्रहणतश्चिन्तमतरंग भुजंगम्॥

विस्मृत्य विश्वमेकाग्र कुत्रचिन्निहि धावति। मदोन्मत्त गजेन्द्रस्य विषयोद्यान चारिणः॥

नियामन समर्थोज्यं निनादो निशिताँकुशः।

अर्थात्– सपेरे की बीन से सुध−बुध खो देने वाले सर्प की तरह नाद साधना से चित्त स्थिर हो जाता है और अपनी चपलताएँ भूल जाता है। वह कहीं दौड़ता भागता नहीं। विषय वासनाओं के उद्यान में मदोन्मत्त गजेन्द्र की तरह विचरण करने वाले मन के नियमन में यह नाद का अंकुश ही समर्थ हैं।


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