अन्तः को ज्योतिर्मय-विभूतिवान बनाने वाली बिन्दु योग साधना

March 1982

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दिव्य दृष्टि जागरण के लिए की जाने वाली साधनाओं में त्राटक प्रमुख है। इसे बिन्दुयोग भी कहा गया है। भटकाव से रोककर बाह्य एवं अंतर्दृष्टि को किसी बिन्दु विशेष अर्थात् लक्ष्य विशेष पर एकाग्र करने की साधना को बिन्दुयोग कहते हैं। त्राटक साधना में बाह्य नेत्रों एवं स्थूल साधनों–मोमबत्ती, दीपक, सूर्य आदि का प्रयोग कि या जाता है। इसलिए उसकी गणना स्थूल उपचारों में की गई है। बिन्दुयोग में ध्यान धारणा के सहारे किसी इष्ट आकृति पर अथवा प्रकाश की ज्योति पर एकाग्रता का अभ्यास किया जाता है। दोनों का अन्तर मात्र भौतिक साधनों के प्रयोग करने की आवश्यकता रहने न रहने का है। आरम्भिक अभ्यास बाह्य त्राटक के बिना नहीं बन पाता। बिन्दुयोग साधना की स्थिति इसके बाद बनती है जिसमें बाह्य त्राटक की आवश्यकता नहीं रहती। कहीं-कहीं इस अन्तर के कारण त्राटक साधना को बाह्य त्राटक तथा अन्तःत्राटक के रूप में भी निरूपित किया गया है।

त्राटक के अभ्यास की अनेकों विधियाँ है। मैस्मरेज्म-हिप्नोटिज्म के अभ्यासी सफेद कागज पर काला गोला बनाते हैं। उसके मध्य में श्वेत बिन्दु अवशेष रहने देते हैं। इस बिन्दु पर नेत्र दृष्टि एवं मानसिक एकाग्रता को केन्द्रित किया जाता है। अष्ट धातु के बने तश्तरीनुमा पात्र के मध्य ताँबे की कील लगाकर उस मध्य बिन्दु पर दृष्टि को केन्द्रित करने का भी लगभग वैसा ही लाभ बताया गया है। पर मैस्मरेज्म का लक्ष्य एकाग्रता सम्पादन तथा बेधक दृष्टि प्राप्ति के भौतिक प्रयोजन तक ही सीमित है। इसलिए इस अभ्यास से वह लाभ नहीं मिल पाता जो त्राटक के–बिन्दुयोग के बताये गये हैं।

भारतीय योग शास्त्रों के अनुसार त्राटक के अभ्यास में चमकते प्रकाश का उपयोग करना श्रेष्ठ माना गया है। सूर्य, चन्द्रमा, तारे अथवा दीपक के प्रकाश साधनों का प्रयोग में लाने का विधान है। सूर्य की ज्योति अत्यन्त तीव्र होती है। खुले नेत्रों से उसे देरी तक देखते रहने से हानि भी हो सकती है इसलिए सूर्य त्राटक मात्र ध्यान द्वारा ही किया जा सकता है। चन्द्रमा के सम्बन्ध में भी यही बात है। उसका प्रकाश तेज तो नहीं होता पर शरीर शास्त्रियों के अनुसार किसी भी प्रकाश को लगातार देखते रहना हानिकारक माना है। तारों को प्रकाश का माध्यम बनाकर बाटक करने में कठिनाई यह है कि वे मात्र रात्रि को ही दिखायी पड़ते हैं। बदली कुहरा, धुन्ध आदि छा जाने पर तो रात्रि में भी नहीं दिखायी देते। दूसरी असुविधा यह पड़ती है कि आकाश में अनेकों तारे होने से ध्यान बंटता है। फलतः एकाग्रता का लाभ नहीं मिल पाता है। त्राटक के लिए एक बिन्दु ही उपयुक्त पड़ता है। करने को तो अभ्यास इनके माध्यम से भी किया जा सकता है, पर प्रकृति सेकेंडों से अधिक इन प्रकाश केन्द्रों को नहीं देखना चाहिए।

त्राटक साधना के लिए धृत दीपक सर्वश्रेष्ठ है। पर घृत होना शुद्ध चाहिए। मिलावटी या नकली धी की अपेक्षा शुद्ध चाहिए। मिलावटी या नकली धी की अपेक्षा शुद्ध सरसों आदि का तेल प्रयोग करना अधिक उत्तम है। इनके अभाव में मोमबत्ती का भी प्रयोग किया जा सकता है। त्राटक के लिए प्रातःकाल का समय अधिक उपयुक्त है, पर रात्रि को भी अभ्यास किया जा सकता है। दिन में कठिनाई यह पड़ती है कि सर्वत्र सूर्य का प्रकाश फैला रहने से यह साधना ठीक प्रकार बन नहीं पाती। दिन में यदि करना ही हो तो कमरे में ऐसी व्यवस्था बनाना चाहिए कि कृत्रिम अन्धेरा पैदा हो जाय।

अभ्यास में जलता दीपक साधक की छाती की सीध में लगभग पाँच फुट का दूरी पर अवस्थित होना चाहिए। साधना के लिए कमर सीधी, दोनों हाथ गोदी में तथा ध्यान मुद्रा में बैठना चाहिए। नेत्र अधखुले हों। वातावरण में घुटन, दुर्गन्ध, मक्खी, मच्छर जैसे चित्त में विक्षोभ उत्पन्न करने वाले तत्व न हों। खुले नेत्रों से दीपक अथवा मोमबत्ती की लौ को पाँच सेकेंड देखना, इसके बाद आँखें बन्द करके भूमध्य भाग में उसी प्रकाश आलोक को ज्योतिर्मय देखना। जब वह ध्यान आलोक शिथिल पड़ने लगे तो फिर नेत्र खोलकर पाँच सेकेंड प्रकाश दीप को देखना और फिर आँखें बन्द करके पूर्ववत् भ्रूमध्य भाग में प्रज्वलित ज्योति का ध्यान करने लगना। यही है। त्राटक साधना का क्रिया पक्ष। जिसका आरम्भ दस मिनट से किया जा सकता है तथा अभ्यास क्रम को क्रमशः एक-एक मिनट प्रतिदिन के हिसाब से बढ़ाते हुए आधे घण्टे तक पहुँचाया जा सकता है। ध्यान के समय आँखें खोलकर दीपक की ज्योति को देखने का प्रयास एक-एक मिनट के अन्तर से करना चाहिए। मिनटों एवं सेकेंडों का सही-सही अनुमान बिना घड़ी के कर पाना तो ठीक-ठीक सम्भव नहीं है, पर अनुमान के आधार पर ही यह क्रम चलाना पड़ता है क्योंकि घड़ी बार-बार देखने से ध्यान की एकाग्रता भंग होती और अभीष्ट परिमाण में ध्यान का लाभ नहीं मिल पाता।

आमतौर से नेत्र खोलकर दीपक की ज्योति को देखने के उपरान्त जब पलक बन्द किये जाते हैं तो ध्यान में प्रकाश अधिक स्पष्ट रहता है, पर धीरे-धीरे वह धुँधला पड़ने लगता है उसे फिर से सतेज करने के लिए ज्योति को देखने की आवश्यकता पड़ती है। हर व्यक्ति की मस्तिष्कीय संरचना अलग-अलग होने के कारण ज्योति को देखने की आवश्यकता भिन्न-भिन्न तरह की हो सकती है। किसी को एकबार प्रकाश का दर्शन कर लेने से उसकी झाँकी देरी तक बनी रहती है। किसी की स्मृति जल्दी ही धुँधली पड़ जाती है। उन्हें शीघ्र ही ज्योति देखना पड़ता है। हर व्यक्ति को अपना निरीक्षण स्वयं करना चाहिए तथा उसके अनुसार आँख खोलने तथा बन्द करने की समयावधि का निर्धारण करना चाहिए। प्रमुख उद्देश्य यही है कि त्राटक साधना काल में ध्यान भूमिका को निरन्तर प्रकाश की झाँकी मिलती रहे।

योग रसायन में त्राटक के विधान एवं प्रगति क्रम पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है–

दृश्यते प्रथमाभ्यासे तेजो बिन्दु समीपगम्। चक्षुषो रश्मि जातानि प्रसरंति समंततः॥

अर्थात्–” त्राटक के अभ्यास से प्रथम तेजोमय बिन्दु पास आया दीखेगा। फिर नेत्रों से रश्मियाँ निकलती दिखेंगी।”

तेजसा संवृतं लक्ष्यं क्षणं लुप्तं भवेन्ततः। क्षणं दृष्टिगतं भत्वा पुनर्लुप्तः भवेत्क्षणात्॥

अर्थात्–”फिर वह तेजपूर्ण बिन्दु कभी लुप्त दीखेगा, कभी प्रकट हुआ। ऐसा क्रम बार-बार चलेगा।”

दृष्ट्या सयंमनश्चापि लक्ष्यस्थाने प्रवेशयेत्। लक्ष्यं विहाय नैवान्यच्चिंतथेन्नावलोकयेत्॥

अर्थात्–”मन भी उसी ओर लगा रहे। लक्ष्य के अतिरिक्त प्रकृति न देखें न सोचें।

अन्तःत्राटक के अभ्यास में बाह्य उपकरणों का अवलम्बन छोड़ना पड़ता है तथा प्रकाश धारण की भाव भूमिका में प्रवेश करना होता है। आरम्भ में प्रकृति समय प्रकाश की स्थापना वहीं रहने देनी चाहिए जहाँ उसे देखा गया हो। प्रभातकालीन स्वर्णिम सूर्य को सुदूर पूर्व में उगते हुए अथवा दीपक के प्रकाश को जहाँ देखा गया था, आरम्भिक दिनों में उन्हें वहीं सूक्ष्म दृष्टि से देखना चाहिए। भावना यह करनी चाहिए कि उस प्रकाश पुञ्ज की ज्योति किरणें अन्तरिक्ष से होकर उतरती हैं और अपनी उत्कृष्टता से स्थूल शरीर में ज्ञान एवं कारण शरीर में भाव बनकर प्रवेश करती हैं। फलतः शरीर संयमी, सक्रिय एवं स्वच्छ बनता है। मन में वे किरणें विवेक, सन्तुलन, सद्ज्ञान बनकर बरसती हैं। कारण शरीर में अन्तःकरण में सद्भावना, सम्वेदना, श्रद्धा भक्ति के रूप में उन प्रकाश किरणों का अवतरण होता है जिसके कारण समूचा व्यक्तित्व ही दिव्य प्रकाश से– ब्रह्मज्योति से जगमगाने लगता है।

अन्तःत्राटक का यह प्राथमिक चरण है जिसमें बाहर से भीतर की ओर ज्योति प्रविष्ट होने की भावना परिपुष्ट करनी पड़ती है। यह स्थिति अधिक परिपक्व होने पर ही प्रकाश की स्थापना भीतर की जाती है। फलस्वरूप उस आत्म ज्योति की–ब्रह्म ज्योति की आग भीतर से निकलकर बाहर प्रकाशवान् होती है। बल्ब का फिलामेन्ट भीतर तो ज्योतिर्मय होता ही है–अपनी आभा से समीपवर्ती क्षेत्र को भी प्रकाशित करता है। अन्तःज्योति के प्रज्वलित होने पर लगभग ऐसी ही स्थिति बन जाती है। अन्तः त्राटक के परिपूर्ण देखता है साथ ही उस प्रकाश से अपने प्रभाव क्षेत्र को भी आलोकित करता है।

अन्तः त्राटक में भाव पक्ष की प्रधानता है यह जितना ही परिपुष्ट होगा, अनुभूतियाँ उतनी ही संजीव होगी। अभ्यास अवधि में भ्रूमध्य में प्रदीप्त ज्योति का के कण−कण में, रोम−रोम में प्रकाश आलोक की आभा प्रदीप्त हो रही है। शरीर के किसी कोने में भी अन्धकार का अस्तित्व नहीं रहा उसे पूर्णतया बहिष्कृत कर दिया गया। त्राटक साधना में प्रत्येक तन्तु एवं कोशिका को आलोकित देखा जाता है। मस्तिष्क के चार परत माने गये है–मन, बुद्धि, चित, अहंकार, इन चारों को प्रकाश पुँज बना हुआ अनुभव किया जाता है। जिस प्रकार सूर्योदय होने से अन्धकार का हर दिशा से पलायन होने लगता है उसी तरह अपनी सत्ता के प्रत्येक पक्ष को भ्रूमध्य केन्द्र से निकलने वाले प्रकाश प्रवाह से आलोकित अनुभव करने की भावना करनी पड़ती है। बिन्दुयोग की अन्तःत्राटक की साधना परिपक्व होकर जीवन सत्ता के कण−कण में प्रकाश उद्भव की संजीव अनुभूति तो कराती ही है, साथ ही उसकी प्रत्यक्ष अभिनव हलचलें शारीरिक मानसिक एवं आत्मिक धरातल में उभरती दृष्टिगोचर होती है।

प्रकाश शब्द अध्यात्म की भाषा में जिस अर्थ में प्रयुक्त होता है उसका अभिप्राय बिजली की चमक से नहीं है वरन् ज्ञान और क्रिया में सम्मिश्रित उल्लास भरी भाव तरंगों से होता है। सामान्यतया पंच भौतिक जगत में गर्मी और रोशनी के सम्मिश्रण को प्रकाश कहा जाता है। किन्तु अध्यात्म क्षेत्र में गर्मी का अर्थ सक्रियता और प्रकाश का अर्थ दूरदर्शी विवेकशीलता, उत्कृष्टता से भरे सद्ज्ञान के रूप में किया जाता है अस्तु साधना क्षेत्र में प्रकाश की प्राप्ति की चर्चा जहाँ कहीं भी होगी उसका अर्थ भौतिक ताप एवं रोशनी देने वाले प्रकाश से नहीं होगा। उसका अभिप्राय अधिक गहरा है। आत्मोत्कर्ष की भूमिका आध्यात्मिक प्रकाश अर्थात् विवेकयुक्त सक्रियता अपनाने पर ही निर्भर है। भौतिक गर्मी या रोशनी से वह महान प्रयोजन नहीं पूरा हो सकता।

त्राटक की भाव भूमिका में अन्तःकरण के प्रकाशवान होने की भावना प्रबल करनी होती है। दिव्य चेतना की किरणें काय−कलेवर की प्रत्येक परत पर प्रतिबिम्बित हो रही हैं। विवेक की आभा फूट रही है जिसके प्रकाश में सतोगुणी तत्व झिलमिला रहे हैं। सत्साहस प्रखर प्रचण्ड बनकर सक्रियता की ओर अग्रसर हो रहा है। अज्ञान के आवरण कट रहे हैं। भ्रमित करने वाले डराने वाले दुर्भाव एवं संकीर्ण विचार अपनी काली चादर समेटकर चलते बने। प्रकाश से युक्त श्रेय पथ पर चल पड़ने का शौर्य प्रबल हो जाने से अशुभ चिन्तन के दुर्दिन चले गये। सर्वत्र उल्लास एवं आनन्द आलोकित हो रहा है। ईश्वरीय बनकर शरीर में सत्प्रवृत्ति और मन की सद्भावना बनकर ज्योतिर्मय हो चला। अँधेरे में भटकाने वाली काली निशा का अन्त हो गया। भगवान की दिव्य ज्योति ने समूची जीव सत्ता पर अपना आधिपत्य जमा लिया–अपनी दिव्यता से अन्तरात्मा को अनुप्राणित कर दिया। उपरोक्त भावनाओं को त्राटक का अभ्यास करते समय हर साधक को परिपक्व परिपुष्ट बनाने का प्रयत्न करते रहना चाहिए।

त्राटक की साधना से अन्ततः दिव्यदृष्टि खुलती और ज्योतिर्मय बनती है। यह एक ऐसी उपलब्धि है जिसके आधार पर अन्तःक्षेत्र में दबी हुई रत्न राशि को खोजा और पाया जाता है तथा देश एवं काल की स्थूल परिसीमाओं को लाँघकर अविज्ञात और अदृश्य का रहस्यमय ज्ञान प्राप्त करना सम्भव है।


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