भौतिकवाद की बढ़ोतरी हमें विश्वयुद्धों के कढ़ाव में तले जाने के लिए, कड़ी पकड़ के साथ घसीटती ले चल रही है। असुरक्षा की जंजीरों में कसा हुआ हमारा अस्तित्व सराय के यात्री की तरह घड़ियाँ गिन रहा है। इस विषाक्त स्थिति से बचने के लिए, अंतःदृष्टि को जागृत करके सारी स्थिति पर नए सिरे से विचार करना होगा और वह रास्ता खोजना पड़ेगा, जिस पर चलकर मानवी अस्तित्व और आस्था को जीवित रखा जा सके ।
विनाश की ओर चल रही अंधी घुडदौड़ से हमें विरत होना चाहिए और उस दिशा में लौटना चाहिए, जिसमें आदमी, आदमी की तरह शांति और संतोष के साथ रह सकता है। यह राह धर्म के साथ कदम मिलाकर चलने की ही हो सकती है। धर्म से मेरा अभिप्राय मत-मतांतरों से नहीं; वरन आत्मा की जागृत चेतना से है। मृत्यु के मरघट की तुलना में यदि जीवन के अस्तित्व एवं आनंद को महत्त्व दिया जाता हो तो आंतरिक उत्कृष्टता को, दृष्टिकोण की ऊँचाई को और धर्म के पुनर्जागरण की विद्या अपनाने के अतिरिक्ति और कोई रास्ता नहीं।
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