प्राणमंथन−प्राणाकर्षण प्राणयोग का प्रथम चरण

March 1982

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ब्रह्माण्ड−व्यापी महाशक्तियों में ग्रहों की गुरुत्वाकर्षण क्षमता सर्वविदित है। आकाश में अवस्थित सभी ग्रह परस्पर इसी आकर्षण शक्ति के आधार पर टिके हुए हैं और गतिशील हैं। यह गुरुत्वाकर्षण आखिर है क्या? इसका सूक्ष्म अन्वेषण करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि यह मूलतः इलेक्ट्रो मैग्नेटिक–विद्युत चुम्बकीय क्षमता का ही रूप है। जो ग्रह−नक्षत्रों की भ्रमणशीलता और आकर्षण शक्ति के उभयपक्षीय प्रयोजन परे करती है। प्रकाश, ताप, ध्वनि विद्युत आदि इसी के विविध स्वरूप हैं पदार्थ में अणुओं की हलचल से लेकर रासायनिक परिवर्तनों का सरंजाम वही जुटाती है। ईथर के ब्रह्माण्ड व्यापी महासागर में इसी विद्युत चुम्बक का आधिपत्य छाया हुआ है। यह शक्ति जड़ नहीं चैतन्य ऊर्जा है जो प्रकृति के सुव्यवस्था और हलचलों का कारण है।

यही विद्युत चुम्बक प्राण है। मनुष्य काया के इर्द−गिर्द फैले तेजोवलय की एक हल्की परत के रूप में उसे देखा जा सकता है। शरीर में जीवन ऊर्जा के रूप में उसका अस्तित्व विद्यमान है। मस्तिष्क की मशीन अद्भुत है, पर वह स्वसंचालित नहीं है। यदि उसकी अपनी सामर्थ्य रही होती तो मृत शरीर का मस्तिष्क भी काम करते रह सका होता, पर ऐसा नहीं होता। प्राण ही है जो मस्तिष्क के चेतन−अचेतन पर छाया रहता, विविध प्रकार की हलचलों के लिए उन्हें प्रेरित करता है। ग्रहों में अपना−अपना आकर्षक होते हुए भी वह उनका निज का उत्पादन नहीं है। ब्रह्माण्ड−व्यापी विद्युत चुम्बकीय क्षमता में से वे अपना−अपना हिस्सा ले लेते हैं। यह सम्मिलित पूँजी है जिससे से विश्व ब्रह्माण्ड के प्रत्येक घटक अपना−अपना हिस्सा पाते और गुजारा करते है। प्राणशक्ति के सम्बन्ध में भी यही बात है। विश्व−व्यापी महाप्राण के विशाल सागर में से पृथ्वी के जीवधारी भी अपनी−अपनी आवश्यकता एवं पात्रता के अनुरूप प्राण का अंश प्राप्त कर लेते हैं। सहज उपलब्ध प्राण का महत्व न समझने के कारण मनुष्य इसे उपेक्षापूर्वक गँवाता है। पर साथ ही यह भी सम्भव है कि वह अपने संकल्प बल का आश्रय लेकर व्यापक प्राणशक्ति में से एक बड़ा भाग अपने लिए उपलब्ध कर लें। प्राणयोग की साधना इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए की जाती है।

प्राण एक ऐसी चैतन्य ऊर्जा है जिसकी मात्रा बढ़ी चढ़ी होने पर मनुष्य के भीतर चमत्कारी प्रभाव देखा जा सकता है। व्यक्तिगत जीवन में दिखायी पड़ने वाला अदम्य साहस, जीवट, उत्साह, तत्परता और दृढ़ता प्राण शक्ति सम्पन्नता का ही परिचय देते हैं। प्रचण्ड संकल्प शक्ति का प्रादुर्भाव प्राण का ही चमत्कार है। इसी के सहारे मनुष्य अनेकानेक कठिनाइयों को चीरते हुए आगे बढ़ता और अपनी मंजिल में जा पहुंचता है। कई शक्ति शारीरिक दृष्टि से समर्थ और मानसिक दृष्टि से सुयोग्य होते है, पर साहस का अभाव होने से कोई महत्वपूर्ण कदम नहीं उठा सकते और प्रायः लोक प्रवाह के साथ बह जाते है। शंका−कुशंकाओं से ग्रस्त रहने आपत्तियों असफलताओं की सम्भावना उन्हें पग−पग पर डराती रहती है। ऐसे व्यक्ति प्रगति के उपयुक्त अवसर सामने होने पर भी उन्हें गँवाते और गई−गुजरी स्थिति में आजीवन पड़े रहते हैं। इसके विपरीत साहसी व्यक्ति स्वास्थ्य, शिक्षा, साधन एवं उपयुक्त अवसर न होने पर भी दुस्साहस भरे कदम उठाते और आश्चर्यजनक असफलताएं प्राप्त करते देखे जाते है। ऐसे ही दुस्साहसी इतिहास में अपना नाम अमर कर जाते हैं। यह साहसिक मनोभूमि आन्तरिक समर्थता प्राण के आधार पर ही विनिर्मित होती है।

भौतिक सफलताएँ ही नहीं आध्यात्मिक प्रगति का आधार भी प्राणशक्ति के आधार पर ही बनता है। साधना को समर कहा गया है। एक ऐसा समर जिसमें स्वयं के शत्रुओं से शुद्ध करना पड़ता है। अनेक योनियों में भ्रमण करते हुए जीव जिन पशु−प्रवृत्तियों का अभ्यस्त होता है उन्हें घटाये−हटाये बिना मानवी गरिमा के अनुरूप गुण, कर्म, स्वभाव का निर्माण नहीं हो सकता। आन्तरिक अवाँछनीयताओं को हटाकर उस स्थान पर उत्कृष्टताओं की स्थापना करने के प्रयोग को साधना कहते हैं। आन्तरिक साहसिकता के बिना इस साधना समर को न ही जीता जा सकता। बाहरी शत्रुओं से लड़ने के लिए जितना युद्ध−कौशल चाहिए उतना ही शौर्य, साहस अपने भीतर घुसे हुए काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद–मत्सर जैसे भीतरी शत्रुओं से लड़ने और परास्त करने के लिए आवश्यक होता है। दुर्बल, मनःस्थिति के लोग अपनी भीतरी कमजोरियों को जानते हैं, उन्हें हटाना चाहते हैं, पर साहस, संकल्प के अभाव में उनसे लड़ने का पराक्रम नहीं कर पाते। फलस्वरूप आत्म−सुधार एवं आत्म−निर्माण का प्रयोजन पूरा नहीं हो पाता। आन्तरिक शत्रुओं पर विजय भी प्राणशक्ति के संचय−अभिवर्धन द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। प्राणयोग की साधना इसीलिए हर साधक के लिए अनिवार्य बतायी गयी है।

शक्ति उत्पन्न करने का एक तरीका प्रख्यात है–घर्षण का। भौतिक जगत में इस प्रयोग से शक्तिशाली उपलब्धियाँ प्राप्त की जाती हैं। आत्मिक क्षेत्र में भी शक्ति संचय के लिए यही प्रक्रिया अपनायी जाती है। प्राणायाम साधना इस घर्षण प्रयोजन के लिए की जाती है। सुनसान जंगलों में कई बार भयंकर आग लगती है और विस्तृत क्षेत्र के वृक्षों को जलाकर खाक कर देती है। यह आग मनुष्यों द्वारा उत्पन्न की गयी अथवा लगायी गई नहीं होती है। वृक्षों की टहनियाँ ही तेज हवा के कारण हिलती और बारम्बार टकराती हैं। आग इसी से पैदा हो जाती है। इस कार्य में बाँस सबसे आगे है। झुरमुट में प्रायः बाँस एक−दूसरे से सटकर उगे रहते हैं। तीव्र हवा के कारण वे रगड़ खा कर पहले गरम होते हैं फिर उनमें से चिनगारियाँ निकलने लगती हैं। यह आग क्रमशः फैलती जाती और दावा नल का स्वरूप धारण कर लेती है। चकमक पत्थर के दो टुकड़ों को रगड़कर आग पैदा करने की विद्या आदिकाल से चली जा रही है। यज्ञ कार्यों में रगड़कर–अरणि मन्थन की क्रिया द्वारा अग्नि पैदा कर ली जाती है।

प्राण−साधना में श्वास−प्रश्वास क्रिया को क्रमबद्ध−लयबद्ध बनाया जाता है, साँस लेने की अव्यवस्था को दूर करके उसे व्यवस्था के बन्धनों में बाँधा जाता है। सामान्यतः श्वास का आवागमन फेफड़ों में तथा अन्य अवयवों में सिकुड़ने−फैलने की हलचल उत्पन्न करता है। उसी से दिल धड़कता तथा रक्त−संचार होता है–माँसपेशियों के आकुंचन–प्रकुंचन का क्रम चलता है। जिस तरह घड़ी के पेन्डुलम का हिलना घड़ी को गतिशील रखने का कारण होता है उसी प्रकार श्वास−प्रश्वास क्रिया को एक प्रकार से समस्त शारीरिक हलचलों का उद्गम केन्द्र कहा जा सकता है। मृत्यु का मोटा ज्ञान श्वास चलना बन्द हो जाने को माना जाता है। साँस को ही जीवन कहा गया है। यह जीवन तत्व वह हवा नहीं है जो धूल कणों अथवा तिनकों को उड़ाती रहती है, पर यह अवश्य है कि प्राण का सूक्ष्म अस्तित्व उसके भीतर विद्यमान है। मोटेतौर पर हवा एक पदार्थ प्रतीत होता है, पर उसकी भीतरी परतों में महत्वपूर्ण चीजें विद्यमान हैं। दूध में घी दिखायी नहीं पड़ता, पर उसमें रहता अवश्य है, उसे विशेष प्रक्रिया अपनाकर निकाला जा सकता है। वनस्पतियाँ बाहर से हरियाली के रूप में दीखती हैं, पर प्रयोगशाला में विश्लेषण करने पर उनमें से प्रोटीन, चूना, चिकनाई, नमक जैसे कितने ही तत्व पाये जाते हैं। इसी प्रकार साँस द्वारा द्वारा शरीर में प्रविष्ट होने वाली हवा मात्र स्पर्श तन्मात्रा वाली प्रकृति की हलचल नहीं है। उसके भीतर कितने ही भौतिक एवं चेतनात्मक तत्व भरे होते हैं जो शरीर मन और मस्तिष्क को परिपुष्ट करते हैं।

विज्ञान वेत्ताओं का मत है कि वायु भूत भौतिक पदार्थ आकाश की सुविस्तृत पोल में भरे पड़े हैं। आत्मवेत्ताओं का कहना है कि वायु शरीर के भीतर एक चेतन शक्ति भरी हुई है–यही प्राण है। जिस तरह साँस में रक्त घुला रहता है उसी प्रकार वायु में प्राण का अस्तित्व विद्यमान रहता है। सामान्यतया वे एकत्रित रहने पर विशेष प्रयत्नों द्वारा उन्हें अलग किया जा सकता है और जिस पदार्थ की आवश्यकता हो उसे प्राप्त किया जा सकता है। ठीक इसी प्रकार वायु में घुले हुए प्राण तत्व को अलग करके खींचा जा सकता और अपने प्राण में सम्मिलित करके अधिक सामर्थ्यवान बनाया जा सकता है।

श्वास−प्रश्वास की सामान्य प्रक्रिया में हवा के फेफड़ों में पहुँचने उससे रक्त को आक्सीजन मिलने तथा भीतर की विषाक्त गैस कार्बन−आक्साइड को बाहर निकालने भर शरीर यात्रा का सीमित प्रयोजन पूरा होता है। इस क्रिया को विशेष ढंग से–विशेष क्रम से किया जाने लगे तो भिन्न प्रकार की मन्थन प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। मन्थन द्वारा दूध में से घी निकलता है। अनेकों वैज्ञानिक प्रयोगों में मंथन प्रक्रिया के द्वारा अणुओं के विकेन्द्रीकरण से अणु विस्फोट जैसी स्थिति उत्पन्न होती देखी जाती है। यह मन्थन क्रिया प्राणायाम की विशेष प्रक्रिया में विशेष में विशेष स्तर की होती है।

घर्षण के चमत्कार पग−पग पर देखे जा सकते हैं। विज्ञानवेत्ता इस तथ्य से भली भाँति परिचित हैं कि शीशे की छड़ एवोनाइट से घिसने पर बिजली उत्पन्न हो जाती है। चलती रेल के पहियों में जब चिकनाई समाप्त हो जाती है अथवा किसी अन्य कारण से घिसाव पकड़ने लगता है तो उससे उत्पन्न होने वाली गर्मी धुरे तक को गला देती है और तब दुर्घटना की स्थिति बन जाती है। आकाश से कभी−कभी प्रचण्ड प्रकाश बिखेरते तारे टूटते दिखायी पड़ते हैं, यह तारे नहीं उसका पिण्ड होते हैं जो धातु अथवा पाषाण के छोटे−छोटे टुकड़े जैसे अन्तरिक्ष में छितराये रहते हैं जो कभी कभी पृथ्वी के वायुमण्डल में आ जाते हैं। प्रचण्ड गुरुत्वाकर्षण तथा हवा के टकराव के कारण वे जल उठते हैं। उनके जाने पर भी प्रकाश निकलता है उसे देखकर तारों के टूटने का अनुमान लगाया जाता है। यह सब घर्षण का ही चमत्कार है। प्राणायाम प्रक्रिया में इसी की विशिष्ट ढंग से दुहराया जाता है। दही मन्थन से रई को रस्सी के दो छोरों के बीच पकड़कर उल्टा−सीधा घुमाया जाता है। फलतः दूध में घुला हुआ घी उभर कर बाहर आ जाता और उभरी सतह पर तैरने लगता है। बांये−दांये नासिका स्वरों से चलने वाले इड़ा−पिंगला विद्युत प्रवाहों का विशेष विधि से मन्थन करने पर दूध बिलोने जैसी हलचल उत्पन्न होती है। फलस्वरूप काय चेतना में भरा हुआ ओजस् उभर कर ऊपर आता है।

काया में संव्याप्त प्राण का मन्थन और उभार प्राणायाम का एक पक्ष है। दूसरा है−अन्तरिक्ष में संव्याप्त प्राण सम्पदा में से अभीष्ट परिमाण में प्राण तत्व को अकर्षित करके भीतर भर लेता। इस तरह प्राणयोग की साधना में दुहरी प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। एक−अपने भीतर के प्राण तत्व का परिमार्जन करना तथा उभारना। दूसरे चरण में चारों ओर बहते हुए प्राण सागर से प्राण तत्व को खींचना और अपने भीतर भरना पड़ता है। प्राणों के भी भेद एवं उपभेद बताये गये हैं तथा शरीर के विभिन्न कार्यों के प्राणों की अलग−अलग भूमिका होती है। आवश्यकता एवं प्रयोग के अनुरूप ही प्राणायाम की विशिष्ट प्रक्रिया अपनायी जाती है। विशेष प्रयोजन के लिए विशिष्ट प्राणायाम साधना द्वारा विशेष प्रकार के प्राण को खींचा और धारण किया जा सकता है।

कहना न होगा प्राणयोग की साधना विधिवत् की जा सके–उत्पन्न प्राण तत्व को धारण किया जा सके तो साधक को मनस्वी, तेजस्वी और ओजस्वी बनने का अवसर मिलता है। यह ऐसी उपलब्धियाँ हैं जिनका अवलम्बन लेकर भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही दिशाओं में आगे बढ़ना सम्भव है भौतिक क्षेत्र में भी देखा जाता है कि जिनमें प्राण का बाहुल्य होता है उनमें प्रभावोत्पादक क्षमता अधिक होती है। अपना इस आकर्षण शक्ति द्वारा वे दूसरों को प्रभावित कर लेते तथा सहयोग प्राप्त कर लेते हैं। यह प्राण शक्ति की ही विशेषता होती है कि महापुरुषों के सान्निध्य में आने बालों का चिन्तन भी उत्कृष्टता की दिशा में चलने लगता है। कितनी बार तो अप्रत्याशित परिवर्तन होते देख जाते हैं। दुष्ट, दुराचारी भी उनकी डडडड प्राप्त करके बदलते, दुष्प्रवृत्ति को छोड़ते और सद्मार्ग पर चलने को विवश हो जाते हैं। यह प्राण ऊर्जा का ही प्रभाव है जो उन्हें जबरन श्रेष्ठता के मार्ग पा घसीट ले चलती है।


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