अध्यात्म उपचारों की वैज्ञानिक साक्षी एवं ब्रह्मवर्चस् के प्रयास

March 1982

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अन्तःकरण का मनःसंस्थान पर, मनःसंस्थान का शारीरिक स्थिति पर, शारीरिक स्थिति का क्रिया-कलाप पर और क्रिया-कलापों का परिस्थिति पर असाधारण प्रभाव पड़ता है। इस रहस्य को समझा जा सके तो वह स्वीकार करने में किसी को भी कठिनाई का सामना न करना पड़ेगा कि मनुष्य अपने भाग्य का विधाता आप है। मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है, इस तथ्य को भलीभाँति हृदयंगम किया जा सके तो फिर जिस-तिस पर दोषारोपण की आवश्यकता ही न रह जायेगी। फिर परिस्थितियों की प्रतिकूलता को भी उतना दोषी न ठहराया जा सकेगा जितना कि बात-बात में इन दिनों जन साधारण द्वारा किया जा रहा है। सारी असफलताओं और कठिनाइयों के लिये इन्हीं परिस्थितियों को दोषी ठहराने वालों को फिर अभागा ही कहा जायेगा।

अध्यात्म का तात्पर्य है–अपने आपे का स्वरूप समझने, उसे बलिष्ठ विकसित करने की विद्या। यही है उसका उद्देश्य एवं प्रयोगोपचार। विडम्बना यह है कि इन दिनों उसे बाह्योपचारों–पूजा कर्मकाण्ड आदि के माध्यम से अमुक देवी-देवता को वशवर्ती बनाकर चित्र−विचित्र मनोकामनाओं की पूर्ति जादूई ढंग से करा लेने की कल्पना जल्पना भर माना जाता है। पर इससे क्या? भ्रान्तियाँ मात्र भटकाव उत्पन्न कर सकती हैं। उनसे प्रकृति प्रयोजन थोड़े ही सधता है। जिन्हें भी आत्म विज्ञान में तात्विक अभिरुचि है, उन्हें यही समझना होगा कि आत्मनिर्माण के लिये किया गया पुरुषार्थ ही उलझी हुई समस्याओं का समाधान है। इस पुरुषार्थ के लिए आत्मावलम्बन-आत्मविश्वास और आत्मानुभूति की दार्शनिक पृष्ठभूमि होनी चाहिए।

आत्मबोध को मानव जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि माना गया है। इसी के आधार पर मनुष्य अपनी सत्ता, महत्ता, क्षमता एवं सम्भावना का मूल्याँकन कर सकने में समर्थ होता हैं। इसी अनुभूति के साथ वह पराक्रम शीलता उभरती है जिसके सहारे व्यक्ति अपने जन्म-जन्मान्तरों से संचित कुसंस्कारों को समझता, उनकी हानियों को अनुभव करता तथा उन्हें उखाड़ने के लिये कृत संकल्प हो जाता है। वस्तुतः इस उखाड़-पछाड़ने की प्रक्रिया–अपने आप से संघर्ष में जितना पराक्रम लगता है उतना ही अनगढ़ मन को उत्कृष्टता के पक्षधर अनभ्यस्त आधारों को अपनाने के लिये मनाने व स्वभाव का अंश बना लेने की मंजिल पूरी करने में नियोजित करना पड़ता है। अपने हाथों अपने आपको ढालना बहुत बड़ा काम है। दिखने में सामान्य यह पुरुषार्थ एक असाधारण आत्मबल संकल्प शक्ति का सम्पादन चाहता है। इस आत्मबल की प्राप्ति-उसे धारण करने की सामर्थ्य की उपलब्धि तथा तदुपरान्त अभिवर्धन करने के लिये ही विभिन्न तप साधनाओं की आवश्यकता पड़ती हैं।

आर्ष ग्रन्थों में वर्णित तप तितिक्षाओं चांद्रायण जैसी कठोर तपश्चर्याओं, ध्यानयोग-प्राणयोग की साधनाओं कुसंस्कार उन्मूलन तथा सुसंस्कारिता संवर्धन–आत्मपरिष्कार के द्विविधि प्रयोजन साथ-साथ पूरे होते रह सकें। इन्हें परम्परागत धर्मानुष्ठानों से अलग ही माना जाय। इन उपचारों के पीछे ऐसे तथ्यों का समावेश है जिनका प्रतिफल उज्ज्वल भविष्य के निर्धारण में असाधारण रूप से सहायक सिद्ध हो सके। ये साधना उपक्रम मूलतः आस्था परक हैं। इनमें श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा को प्रभावित करने वाली, अन्तराल को उत्कृष्टता के साथ जोड़ देने वाली क्रिया-प्रक्रिया का समावेश अत्यन्त दूरदर्शिता एवं एक तत्वान्वेषी सूक्ष्म बुद्धि के साथ किया गया है।

आज तो परिस्थितियों को ही सब प्रकृति मानने वाले-साधनों को ही सौभाग्य समझने वाले लोगों को नये सिरे से अध्यात्म की वर्णमाला पढ़ानी पड़ेगी और सिद्ध करना पड़ेगा कि परिस्थितियाँ एवं सम्पन्नताएँ मानवी प्रगति की आवश्यकता का एक बहुत छोटा अंश पूस करती हैं। समस्त विभूतियों का उद्गम तो मानवी अन्तराल है। उसे सम्भाला, सुधारा जा सके तो सुखद सम्भावनाओं का स्रोत हाथ लग जायेगा और फिर किसी बात की कमी न रहेगी। पाताल फोड़ कहे जाने वाले कुंओं को चट्टान के नीचे वाली जलधारा का अवलम्बन मिलता है। फलतः निरन्तर पानी खींचते रहने पर भी उनकी सतह घटती नहीं जितना खर्च होता है उतना ही उछलकर ऊपर आ जाता है।

मनुष्य को अनेक क्षेत्रों में काम करना पड़ता है। इसके लिये अनेक प्रकार की शक्तियों की आवश्यकता पड़ती है। स्वास्थ्य संवर्धन के लिये एक प्रकार की, तो बौद्धिक क्षमता का विकास करने के लिए दूसरे प्रकार की। सूझ-बूझ एक बात है और व्यवहार कुशलता दूसरी। विद्वता एक चीज है और एकाग्रता का स्वरूप दूसरा है। कलाकारों का ढाँचा एक प्रकार क होता है और योद्धाओं का दूसरा। इन सभी को अपने-अपने ढंग की शक्तियाँ चाहिए। उनके अभाव में सफलताएँ तो दूर, प्रकृति कदम जागे बढ़ चलना तक सम्भव नहीं हो पाता। कहना न होगा कि असंख्य सामर्थ्यों का असीम भाण्डागार मनुष्य के अन्तराल में विद्यमान है। यह चेतना क्षेत्र का एक बृहत्तर महासागर है, जिसमें हर स्तर की सामर्थ्यों की खोज निकाली जा सकती हैं। दृश्यमान समस्त विभूतियों–सफलताओं का उपार्जन एवं उपयोग इसी आत्मबल रूपी सामर्थ्य के सहारे सम्भव हो पाता है। उसके अभाव में तो अधिकाँश पर जीवित मृतकों जैसी अशक्तता ही छायी रहती हैं।

ऊपर वर्णित इन तथ्यों–अध्यात्म विद्या के मर्म सार, सहसा, विश्वास नहीं होता। इन दिनों आत्मा का अस्तित्व तक संदिग्ध माना जाता है और इस विद्या में सन्निहित सामर्थ्यों के प्रभाव पर अविश्वास भी किया जाता है। ऐसी दशा में यह एक अत्यन्त दुष्कर कार्य है कि प्रत्यक्षवादी समझे जाने वाले बुद्धिजीवी वर्ग को यह विश्वास दिलाया जा सके कि वे अन्तः की सामर्थ्य का महत्व समझें और उसके उपार्जन का सच्चे मन से प्रयास पुरुषार्थ करें। यदि यह तथ्य इस समुदाय के गले न उतारा गया तो साधना उपचार की, अध्यात्म विज्ञान की कोई भी क्रिया प्रक्रिया उथले मन से लकीर पीटने की तरह ही किसी प्रकार धकेली-घसीटी जाती रहेगी। श्रद्धा और विश्वास के अभाव में उत्कृष्टता के पक्षधर प्रयासों के साथ तादात्म्य जुड़ सकना कठिन है। मात्र पशु-प्रवृत्तियों में वह आकर्षण है कि वे व्यक्ति को वासना, तृष्णा और अहंता की पूर्ति के लिये उत्तेजित करती व उससे कुकर्मी कराती रहें। आज इस चिन्तन से विरत किये जाने के लिये अध्यात्म की वैज्ञानिकता सिद्ध करने की अनिवार्यता और भी बढ़ गयी है।

मूर्धन्य तत्त्वदर्शियों के अतिरिक्त गहराई में उतर कर कौन समझे और कौन समझाये? ऐसी दशा में आत्मिकी प्रयोगों की परिणति का स्वरूप समझना एक अत्यन्त जटिल प्रक्रिया है। यह कठिनाई बनी ही रहेगी कि यदि आत्मिकी के प्रयत्नों की प्रतिक्रिया को उपयोगी उत्साहवर्धक न माना गया तो फिर सर्वसाधारण के लिये यह अति कठिन होगा कि वे परिपूर्ण श्रद्धा विश्वास के साथ उस क्षेत्र में आगे बढ़े।

इस असमंजस के निवारण हेतु ही ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान में प्रयोग परीक्षण का क्रम बिठाया गया है जिसमें साधकों की आस्था एवं प्रयत्नों की गम्भीरता तथा तद्जन्य प्रतिक्रिया को वैज्ञानिक उपकरणों के सहारे परखा जाता है। किस प्रयोग का शरीर एवं मन के किस क्षेत्र पर कितना, किस स्तर का प्रभाव पड़ा, इसका विवरण प्रस्तुत कर सकने वाले बहुमूल्य वैज्ञानिक उपकरण यहाँ देश-विदेश से माँगकर लगाये गये हैं, ताकि उनकी साक्षी से यह जाना जा सके कि साधनारत व्यक्ति अपने प्रयत्नों का समुचित प्रतिफल प्राप्त कर रहे हैं या नहीं। इस व्यवस्था की आवश्यकता न केवल आस्था क्षेत्र के प्रयत्नों की परिणति जानने के लिये करनी पड़ी है वरन् इसलिये भी कि साधक का शारीरिक, मानसिक व अन्तःकरण का स्तर जाँचा जा सके और तद्नुसार निराकरण–उपचार सुझाया जा सके।

प्रयोग के फलदायी-आशाप्रद परिणाम सामने आर है–समय-समय पर साधना प्रशिक्षण मार्गदर्शन के साथ-साथ उन निष्कर्षों को भी इस पत्रिका में प्रकाशित किया जाता रहेगा। निश्चित ही इससे आध्यात्मिकता के पक्षधर सभी तर्कों, तथ्यों को प्रमाणों का बल मिलेगा।


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