चमत्कार और सिद्धियों के भ्रम जंजाल में न भटकें, यथार्थता को समझें

March 1982

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जन-मानस की बनावट प्रकृति इस प्रकार की है कि सुशिक्षित–कर्मशील होते हुए भी चमत्कारों–देववाद के प्रति आस्था प्रकृति अधिक ही होती है। आये दिन ऐसे बाजीगरों के किस्से सुनने में आते हैं जो पढ़े लिखों को कौतूहल दिखाकर ठग लेते हैं और सब प्रकृति पोल खुल जाने पर भी सन्त का वेश पहने अध्यात्म की दुहाई देते रहते हैं। वस्तुतः अध्यात्म का बाजीगरी से प्रदर्शन बाजी से कोई सम्बन्ध नहीं। विभूतियाँ और सिद्धियाँ हमेशा आध्यात्मिक होती है– परहितार्थाय होती हैं एवं कभी भी पुरुषार्थवाद की मान्यताओं को चोट नहीं पहुंचाती। उनका विकसित होना मात्र यही बताता है कि आत्मिक प्रगति का एक सोपान यह भी है।

भौतिक सिद्धियाँ तो कीड़े-मकोड़ों में भी पाई जाती हैं, जो चलते समय पैर के नीचे दबकर मर जाते हैं। मक्खी आकाश में उड़ सकती हैं, बत्तखें पानी में तैर लेती हैं और तीक्ष्ण दृष्टि सम्पन्न गीध की आँखों का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। जुगनूँ अन्धेरे में प्रकाश फैलाता चमकता रहता है, मकड़ी को आने वाले मौसम का ज्ञान रहता है तो गिरगिट भाँति-भाँति के रंग बदल लेता है। पर यदि ये ही सिद्धियाँ हैं एवं इन्हीं की प्राप्ति के लिये साधना रूपी पुरुषार्थ किया जाता है तो सफलता के अन्तिम शिखर पर चढ़ते-चढ़ते वहाँ पहुँचा जा सकता है जहाँ यह कीड़े-मकोड़े विकसित होते-होते पहले ही से पहुँच गये हैं।

रामकृष्ण परमहंस दक्षिणेश्वर के अपने काली मन्दिर में शिष्यों के बीच बैठे थे। शिष्यों की सिद्धियों के विषय में जानने की उत्सुकता को देख उन्होंने एक कथा सुनाई–”एक शिष्य कठोर साधना कर वापस लौटा। नदी के इस पार गुरु की झोंपड़ी थी। गुरुजी से मिलने को उत्सुक शिष्य ने नदी पार करने के लिए कदम बढ़ाये। उसका स्वागत करने आये गाँव के श्रद्धालु परिजनों ने नाव की ओर इशारा किया व बताया–”आपको उस पार ले चलते हैं। “ शिष्य बोला–”नहीं। रहने दीजिये। में ऐसे ही पार कर लूँगा।” योगी महाराज ने 15 वर्ष कठोर तपस्या करके सीखी भी तो एक ही सिद्धि थी–पानी पर चलना। उसके प्रदर्शन का इससे श्रेष्ठ और क्या अवसर हो सकता था। लोगों के देखते-देखते वह पानी पर पैर रखते हुए उस पार पहुँच गया। गुरु जी झोंपड़ी के दरवाजे पर खड़े देख रहे थे। दम्भ से सिर ऊँचा किये, छाती फुलाये शिष्य महोदय बढ़े चले आ रहे थे। गुरु ने सारा माजरा समझ लिया–बोले–”वत्स! तूने 15 वर्ष की अवधि में वही सीखा जो 4 पैसे नाव पर बैठकर भी किया जा सकता था। सिद्धि के लिये उपासना की व उस पर भी प्रदर्शन का दम्भ तुझ में है। यदि आत्मिक प्रगति की ओर ध्यान दिया होता तो मछली–कछुए को प्राप्त इस विशेषता से प्रकृति ऊँचा ही उठा होता।” शिष्य की आँखें खुलीं। वह फिर चल पड़ा आत्मिक प्रगति हेतु तपश्चर्या करने। इतना कहते हुए परमहंस बोले–सच्चा साधक कभी सिद्धियों के व्यामोह में नहीं उलझता। ये तो सहज ही मिल सकती है–पर इनसे आत्म-कल्याण का–लोक-कल्याण का पथ-प्रशस्त नहीं होता। ऐसी सकाम साधना से तो जीवन को औरों के लिये काम आने लायक बनाना ज्यादा श्रेयस्कर है।

अधिकाँश लोगों में कौतूहल दिखाकर ‘आँकल्ट-मिस्टीसिज्म’ के नाम पर करिश्मे दिखाकर अपनी विशेषता सिद्ध करने की आत्मश्लाघा पूरी करने मात्र की हविश होती है। दूसरी ओर तमाशबीन दर्शकों की मानसिक संरचना भी ऐसी होती है कि उन्हें तमाशों में रस आता है–इससे कर्म न करने व तुरन्त लाभ मिलने की नीति सामने नजर आती है। एक तीसरा पक्ष और भी है। वह है–धर्म मंच पर बैठे उसके प्रवक्ताओं द्वारा इन्हीं कलाबाजियों को अध्यात्म की फलश्रुति बताना और प्रमाण-उदाहरण ऐसे देना जिससे लोगों में सहज रुचि, सिद्धियाँ प्राप्ति हेतु मचल उठे। यदि यही सब प्रकृति है तो फिर इतनी कष्टसाध्य प्रक्रिया अपनाने और सामान्य सुख−सुविधाएँ छोड़ उपवन में जाने की क्या आवश्यकता है। लोगों को अचम्भे में तो बाजीगर−जादूगर भी डाल देते है। ‘हाथ की सफाई’ के थोड़े दिनों के अभ्यास से ही वे तथाकथित ‘सिद्ध हो जाते है और तमाशा दिखा−दिखाकर पेट भरते रहते है।

देखना यह चाहिये कि इसमें अपना क्या लाभ हुआ व दूसरों का क्या हित सधा। भारत से हमें यदि उड़कर अटलांटिक पार अमेरिका जाना है तो यह काम थोड़ा-सा किराया भर देने से विमान यात्रा या जहाज से पूरा हो सकता है। उसके लिये उड़ना सीखने की कठिन तपस्या करने की क्या जरूरत? दूरदर्शन, दूरश्रवण के जब सभी साधन आज वीडियो, टी. वी., रेडियो के रूप में विद्यमान है तो फिर दूरदर्शन−−दूर श्रवण की सिद्धि के लिये अतिरिक्त प्रयास क्यों किया जाय?

साधना, तपश्चर्या और योगाभ्यास का मात्र एक ही उद्देश्य है अपने अन्तःकरण में प्रसुप्त पड़ी सत्प्रवृत्तियों का जागरण, सद्भावों का उन्नयन, सद्ज्ञान के रूप में दृष्टिकोण का अभ्यास। सिद्धियों की उत्कृष्टता इसी कसौटी पर रखी जाती है। इसी से अपना भला होता है व सारे जगत का भी।

सिद्धियाँ अनावश्यक और अस्वाभाविक है। उनका मनुष्य के सामान्य रोजमर्रा जीवन में कोई उपयोग नहीं, उल्टे हानि ही है। सच्चे आत्मवेत्ता इसी कारण न किसी को चमत्कार दिखाते है न ऐसा करने के लिये किसी को शिक्षा ही देते है। स्वयं समर्थ होते हुए भी कभी वे सृष्टि के विधान के विरुद्ध प्रकृति करते नहीं। यदि संयोग−वश किसी सुपात्र के लिये प्रकृति करना ही पड़ जाय तो कभी भी उसे प्रकट नहीं होने देते। सच्चे अर्थों में अध्यात्म का चमत्कार एक ही है−सामान्य स्थिति में रहते हुए भी देवोपम जीवन का आनन्द ले लेना। यह उत्कृष्ट चिन्तन व आदर्श कर्तृत्व के रूप में प्रकट होता है व यही शाश्वत सिद्धि उपलब्धि है जो महामानव अर्जित करते हैं जिसके लिए पुरुषार्थरत रहते हैं।

भगवान बुद्ध ने अपने एक शिष्य का स्वर्ण कमण्डल तुड़वाकर नदी में प्रवाहित कर दिया व चमत्कार दिखाने पर कड़ा प्रवाहित कर दिया था। वस्तुतः एक नट प्रकृति ही समय पूर्व भिक्षुक बना दिया था। उसने स्थानीय राज्य के अधिपति की घोषणा सनी कि एक ऊँचे बाँस पर रखे स्वर्ण कमण्डल को जो चढ़कर उतार लायेगा, उसे सिद्ध पुरुष माना जायेगा व राजा उसी का शिष्य बनेगा। बाँस पर चढ़कर अभ्यास किये नट के लिये यह कोई खास मुश्किल की प्रशस्ति भी तथा राजा से सम्मान, धन व गुरुपद पाकर आया था। उसके लौटने पर जब चर्चा भगवान तक पहुँची तो वे बहुत दुःखी हुए और उस उपहार को नष्ट कर दिया। उनका कहना था कि यदि चमत्कार ही अध्यात्म की कसौटी बनने लगे तो फिर बाजीगर ही सब प्रकृति होंगे और तपस्वी, ज्ञानवान, लोक−सेवी, अध्यात्मवेत्ताओं की कोई बात न मानेगा, न उन्हें पूछेगा।

क्या यह सच नहीं कि पूरे विश्व में इस बारे में एक समानता है कि अधिसंख्य व्यक्ति चमत्कारों में विश्वास रखते है। चाहे वह चिकित्सा हो अथवा धन उपार्जन, पदोन्नति की मनोकामना हो अथवा सन्तान प्राप्ति की? यह एक विरोधाभास है कि एक और तो विज्ञान की प्रगति अपनी चरम सीमा पर, दूसरी और अलौकिक अद्भुत घटनाओं पर विश्वास भी उतना ही अधिक। यह एक प्रकार का सकता है। बालों से बालू निकालना या ऐसे ही अन्य अजूबे दिखला देने का अर्थ यह नहीं कि वह व्यक्ति अवतारी या सिद्ध पुरुष है। विडम्बना तो यह है कि ऐसे धूर्त मक्कर में पड़कर समय, श्रेय व धन खोते रहते है।

सर्वसाधारण को समझना बहुत जरूरी है कि अध्यात्म का चमत्कारों में कोई सम्बन्ध नहीं। इस मार्ग पर चलते हुए जो भी प्रकृति अतीन्द्रिय क्षमताएं विकसित हो जाती है, उनका सदुपयोग किसी अति महत्वपूर्ण प्रयोजन के लिये प्रकृति के विधान के अनुसार ही उच्चस्तरीय आत्माएं कर पाती है। इस अनुदान की जहाँ−तहाँ लुटाते नहीं फिरतीं। वे लोग, जो चमत्कार प्रदर्शन में उत्साह दिखाते हैं, वस्तुतः सिद्ध पुरुष नहीं, बाजीगर होते हैं।

अलौकिक आध्यात्मिक सिद्धियाँ सर्वसाधारण के लिये उपयोगी नहीं होती–अतः ईश्वरीय विधान उन्हें अविज्ञात एवं रहस्य के पर्दों में ही छिपाकर रखता है। यदि वे इसी प्रकार सर्वविदित हो जायें तो भारी सृष्टि की व्यवस्था, व्यक्तियों के कार्य कलाप ही अस्त-व्यस्त हो जायें। हमें भगवान ने ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ दी हैं क्षमता व स्तर उतना ही रखा है जिससे जीवन का आवश्यक क्रम भर चलता रहे। यदि हमारी सभी इन्द्रियाँ अपनी सीमा से परे सभी काल-आयामों का बोध करने में सक्षम हो जायें तो हमारे बहिरंग जीवन में अव्यवस्था छा जायेगी।

मान लीजिये हमें मृत्यु का समय पूर्वविदित हो–अपने भाग्य की–भविष्य में घटने वाली घटनाओं की पूर्व जानकारी हो तो पहले से हो भय, उदासी व खिन्नता छा जायेगी। पुरुषार्थ करते बनेगा नहीं। शेषावधि रोते कलपते निकल जायेगी। अदृश्य हो जाने की विद्या सीखने वाला व्यक्ति क्या-क्या गजब ढा सकता है व समाज तथा स्वयं के लिये भी मुसीबत खड़ी कर सकता है।

इसी प्रकार अणिमा, महिमा, लघिमा आदि सिद्धियों का वर्णन पढ़ने तक ही कौतूहल की पूर्ति करने वाला है–सर्वसाधारण को वे मिल भी जायें तो उससे उनके लिये संकट उत्पन्न करने का कारण ही बनेगी। सिद्धि द्वारा अपने विषय में पूर्व जानकारी प्राप्त करना तथा भविष्य जान लेना सामान्य बुद्धि के मनुष्य के लिये तो अकर्मण्यता को न्योता देने के समान हैं। जब हानि लाभ होता है ही, मरना है ही तो प्रयास पुरुषार्थ की क्या आवश्यकता है ऐसी स्थिति निश्चित ही न तो मनुष्य को ही स्वीकार्य होगी न ही विधाता को ही।

महर्षि पातंजलि ने अपने योग ग्रन्थ में सारी सिद्धियों का परिचय देते हुए सचेत भी कर दिया है। क्योंकि ये सिद्धियाँ अन्तिम लक्ष्य–मोक्ष, आत्म-कल्याण की प्राप्ति में बाधक ही बतायी गयी हैं। मात्र सदुपयोग करने वाले सुपात्र को साधना पुरुषार्थ के मार्ग पर चलते हुए थे अपने आप मिलती हैं। इनका दुरुपयोग चूँकि वह नहीं करता–इसी कारण परम सत्ता भी अपनी ओर से कंजूसी नहीं करती। पर बच्चों के हाथ में वह कभी बन्दूक या विस्फोटक पदार्थ नहीं देती। यह एक शाश्वत नियम है–सदा से यही चला आ रहा है व हमेशा रहेगा भी। जिनने इस सिद्धियों का दुरुपयोग किया–यथा, भस्मासुर, रावण, हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यपु आदि, अन्ततः बड़ी विपत्तिग्रस्त स्थिति में जीवित रहे और उनका बुरा अन्त हुआ। सिद्धियाँ वस्तुतः दिव्य शक्ति के वरदान हैं, बड़े उपयोगी भी हैं, पर उन्हें पाने वाला सम्भाल कर रखे, तभी तक। कहीं भी थोड़ी-सी असावधानी हुई तो इससे हानि की ही सम्भावना अधिक हैं।

आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति चमत्कार नहीं बताते। अपनी तिजोरी में बन्द विभूतियों को वे छिपाकर रखते हैं–जहाँ-तहाँ उसका प्रदर्शन नहीं करते फिरते। उपयोगी पात्र मिलने पर वे शिवाजी, विवेकानन्द, दयानन्द,जवाहर, चन्द्रगुप्त अवश्य तैयार कर देते हैं, पर ऐसे समर्थ गुरु रामदास, रामकृष्ण परमहंस, विरजानन्द, गाँधी व चाणक्य इसका प्रचार नहीं करते। सामान्य से असामान्य स्वयं बन जाना, औरों को भी बना देना क्या कम चमत्कार है? पर उन्हें क्या समझाया जाय जो चमत्कार का अर्थ ही करतब-सिद्धि-अजूबा मान बैठे हैं। अध्यात्म पथ पर चलने वाले हर साधक को पहले अपने मस्तिष्क में छाया सिद्धि सम्बन्धी भूल व भ्रम जंजाल निकालना पड़ता है तो ही प्रगति पथ पर आगे बढ़ने में मदद मिल पाती हैं।

इस सर्वमान्य तथ्य को भली-भाँति आत्मसात कर लेना चाहियें कि हमारा लक्ष्य आत्मबल संवर्धन है, सिद्धियों की प्राप्ति नहीं, हम मार्ग से भटकेंगे नहीं चाहे कितने ही आकर्षण मार्ग में दिखाई पड़े, हमारी श्रद्धा को हम किसी बाजीगर–से प्रभावित नहीं होने देंगे चाहे उसने कितना ही मनोवैज्ञानिक प्रभाव हम पर डाला हो तथा सदैव यह याद रखेंगे कि अध्यात्म का लक्ष्य मात्र आत्म-कल्याण–मोक्ष प्राप्ति नहीं है वरन् सत्पथ पर चलकर अन्य अनेकों को यह दिखाना भी है। साधना आरम्भ करने के पूर्व ही इस आचार-संहिता का पाठ कर लिया जाय व नित्य इसे दुहराया जाय तो कभी कहीं भटकाव की गुँजाइश शेष न रहेगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118