एकबार रामकृष्ण परमहंस से एक शिष्य ने पूछा–”गुरुदेव! क्या कारण है कि एक मंत्र, एक उपासना प्रक्रिया को अपनाते हुए भी एक चमत्कारी सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है, ऋद्धियों, सिद्धियों का स्वामी बन जाता है जबकि दूसरे को कोई विशेष लाभ नहीं मिल पाता?” परमहंस ने उत्तर में एक कथा सुनायी जो इस प्रकार थी– ‘‘किसी राज्य के मन्त्री ने अपने जप, तप से विशेष आध्यात्मिक शक्ति अर्जित करली। उसकी चमत्कारी विशेषताओं की सूचना राजा को मिली। राजा ने मन्त्री को बुलाकर रहस्य पूछा तो उसने बताया, यह सब गायत्री मन्त्र की उपासना का चमत्कार है। इसकी उपासना, साधना द्वारा सब प्रकृति प्राप्त कर सकना सम्भव है। राजा ने भी मन्त्र और सम्बन्धित विधि-विधान पूछा और उपासना करने लगे। एक वर्ष तक वे जप करते रहे। पर उन्हें वह उपलब्धियाँ नहीं प्राप्त हो सकीं जो मन्त्री को हुई थीं। निराश होकर एक दिन मन्त्री को बुलाकर कारण पूछा। मन्त्री ने उत्तर देने के बदले राज्य के एक किशोर लड़के को बुलाया और कहा–बेटे! राजा के गाल पर एक चपत लगाओ। अपनी आज्ञा को मन्त्री ने बार-बार दुहराया, पर बालक अपने स्थान से टस से मस नहीं हुआ। मन्त्री की धृष्टता एवं उद्दण्डता को देखकर राजा का चेहरा तमतमा उठा। उसने लड़के को कड़े स्वर में निर्देश दिया–” इस मन्त्री को दो चपत लगाओ” लड़के ने तुरन्त दो चपत जड़ दिए। राजा का चेहरा अभी भी क्रोध के आवेश में तमतमा रहा था।
मन्त्री ने नम्रता से उत्तर दिया, “राजन! धृष्टता क्षमा करे। यह सब आपके समाधान के लिए किया गया था। आपके प्रश्न का यही उत्तर है। वाणी से कही बात अधिकारी पात्र की ही मानी जाती है। मन्त्र जप से चमत्कार पात्रता विकसित होने पर ही आता है।”
इस कथा को सुनाने के बाद रामकृष्ण परमहंस ने कहा–”उपासना का–मन्त्र जप का–चमत्कारी प्रतिफल उन्हें ही मिल पाता है जिन्होंने अपने गुण, कर्म, स्वभाव को परमात्मा के अनुरूप ढाल लिया हैं।”
सन्त ज्ञानेश्वर में जहाँ ज्ञान, विवेक, सदाशयता एवं सहिष्णुता की लौकिक विशेषताएँ दिखायी पड़ती थीं वहीं अलौकिक स्तर की ऋद्धि-सिद्धियों एवं चमत्कारों झाँकी भी मिलती थी। एक महिला उनकी इन उपलब्धियों से विशेष प्रभावित होकर साधना करने लगी। प्रकृति समय तक उपासना करने के बाद जब उसे कोई विशेष उपलब्धि नहीं हुई तो वह सन्त के पास जाकर बोली देव! भगवान भी बड़ा पाती है। वह किसी-किसी को तो ऋद्धि-सिद्धियों का स्वामी बना देता है और किसी को प्रकृति भी नहीं देता हैं। सन्त ज्ञानेश्वर मुस्कराये और बोले–”बहिन। ऐसा नहीं है। भगवान विशिष्ट विभूतियाँ सत्पात्रों को देता है। पात्रता विकसित करके हर कोई उन्हें प्राप्त कर सकता हैं।” तो इसमें भगवान की क्या विशेषता रहीं? उसे तो सबको समान अनुदान देना चाहिए,” महिला ने प्रति-प्रश्न किया। सन्त उस समय तो चुप रहे, पर दूसरे ही दिन उन्होंने प्रातःकाल मुहल्ले के एक मूर्ख व्यक्ति को उस महिला के पास यह कहकर भेजा कि उससे सोने का आभूषण माँग लाओ।
मूर्ख ने जाकर आभूषण माँग। पर उस महिला ने झिड़ककर उसे बिना आभूषण दिए ही भगा दिया। थोड़ी देर बाद सन्त ज्ञानेश्वर स्वयं उस स्त्री के पास पहुँचे और बोले ‘आप एक दिन के लिए अपने आभूषण दे दें। आवश्यक काम करके लौटा देंगे। महिला ने बिना कोई प्रश्न पूछे सन्दूक खोला और सहर्ष अपने कीमती आभूषण सन्त को सौंप दिए। आभूषण हाथ में लिए ही सन्त ने पूछा ‘अभी-अभी जो दूसरा व्यक्ति आया था उसे आभूषण क्यों नहीं दिए। स्त्री बोली ‘उस मूर्ख को आभूषण कैसे दे दें? सन्त ज्ञानेश्वर बोले ‘बहिन! जब आप सामान्य से आभूषण बिना सोचे विचारे कुपात्र को नहीं दे सकती हैं तो फिर परमात्मा अपने दिव्य अनुदानों को कुपात्रों को कैसे दे सकता हैं। वह तो बारम्बार इस बात की परीक्षा करता है कि जिसको अनुदान दिया जा रहा है उसमें पात्रता है अथवा नहीं?
पात्रता के अभाव में साँसारिक जीवन में भी कहाँ किसी को प्रकृति विशेष उपलब्ध हो पाता हैं? अपना सगा होते हुए भी एक पिता मूर्ख गैर जिम्मेदार पुत्र को अपनी विपुल सम्पत्ति नहीं सौंपता। विशिष्ट सरकारी सेवाओं में चयन योग्यता की कसौटी पर खरे उतरने वालों का ही होता है। कोई भी व्यक्ति निर्धारित कसौटियों पर खरा उतरकर विशिष्ट स्तर की सफलता अर्जित कर सकता है। मात्र माँगते रहने से प्रकृति नहीं मिलता, हर उपलब्धि के लिए मूल्य चुकाना पड़ना है। बाजार में विभिन्न तरह की वस्तुएँ दुकानों में सजी होती हैं, पर उन्हें कोई मुफ्त में कहाँ प्राप्त कर पाता है? अनुनय−विनय करने वाले तो भीख जैसी नगण्य उपलब्धि ही करतलगत कर पाते हैं। पात्रता के आधार पर शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय आदि क्षेत्रों में भी विभिन्न स्तर की भौतिक उपलब्धियाँ हस्तगत करते सर्वत्र देखा जा सकता है।
अध्यात्म क्षेत्र में भी यही सिद्धान्त लागू होता है। भौतिक क्षेत्र की तुलना में अध्यात्म के प्रतिफल कई गुने अधिक महत्वपूर्ण सामर्थ्यवान और चमत्कारी हैं। किन्हीं-किन्हीं महापुरुषों में उन चमत्कारी विशेषताओं को देख एवं सुनकर हर व्यक्ति के मुँह में पानी भर आता है तथा उन्हें प्राप्त करने के लिए मन ललचाता है, पर अभीष्ट स्तर का आध्यात्मिक पुरुषार्थ न कर पाने के कारण उस ललक की आपूर्ति नहीं हो पाती। पात्रता के अभाव में अधिकाँश को दिव्य आध्यात्मिक विभूतियों से वंचित रह जाना पड़ता है जबकि पात्रता विकसित हो जाने पर बिन माँगें ही वे साधक पर बरसती हैं। उन्हें किसी प्रकार का अनुनय-विनय नहीं करना पड़ता है। दैवी शक्तियाँ परीक्षा तो लेती हैं, पर पात्रता की कसौटी पर खरा सिद्ध होने वालों को मुक्त हस्त से अनुदान भी देती हैं। मिलता उन्हें ही है जो लौकिक कामनाओं, ऐषणाओं से मुक्त हैं, निस्पृह और उदार हैं। जिनका हृदय दया-करुणा से अनुप्राणित है। मातृवत् परदारेषु, आत्मवत् सर्वभूतेषु, की आस्था को जिन्होंने साकार कर लिया है। ऐसों पर ऋद्धि-सिद्धियों की वर्षा अपने आप देव शक्तियाँ करती हैं।
यह सच है कि अध्यात्म का–साधना का चरम लक्ष्य सिद्धियाँ–चमत्कारों की प्राप्ति नहीं हैं, पर जिस प्रकार अध्यवसाय में लगे छात्र को डिग्री की उपलब्धि के साथ-साथ बुद्धि की प्रखरता का अतिरिक्त अनुदान सहज ही मिलता रहता है, उसी तरह आत्मोत्कर्ष की प्रचण्ड साधना में लगे साधकों को उन विभूतियों का भी अतिरिक्त अनुदान मिलता रहता है जिसे लोक-व्यवहार की भाषा में सिद्धि एवं चमत्कार के रूप में जाना जाता है। पर चमत्कारी होते हुए भी ये प्रकाश की छाया जैसी ही हैं। प्रकाश की ओर चलने पर छाया पीछे-पीछे अनुगमन करती हैं। अन्धकार की दिशा में बढ़ने पर छाया आगे आ जाती है, उसे पकड़ने का प्रयत्न किया तो भी पकड़ में नहीं आती। इसी प्रकार प्रकाश अर्थात् दिव्यता की ओर–श्रेष्ठता की ओर परमात्म पथ की ओर बढ़ने पर छाया अर्थात् ऋद्धि-सिद्धियों साधक के पीछे-पीछे चलने लगती हैं। इसके विपरीत उन्हीं की प्राप्ति को लक्ष्य बनाकर चलने पर तो आत्म-विकास की साधना से वंचित बने रहने से वे पकड़ में नहीं आतीं।
दिव्यता की ओर बढ़ने का अर्थ है–अपने गुण, कर्म, आचरण में देवतत्व प्रकट होने लगे। इच्छाएँ, आकाँक्षाएँ देवस्तर की बन जांय। संकीर्णता, स्वार्थपरता हेय और तुच्छ लगने लगे। समष्टि के कल्याण की इच्छा एवं उमंग उठे और उसी में अपना भी हित दिखायी दे। दूसरों का कष्ट, दुःख अपना ही जान पड़े और उनके निवारण के लिए मन मचलने लगे। सभी मनुष्य समस्त प्राणी अपनी ही सत्ता के अभिन्न अंग लगने लगें। आत्म विकास की इस स्थिति पर पहुँचे हुए साधक की, ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ सहचरी बन जाती हैं। पर इन अलौकिक विभूतियों को प्राप्त करने के बाद वे उनका प्रयोग कभी भी अपने लिए अथवा संकीर्ण स्वार्थों के लिए नहीं करते। संसार के कल्याण के लिए ही वे उन शक्तियों का सदुपयोग करते हैं।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस को कितनी ही चमत्कारी विभूतियाँ प्राप्त थीं। पर उन्होंने कभी भी उनका प्रयोग व्यक्तिगत कार्यों के लिए नहीं किया। प्रख्यात है दूसरों के दुःख-दर्द मिटाने में कितनी ही बार उन्होंने अपनी शक्ति का प्रयोग किया। असाध्य रोगी से पीड़ित रोगियों को भी कईबार चमत्कारी लाभ मिला। वे स्वयं गले के कैंसर से परेशान थे। मर्मान्तक पीड़ा गले में होती रहती थी। एकबार उनके पास शशिधर चूड़ामणि नामक एक व्यक्ति पहुँचे। उन्होंने कहा–”आप समर्थ हैं, चाहें तो अपने संकल्पशक्ति का प्रयोग करके अपने रोग को अच्छा कर सकते हैं।” परमहंस बोले–”ईश्वरीय कार्यों के लिए मिली शक्ति का उपयोग अपने इस नश्वर शरीर के लिए करूं इससे बढ़कर दुःखी की बात दूसरी नहीं होगी। यह सृष्टी के विधान का उल्लंघन हैं।”
जगत गुरु आद्य शंकराचार्य यौगिक सिद्धियों–विभूतियों से परिपूर्ण थे। दीन-दुःखियों को उनकी अलौकिक विशेषताओं का लाभ भी मिलता रहता था। वे स्वयं भगन्दर रोग से ग्रसित थे। धर्म प्रचार के लिए उन्हें अनवरत यात्रा करनी पड़ती थी। तब परिवहन और यात्रा की आज जैसी सुविधा भी नहीं थी। पैदल ही चलकर लम्बी दरिया तय करनी पड़ती थीं। ऐसे में भगन्दर की पीड़ा मृत्यु जैसी कष्ट देती थी। स्वयं कष्ट सहते रहे, पर उन्होंने कभी उस के निवारण के लिए प्राप्त दैवी शक्तियों का उपयोग नहीं किया।
अपने स्वयं के प्रति कठोर होते हुए भी महापुरुष समाज, देश एवं मानव मात्र के हित के लिए इन सम्पदाओं का उदारतापूर्वक उपयोग करते देखे जाते हैं। उन दिनों स्वामी विवेकानन्द इंग्लैंड में थे। जमशेद जी राय भी उद्योग की तकनीकी जानकारियाँ प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड के विशेषज्ञों से परामर्श लेने गये थे। उन्हें भारत में एक ऐसे स्थान की खोज थी जहाँ कि स्टील उद्योग के लिए प्रचुर परिमाण में कोयला एवं पानी की मात्रा उपलब्ध हो। लक्ष्य था, देश की समृद्धि बनाना। कार्य अत्यन्त कठिन था। भूगर्भ में दबी सम्पदा का परिचय दे सकना किसी अतीन्द्रिय सामर्थ्य सम्पन्न व्यक्ति द्वारा ही सम्भव था। इंग्लैंड में ही उन्हें सूचना मिली कि स्वामी विवेकानन्द उद्बोधन देने के लिए आये हैं। उनकी ख्याति टाटा ने पहले ही सुन रखी थी। अविलम्ब स्वामी जी के पास पहुँचे तथा सहज एवं निर्मल भाव से अपना मन्तव्य स्पष्ट किया। स्वामी जी की पैनी दृष्टि ने टाटा का परमार्थ भाव स्पष्ट देख लिया। उन्होंने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से टाटा को बिहार के वर्तमान जमशेदपुर स्थान का पता बताया। उल्लेखनीय है कि यह स्थान स्टील उद्योग के विकास में सर्वाधिक सहायक सिद्ध हुआ।
उपासना मार्ग पर आरुढ़ साधकों को दिव्य-अलौकिक शक्तियाँ भी मिलती हैं, पर उनके मिलने का आधार एक ही हैं–उपासना के साथ-साथ अपनी पात्रता का विकास करना। पात्रता अर्थात् अपने व्यक्तित्व को दैवी गुणों–देवत्व से परिपूर्ण बनाना। यह सम्भव हो सके तो वे विभूतियाँ अपने आप सहचरी बन सकती हैं जिन्हें विभूतियों एवं चमत्कारों के रूप में जाना जाता हैं।