न योगो नभसः पृष्ठे न भूमौ न रसातले।
एक्यं जीवात्मानों रहुर्योमं योग विशारदाः।।
— (देवी भगवत)
अर्थात— “योग न में है, न पृथ्वी में और न रसातल में। योगतत्त्व के ज्ञाता जीवात्मा तथा परमात्मा की एकता को ही योग कहते है।”
वांछितार्थ फलं सौख्यामद्रियाणाञ्च मारणम्।
एतदुत्त्कानि सर्वाणि योगारुढस्य योगिनः।। 34
— शिव संहिता 4/34
अभीष्ट प्रयोजनों की प्राप्त सुख तथा इंद्रिय निग्रह। यह सब सफलताएँ योगसाधक को मिलती हैं।
योगहीनं कथं— ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भो।
योगोपि ज्ञानहीनस्तु न क् षमो मोक्षकर्माणि।।
“तस्यमात्र ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्द्द ढ़मभ्यसेत्।
— योगशिखोपनिषद्
“योगहीन ज्ञान और ज्ञानहीन योग कभी भी मोक्षप्रद नहीं होता। इसलिए ज्ञान और योग इन दोनों का ही मुमुक्षजन को दृढतापूर्वक अभ्यास करना चाहिए।”
आमं कुम्भमिवाम्भस्थो जीर्यमाणः सदा घटः।
योगानलेन संदह्च घटशुद्धि समाचरेत् ।।8।।
— घोणु संहिता
जैसे कच्ची मिट्टी का घड़ा जल भर देने से गलकर नष्ट हो जाता है; किंतु उसे पका लेने पर नष्ट नहीं होता, वैसे ही योगाग्नि में शरीर को पका लेने से काया शुद्ध, परिपक्व हो जाती है।
धैर्य यस्य पिता क्षमा च जननी शान्तिार्शचरं गेहिनी ।
सत्यं सुनूरयं दया च भगिनी भ्राता मनःसंयम ।।
शय्या भूमितलं दिशोऽपि वसनं ज्ञानामृतम् भोजनः।
मेते यस्य कुटुम्बिनो वद सखे कस्माद् भयं योगिनः ।।
अर्थात— “धैर्य जिनका पिता तथा क्षमा जननी है, चिरशांति जिनकी पत्नी है, सत्य पुत्र है, दया भागिनी है, मन का संयम भ्राता है, पृथ्वी ही जिनकी शैया है, दिशाएँ वस्त्र हैं, ज्ञानामृत भोजन है, जिसके ये सब कुटंबी हैं। ऐसे योगीजनों को किससे भय हो सकता है।