मानवी मस्तिष्क असीम शक्तियों का भण्डार है, पर कठिनाई एक ही है कि उनमें बिखराव बने रहने और एक स्थान पर केन्द्रित न हो पाने से अभीष्ट लाभ नहीं मिल पाता। यदि उन्हें एकाग्र किया जा सके तो सामान्य व्यक्ति भी असामान्य मस्तिष्कीय शक्ति का स्वामी बन सकता और उसके सहारे आश्चर्यजनक कार्य कर सकता है। बिखरी हुई सूर्य की किरणें गर्मी और ताप आतिशी शीशे द्वारा द्वारा एक छोटे से केन्द्र पर वे एकत्रित की जा सके तो मात्र दो इंच घेरे की धूप में से ही अग्नि एक बिन्दु पर केन्द्रित किया जा सके तो सामान्य मस्तिष्क भी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दे सकने में सक्षम है।
शक्ति को उपलब्ध कर लेना बड़ी बात सुनी है, उसे बिखरावजन्य हानि एवं अनव्यय की बर्बादी से बचाया जाना चाहिए। शक्ति की उपलब्धि का समुचित लाभ तभी मिल पाता है जब कि उसे संग्रहित करने और सत्प्रयोजनों में लगाने की बात बने। धूप एवं गर्मी के प्रभाव से समुद्र, तालाबों, नदियों का पानी भाप बनकर उड़ता रहता है। किन्तु रेल इंजन में थोड़ा-सा पानी ही भाप बनकर शक्तिशाली बन जाता है। उसे हवा में उड़ने से बचाकर एक टंकी में एकत्रित कर लिया जाता है फिर उसका शक्ति प्रवाह एक छोटे से छेद से होकर पिस्टन तक पहुँचा दिया जाता है। मात्र इतने से रेलगाड़ी का भारी इंजन अपने साथ सैकड़ों टन वजन लेकर तीव्र गति से दौड़ने लगता है। ढेरों बारूद यदि जमीन पर फैला दी जाय और उसमें माचिस से आग लगा दी जाय तो वह मात्र थोड़ी ही चमक और आवाज के साथ तुरन्त जल जायेगी, पर जब उसे ही किसी बन्दूक की छोटी-सी नली के भीतर कड़े खोल वाले कारतूस में बन्द कर दिया जाय और बन्दूक का घोड़ा दबा दिया जाय तो एक तोले से भी कम बारूद की मात्रा गजब ढाती दिखाई पड़ने लगती है। अपने साथ प्रचण्ड गति से लोहे की गोली और छर्रों को भी घसीटती ले जाती है और जहाँ टकराती है ध्वंस पैदा कर देती है। बिखरी बारूद की निरर्थकता और उसकी संग्रहित शक्ति को एक दिशा विशेष में प्रयुक्त किये जाने की सार्थकता में कितना अन्तर होता है, इसे सहज ही देखा और समझा जा सकता है।
बाँधों में पानी भरा रहता है पर जब उसे एक छोटे से छेद से होकर गुजारा जाता है तो पानी के दबाव से उस धारा की गति अत्यन्त तीव्र हो जाती है। इस धारा में असाधारण शक्ति हो जाती है। धारा के प्रहार से कितने ही शक्तिशाली टर्बाइन्स घुमाये जाते है और उनके घूमते ही कितने ही प्रकार के यन्त्र चलने लगते हैं। बड़े−बड़े बिजलीघरों का निर्माण जलाशय के बाँधो पर ही विपुल परिमाण में विद्युत उत्पन्न की जाती है। छोटे−छोटे जल प्रपातों में भी पवन चक्की जैसी मशीनें चलायी जाती है। यह एकाग्रता की शक्ति का ही परिणाम है कि फैले हुए विशाल क्षेत्र को छोटा कर देने से सहज ही उसकी प्रखरता बढ़ जाती है। किसी मोटे लोहे को किसी कड़ी वस्तु में धँसाया जाय तो इसमें भारी कठिनाई होगी, पर यदि उसकी नोक पतली कर दी जाय तो साधारण दबाव से भी वह गहराई तक धंसता चला जायेगा। मोटे तारों एवं सुई की नोक का अन्तर सहज ही देखा और अनुभव किया जा सकता है, तार को कागज अथवा कपड़ों की तह में ठूंसना कठिन पड़ता है जबकि पतली नोक वाली सुई उनके भीतर सरलता से प्रवेश करती चली जाती है। पत्थर, लोहा, लकड़ी जैसे कड़े पदार्थों में छेद करने के लिए नोकदार बर्मे का प्रयोग होता है। जमीन की गहरी खुदाई करके बहुमूल्य खनिज सम्पदाएँ प्राप्त कर पाना नोकदार बर्मे के सहारे ही सम्भव हो पाता है।
स्थूल भौतिक शक्तियों की तरह सूक्ष्म शक्तियों का लाभ भी तभी मिल पाता है जब उन्हें एकत्रित करके दिशा में लगा दिया जाय। मस्तिष्क एक सशक्त बिजलीघर है। इसमें से निरन्तर प्रचण्ड विद्युत प्रवाह उत्पन्न होता है। उसके शक्तिशाली विघात कंपन ऐसे ही अनन्त उड़ते−बिखरते एवं नष्ट होते रहते हैं। यदि उस प्रवाह को केन्द्रित करके किसी विशेष लक्ष्य पर नियोजित किया जा सके तो चमत्कारी परिणाम निकल सकते है। ध्यान योग की साधना में उसी एकाग्रता सम्पादन का अभ्यास किया जाता है। विचारों के एक लक्ष्य विशेष पर केन्द्रीकरण में सफलता तभी मिलती है जब कि चेतना का मस्तिष्कीय हलचलों पर नियन्त्रण सध जाय। ध्यान एक ऐसा व्यायाम है जिसके द्वारा विचारों पर नियन्त्रण करना सम्भव होता है। इसके अनेकों उपयोग है जिनमें से एक यह है कि मन में आवेशों उपयोग है जिनमें से एक यह है कि मन में आवेशों, उत्तेजनाओं, भावुकताओं का अवाँछनीय उभार जब भी उठे तब उसे रोककर प्रवाह को दूसरी दिशा में उलट सकना सम्भव किया जाय। सामान्यतः अनगढ़ मन मनुष्य को कहीं भी घसीट ले जाता है और प्रकृति भी करा लेता है किन्तु सुसंस्कृत एवं नियन्त्रित मन अंतःकरण का निर्देश एवं अनुशासन मानता है तथा उसका निर्देश मिलते ही अपनी हलचलें निर्देशित दिशा में मोड़ लेता है। ऐसी दशा में मस्तिष्कीय तन्त्र रचनात्मक उपयोगी और विवेकपूर्ण कार्य ही करता है। अवाँछनीयता के प्रवाह में वह नहीं बहेगा। विचारों की सामर्थ्य को भटकाव से रोककर एक निश्चित लक्ष्य की ओर नियोजित कर देना ध्यानयोग साधना की एक सफल एवं विलक्षण परिणति है।
सर्वविदित है कि शोक क्रोध, व्यामोह, ईर्ष्या, चिन्ता, भय, निराशा आदि मानसिक विक्षोभ निषेधात्मक विचारों की प्रतिक्रिया मात्र है। जिनके कारण जीवन की सरसता और आनन्द नष्ट हो जाते है और पग−पग पर जलने झुलसने जैसा कष्ट सहना पड़ता है। ध्यान द्वारा विचारो को पकड़ने और एक दिशा से हटाकर दूसरे उपयोगी कार्यों में नियोजित करने की क्षमता उत्पन्न होती है। यदि कोई व्यक्ति व्यक्ति अपने प्रचण्ड मनोबल के सहारे आवेगों को वशवर्ती करने में समर्थ हो जाय तथा चिन्तन की धारा को सृजनात्मक दिशा में नियोजित कर लेने की विशेषता प्राप्त कर ले तो समझना चाहिए अपने स्वयं के भव बन्धनों को काटने का एक सशक्त आधार बन गया। सभी जानते है कि सफलताओं में साधनों की कमी अथवा परिस्थितियों की प्रतिकूलता उतनी बाधक नहीं होती जितनी कि चित्त की चंचलता और मन की अस्त−व्यस्तता। इन दोनों अवरोधों को दूर करने में ध्यानयोग की प्रक्रिया विशेष रूप से सहायक सिद्ध होती है। ध्यान का लक्ष्य होता है चंचल चित्त को मजबूत रस्सों से कसकर नियत प्रयोजन में लगा देने की क्षमता प्राप्त कर लेना इसी आध्यात्मिक भाषा में मनोनिग्रह के रूप में सम्बोधित किया गया है। योग शास्त्रों में मनोनिग्रह का असाधारण महत्व बताया गया है। निग्रहित मन को कल्पवृक्ष कहा गया है तथा उसकी चमत्कारों उपलब्धियों का विस्तारपूर्वक वर्णन शास्त्रों में मिलता है।
निग्रहित मन ही प्रचण्ड संकल्पशक्ति के उभार का कारण बनता है। मन कीक अस्त−व्यस्तता रुकने एवं एकाग्रता बढ़ने से संकल्प शक्ति अभिवर्धित और परिपक्व होती है। संकल्प बल को ही आत्मबल कहा गया है। इसी विद्युत धारा को अन्तरंग को प्रसुप्त क्षमताओं के ऊपर फेंका जाता है और उन्हें जागृत किया जाता है। मनुष्य के स्थूल सूक्ष्म, कारण शरीरों में एक से एक अद्भुत शक्ति संस्थान छिपे पड़े हैं। इन्हें ढूंढ़ निकालना और परिष्कृत कर सकना–संकल्प शक्ति के सहारे ही सम्भव हो पाता है। जन्मजात तो मनुष्य की उतनी ही क्षमताएँ जागृत रहती हैं, जिससे पेट और प्रजनन का सामान्य निर्वाहक्रम सरलतापूर्वक चलता रह सके। शेष दिव्य क्षमताओं का भण्डार प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है।
व्यायामशाला में जाकर शरीर बल उपार्जित किया जाता है और फिर उससे निरोग काया तथा दीर्घ जीवन के अनेकों लाभ प्राप्त किये जाते है ठीक इसी प्रकार ध्यान की मानसिक व्यायाम प्रक्रिया से संकल्प शक्ति प्रखर एवं परिपक्व होती है और उससे चेतना की विशिष्टता का परिचय देने वाले अनेकानेक सत्परिणाम सामने आते हैं। जीवन को समृद्धियों एवं विभूतियों सुख सम्पदा–शान्ति सन्तोष से–वैभव वर्चस्व से भर देने वाले अवसर जिस आधार पर मिलते हैं उनमें शरीर बल से भी बढ़कर संकल्पबल का स्थान है। इस महान उपलब्धि को करतलगत करने में ध्यान साधना से बढ़कर और कोई दूसरा सरल एवं सफल उपाय नहीं है। छान्दोग्य उपनिषद् के सप्तम अध्याय के सातवें खण्ड में ध्यानयोग की महिमा का विस्तारपूर्वक वर्णन है। ध्यान योग को उपासना की उच्च कक्षा माना गया है। नामोच्चार से बढ़कर वाक्, वाक् से बड़ा मन, मन से भी अधिक महत्वपूर्ण संकल्प से भी अधिक बलवान चित्त को कहा गया है। चित्त से भी बढ़कर सामर्थ्यवान ध्यान को बताया गया है। नाम−जप वाक् संयम, मनोनिग्रह, संकल्पोद्भव, चित्त निरोध ये सभी उपासना के क्रमिक सोपान है। ध्यान इन सबके ऊपर है।
ध्यान का आरम्भ विचारों पर नियन्त्रण और उनके सुनियोजित से किया जाता है। पर ध्यान की पूर्णता परमात्मा सत्ता के साथ आत्म सत्ता को जोड़ देने पर ही निर्भर है। इस योग साधन से उच्चस्तरीय अध्यात्म चुम्बकत्व की उत्पत्ति होती है। यह चुम्बकत्व चमत्कारी भूमिका सम्पन्न करता है अनन्त अन्तरिक्ष में–दिव्य लोकों में विद्यमान दिव्य चेतना के विभिन्न घटकों को−देवताओं को अपनी ओर आकर्षित कर सकना इस चुम्बकत्व द्वारा ही सम्भव हो पाता है। साकार एवं निराकार ध्यानों में परमात्मा को प्रतीक मानकर उसके साय एकत्व स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। आरम्भ में तो यह कल्पना ही रहती है, पर पीछे उसके साथ सघन आत्मीयता जुड़ते जाने की भक्ति भावना बढ़ने लगती है और एकाग्रता के अभ्यास में सरसता की अनुभूति होती है। पीछे यही सरसता दिव्य आनन्द की अनुभूति कराती है और आगे चलकर दीप पतंग जैसी, दूध पानी जैसी, आग ईंधन जैसी, नदी नाले, पति पत्नी जैसी एकता की–अद्वैत की अनुभूति कराती है। इस स्तर पर साधना में पहुँचे हुए साधक को अहम् ब्रह्मास्मि का–तत्वमसि का–शिवोऽहम्–सच्चिदानंदोऽहम् का आभास ही नहीं अनुभूति भी होने लगती है। यही एकात्म भाव है जहाँ पहुँचने पर भक्त भगवान एक हो जाते हैं।
आग के गुण समीपवर्ती ईंधन में उत्पन्न हो जाते हैं। बिजली की धारा का स्पर्श होते ही विद्युत एक घटक से दूसरे घटक में दौड़ने लगती है। भगवान की समीपता का अभ्यास ध्यान धारणा के माध्यम से किया जाता है। आस्था और अनुभूति के स्तर पर पहुँची हुई कल्पना अथवा भावना अन्ततः यथार्थता की स्थिति तक जा पहुँचती है। ध्यान की यह चरम परिणति है जिसमें साधक को जीव ब्रह्म की एकरूपता की प्रत्यक्ष अनुभूति अपने अन्तःकरण में होने लगे। अनुभूति ही नहीं साधक में वह विशेषताएँ भी परिलक्षित होने लगती हैं जिन्हें दैवी स्तर का कहा जा सके। उसमें ऋद्धि−सिद्धियों की−चमत्कारों की−झलक देखी जा सकती है।
ध्यान की सामान्य साधनाओं में ज्योति अवतरण की धारणा का और उच्चस्तरीय विशिष्ट साधनाओं में त्राटक का अभ्यास किया जाता है। त्राटक साधना भी विभिन्न माध्यमों से की जाती है। बिन्दु त्राटक, दीपक त्राटक, सूर्य त्राटक आदि का अभ्यास मनःस्थिति के अनुरूप अपनाया जाता है। त्राटक की क्रिया तो सामान्य होती है, पर उसके साथ जुड़ी हुई कल्पनाओं एवं भावनाओं का अधिक महत्व होता है। उन्हें ही अधिक बलिष्ठ और परिपक्व बनाने का प्रयास किया जाता है।
यह बात भली−भाँति हृदयंगम कर लेना चाहिए कि दीपक और सूर्य जड़ हैं उनमें चेतना भावना का अभाव है इसलिए मात्र उनके प्रकाश का ध्यान करते रहने से ध्यान का लक्ष्य पूरा नहीं होता। चैतन्य सविता ही उपास्य है। उसी में सद्भावनाओं, सत्प्रेरणाओं और विभूतियों का भांडागार सन्निहित है। सूर्य त्राटक करते समय अन्तरिक्ष से दिव्य चेतना की वर्षा होने का ध्यान करते रहना चाहिए। दीपक त्राटक में भी यही भावभूमिका सम्पन्न करनी पड़ती है। कहना उन होगा कि त्राटक में दर्शन के साथ−साथ अन्तःक्षेत्र में दिव्य प्रेरणाओं के अवतरण की बात जितनी गहरी श्रद्धा के साथ हृदयंगम की जायेगी, ध्यान का लक्ष्य उतनी ही मात्रा में पूरा होता चलेगा। सुमित्रा