आत्मिक प्रगति का स्वर्णिम अवसरः प्रस्तुत नवरात्रि पर्व

March 1982

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साधना तत्वदर्शन को जानने की इच्छा रखने वाले हर जिज्ञासु को इस अटल तथ्य को भली-भाँति समझ लेना चाहिये कि जीवन साधना– ईश्वराधना हेतु किसी मुहूर्त्त की प्रतीक्षा नहीं की जाती। इन सिद्धान्तों को तो जितना शीघ्र जीवन में उतारा जाय उतना ही उत्तम है, परन्तु क्रमबद्ध रूप से उच्चस्तरीय सोपानों पर चढ़ने वालों को प्रकृति समय विशेषों की महत्ता जानना जरूरी है। उन दिनों आरम्भ किये गये प्रयास संकल्पबल के सहारे शीघ्र ही गति पाते व साधक का वर्चस् बढ़ाते चले जाते हैं। कालचक्र के सूक्ष्म ज्ञाताओं ने प्रकृति के अन्तराल में चल रहे विशिष्ट उभारो को दृष्टिगत रख ही ऋतुओं के मिलन काल की संधिबेला को आश्विन और चैत्र की नवरात्रियों को महत्ता दी है।

इन दिनों सूक्ष्म जगत से दैवी प्रेरणाएँ अनुदान रूप में बरसती हैं और सुसंस्कारी जागृत आत्माएँ अपने भीतर समुद्र-मन्थन जैसी हलचलें इन दिनों उभरती देखते हैं। इन उमंगों का सुनियोजन का सकने वाली बहुमूल्य रत्न-राशि उपलब्ध करते हैं और कृतकृत्य होते हैं। यों ईश्वरीय अनुग्रह सत्पात्रों पर सर्वदा ही बरसता है, पर ऐसे अवसरों पर बिना अधिक पुरुषार्थ के अधिक लाभान्वित होने का अवसर मिल जाता है। इसी कारण नवरात्रि पर्वों को अध्यात्म विज्ञान में अत्यधिक महत्व दिया जाता है।

रात्रि और दिन का मिलन प्रातःकालीन और सायंकालीन ‘संध्या’ नाम से प्रख्यात है। मिलन की बेला हर क्षेत्र में उल्लास से भरी होती हैं। मित्रों का मिलन, प्रणय मिलन, आकाँक्षाओं और सफलताओं का मिलन कितना सुखद होता है, सभी जानते हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आत्मा और परमात्मा का मिलन कितना तृप्तिदायक–आनन्द देने वाला होगा। जैसे ही पुराना वर्ष बीतता है, व नया आता है–नये उल्लास से नव वर्ष मनाया जाता है। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के परिवर्तन के दो दिन अमावस्या एवं पूर्णिमा पर्वों के नाम से जाने जाते हैं। अधिकाँश पर्व इसी सन्धि बेला में मनाये जाते हैं। दीपावली, होली, गुरुपूर्णिमा, श्रावणी, हरियाली अमावस्या, शरदपूर्णिमा जैसे प्रधान-प्रधान पर्व इन्हीं ऋतु संध्याओं में आते हैं।

जब भी ऋतु परिवर्तन होता है–चैत्र में मौसम ठण्डक से बदलकर गर्मी का रूप ले लेता है और आश्विन में गर्मी से ठण्ड का। वैसे इस परिवर्तन में समय तो क्रमिक गति से अधिक लगता है, परन्तु इन नौ दिन विशेषों में प्रकृति का सूक्ष्म अन्तराल व मानवी काया का सूक्ष्म कलेवर एक विशिष्ट परिवर्तन क्रिया से गुजरता है। शरीर में ज्वार-भाटे जैसी हलचलें उत्पन्न होती हैं और जीवनीशक्ति पूरी प्रबलता से देह में जमी विकृतियों को हटाने के लिये तूफानी संघर्ष करती हैं। वैद्यगण इसे लाक्षणिक उभार काल कहते हैं। बहुधा बीमारियाँ इन्हीं समयों पर अधिक होती हैं और शरीर शोधन-विरेचन के उपचार इन दिनों करायें जाने पर विशेष सफल होते हैं। काया-कल्प के विभिन्न प्रयोगों के लिये भी सन्धिकाल की इसी अवधि की प्रतीक्षा करते हैं।

नवरात्रियों को देवत्व के धरती पर उतरने का, जागृतात्माओं में देवी प्रेरणा फूँकने वाला समय माना गया है। इन अवसरों पर देव प्रकृति की साधना परायण आत्माएँ अदृश्य प्रेरणा शक्ति से बरबस प्रेरित हो आत्मकल्याण व लोक-मंगल के क्रिया-कलापों में नियोजित हो जाती हैं। इन दिनों न केवल मानवी चेतना को प्रभावित करने वाली वरन् अनुकूलन उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ भी अनायास ही बन जाती हैं। अन्य जीवधारियों में प्रजनन की उत्तेजना इस समय ही सताती है और वे गर्भाधान की क्रिया सम्पन्न करते हैं। सूत्र–संचालन तो कोई अदृश्य सत्ता ही करती है, प्राणीमात्र कठपुतली की भूमिका निभाते हैं। इन दिनों वातावरण प्रकृति इस प्रकार का बनता है कि आत्मिक प्रगति के लिये अन्तःप्रेरणा सहज ही उठने लगती है।

इस प्रकृति के दो ही गुण माने गये हैं–तम् और सत्। तम् अर्थात् जड़, सत् अर्थात् चेतन। दोनों अपनी स्थिति में पूर्ण हैं। पर जब इन दोनों का मिलन होता है, एक नई हलचल उठ खड़ी होती है जिसे रज कहते हैं। मनुष्य के अन्दर इच्छा, आकाँक्षा, भोग, तृप्ति, अहंता, संग्रह, हर्ष, स्पर्धा आदि चित्त को उद्विग्न किये रहने वाले और विविध बहिर्मुखी क्रिया कलापों में उलझाने वाले प्रवाह ‘रज’ की ही प्रतिक्रियाएँ हैं। साधना की आवश्यकता इस ‘रज’ के निविड़ बन्धनों से शरीर चेतना को मुक्त करने के लिये ही पड़ती है। तम से बना जड़ शरीर तो समय समाप्त होने पर नष्ट हो जाता है और उसे जलाकर उसके स्थूल स्वरूप की इतिश्री कर ली जाती है। चेतन आत्मा सत् का अंश है–ईश्वर का अंश होने से निर्मल है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से बनी जड़ चेतन मिश्रित जीव चेतना ही हर घड़ी अशान्त बनी रहती है। इसी के परिमार्जन परिशोधन हेतु योग साधना एवं तपश्चर्या की जाती है और इसके लिये संध्याकाल की नवरात्रि बेला से श्रेष्ठ और कोई समय नहीं।

रज वस्तुतः सत् और तम् का सम्मिश्रण ही है जिसमें उत्पादन की अद्भुत शक्ति है। नारी का नारीत्व उसकी ‘रज’ चेतना पर ही टिका हुआ है। यही गर्भधारण और सृष्टि विस्तार का मूल आधार है। रज प्रधान ऋतुमती मार्दा ही गर्भधारण करती है। प्रकृति जगत में भी ऋतुएँ वर्ष में दो बार ऋतुमती होती हैं। सर्दी-गर्मी प्रधानतः दो ही ऋतुएँ हैं। वर्षा इनके बीच आँख-मिचौनी खेलती रहती हैं। दोनों प्रधान ऋतुओं का ऋतुकाल नौ-नौ दिन का होता है, इसी को नवरात्रि कहते हैं। इसी समय प्रकृति का रज तत्व भी अपने पूरे यौवन पर होता है।

उमँगें मनुष्य की स्व उपार्जित सम्पदा नहीं है। वे इन नवरात्रि के समय विशेषों में तो अविज्ञात उभार के दौर के रूप में विशेषतः सक्रिय पायी जाती हैं। इन दिनों चिन्तन ही नहीं, कर्म भी ऐसी दिशा विशेष में बढ़ने लगते हैं जिसकी किसी को कभी सम्भावना नहीं होती। युग सन्धि की बेला और उस पर भी नवरात्रि एक अप्रत्याशित अवसर–अपवाद के रूप में ही मानी जानी चाहिये। जो अवसर को पहचानते हैं, वे कभी चूकते नहीं। आत्मिक प्रगति की व्यवस्था बनाने व अन्तः की प्रगति हेतु आत्मिक पुरुषार्थ के लिए इस वर्ष की नवरात्रियाँ एक असामान्य अवसर के रूप में आयी हैं। इन दिनों वस्तुतः अदृश्य से अप्रत्याशित अनुदान बरसने व उससे व्यापक जन समूह के उससे लाभान्वित होने की आशा की जा सकती है, आवश्यकता मात्र यही है कि इस पुरुषार्थ से कोई भी नैष्ठिक साधक छूटने न पाये।

यों तो सारा समय ही भगवान का है, सभी दिन पवित्र हैं। शुभ कर्म करने के लिये हर घड़ी शुभमुहूर्त्त है और अशुभ कर्म के लिये अनेकानेक बन्धन बताये जा सकते हैं। सामान्य या विशेष किसी भी कालचक्र की प्रतिक्रिया से लाभ उठाना बुद्धिमत्ता ही माना जायेगा। बसन्त के दिनों में उस उत्सव के अनुरूप ही सूक्ष्म प्रवाह वातावरण में बह रहे होते हैं, अस्तु उनकी सहायता से यह पर्व मानने के लिये सभी की उल्लास मय मनःस्थिति अनायास ही बन जाती हैं।

मध्यकाल में तन्त्र प्रयोजनों की मान्यता अत्यधिक थी। अधिकाँश कर्मकाण्डों को–मन्त्र सफल बनाने की साधनाओं को तंत्रवेत्ता इन नवरात्रियों में ही सम्पन्न करते थे। वाममार्गी साधक अभी भी अभीष्ट इच्छापूर्ति हेतु इस अवसर की ही प्रतीक्षा करते हैं। सतोगुणी साधनाओं को अपनाने वाले–आत्मिक प्रगति के इच्छुक साधकों को तो इसे एक विशिष्ट अनुदान रूप में ही मानकर अपनी तप साधना का सुयोग बिठाना चाहिये। गायत्री साधना इस दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है एवं आज के समय की आवश्यकता को देखते हुए तो अनिवार्य भी। प्रज्ञायोग के मर्म को जानने–समझने की रुचि रखने वालों को इस वर्ष की नवरात्रि की गायत्री साधना को पिछले कई वर्ष से मनाते-देखते चले आ रहे पर्वों से अलग व विशिष्टता मानकर चलना होगा। नवरात्रि साधना की विशिष्टता यह है कि यह संकल्पित साधना है। अनुष्ठान शब्द की परिभाषा यदि दी जाय तो वह इस प्रकार ही होगी–”अतिरिक्त आध्यात्मिक सामर्थ्य उत्पन्न करने के लिये संकल्पपूर्वक नियत प्रतिबन्धों और तपश्चर्याओं के साथ विशिष्ट उपासना।” ये सर्वसाधारण के लिये ही है। उपासना क्रम ऐसा है जिसका पालन कर सकना सर्वसुलभ हो– मन्त्रोपचार के किन्हीं भी पेचीदा विधि-विधानों का दबाव न हों। पुरश्चरण कड़े होते हैं और उन्हीं के लिये उपयुक्त पड़ते हैं जो पूरा समय–पूरा मनोयोग उसी कार्य में नियोजित रखे रह सकते हों व कड़ी तपश्चर्या का पालन कर सकते हों। इसी कारण लिये सर्व श्रेष्ठ है। लम्बे समय तक व्रत पालन करते रहने के लिये सुदृढ़ मनोबल चाहिये। संकल्प किसी बहाने से टूटे या उपेक्षापूर्वक चिन्ह पूजा की जाय इस से उत्तम यही है कि छोटे संकल्प लिए जायें। नियम यही ठीक है मनोभूमि में जितनी दृढ़ता हो उतना ही बड़ा संकल्प लिया जाय।

नियत दिनों में नियत जप संख्या, ब्रह्मचर्य व्रत पालन भोजन में उपवास तत्व का समावेश, जैसी स्थिति जिसमें अपनी शरीर सेवा दूसरों से कम से कम करायी जाय भूमिशयन-कमवस्त्र-चमड़े का परित्याग जैसी तितिक्षाएं, अन्त में हवन की पूर्णाहुति–ये अनुष्ठान की सामान्य मर्यादाएँ हैं। लघु अनुष्ठान, जिसमें 24 हजार जप 9 दिन में पूरा करना होता है–ही सर्वसुलभ साधना विधान है।

गायत्री अनुष्ठान की महत्ता नवरात्रि में सर्वाधिक मानी जाती है। गायत्री ‘गुरुमन्त्र’ है। देव मन्त्र कितने ही हैं–सम्प्रदाय भेद से कई प्रकार के मन्त्रों के उपासना विधान हैं, पर जहाँ तक ‘गुरुमन्त्र’ शब्द का सम्बन्ध है वह मात्र गायत्री के साथ जुड़ा है। इस्लाम में कलमा, ईसाई में बपतिस्मा को जो स्थान प्राप्त है वही हिन्दू धर्म में अनादि गुरु मन्त्र गायत्री को प्राप्त हैं। साधना की दृष्टि से गायत्री को ही सर्वांगपूर्ण माना जाता है। त्रिपदा के रूप में इसकी तीन सिद्धियों अमृत (आनन्द-उल्लास से भरा अन्तःकरण–चिरयौवन), पारस (उत्कृष्टतावादी प्रगतिशील सत्साहस) तथा कल्पवृक्ष (परिष्कृत चिन्तन-सद्बुद्धि प्राप्त होने तथा आप्तकाम होने का सौभाग्य अनुदान) के माध्यम इसकी महिमा शास्त्रों में गायी है। राम, कृष्ण आदि अवतारों की–देवताओं की–ऋषि-ऋषिकाओं का उपासना पद्धति भी गायत्री ही रही है। इस सर्वसाधारण का उपासना अनुशासन मानकर इसकी उपेक्षा करने वालों की कटु भर्त्सना की गयी है। सामान्य दैनिक उपासनात्मक नित्यकर्म से लेकर विशिष्ट प्रयोजनों के लिये की जाने वाली तपश्चर्याओं तक में गायत्री को समान रूप में महत्व मिला है। गायत्री, गंगा, गीता, गौ और गोविंद हिन्दू धर्म के पाँच आधार माने गये हैं। जिनमें गायत्री सर्वप्रथम है। यही नहीं, इसमें जिन तथ्यों का समावेश है, उन्हें देखते हुए निकट भविष्य में इसके मानव जाति का सार्वभौम मंत्र माने जाने की पूरी-पूरी सम्भावना है। देश, धर्म, जाति, समाज और भाषा की सीमाओं से ऊपर इसे सार्वजनीन उपासना कहा जा सकता है। जब भी कभी मानवी एकता के सूत्रों को चुना जायगा तो निश्चिततः गायत्री को ही महामन्त्र के रूप में स्वीकारा जायगा।

दैवी आह्वान को सुना जाय और तद्नुसार ही आचरण किया जाय, यही उत्तम है। साधकों को उपासना के चमत्कार देखना हो तो वैज्ञानिक और भावनात्मक दोनों ही आधारों की कसौटी पर नवरात्रि की गायत्री साधनावधि में कसकर देख सकते हैं। व्यक्तित्व का परिष्कार, अन्तराल से विभूतियों के रत्नों का निकल पड़ना व विपत्ति बाधाओं का निराकरण ये प्रत्यक्ष प्रति फलों से रूप में मिलते देखे जा सकते हैं।

इस देव पर्व पर देवत्व की प्रेरणा व दैवी अनुकम्पा निरन्तर बहती है। सतर्क–प्रयत्नशील मनस्वी साधक ऐसे ही शुभ मुहूर्त का लाभ उठाते व अन्यों को भी इसके लिये प्रेरित करते हैं। देवत्व की विभूतियों के जीवनचर्या में समावेश के रूप में इस अनुदान वर्षा को सहज ही देखा जा सकता हैं।


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