खेचरी मुद्रा का तारतम्य और साधना विज्ञान

June 1973

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इन दिनों आश्चर्य इस बात का किया जाना है कि पौष्टिक भोजन और अत्यंत सुविधाजनक रहन-सहन उपलब्ध होने पर भी लोग क्यों रक्तचाप, ह्रदयरोग, अनिद्रा, मधुमेह, अपच जैसी बीमारियों में अधिकाधिक ग्रस्त होते चले जा रहे हैं। इस संदर्भ में की गई शोधों का एकमात्र निष्कर्ष है कि शरीर और मन पर हर घड़ी छाया रहने वाला तनाव ही इसका एकमात्र कारण है।

शांति के कारण मस्तिष्क में उद्वेग छाए रहते हैं। नशीला, उत्तेजक खान-पान, अनावश्यक उछल-कूद, बेतरह और बेतरतीब व्यस्तता के कारण स्नायु संस्थान में उत्तेजना छाई रहती है और वासनाएँ, दुश्चिंताएँ तथा दुर्भावनाएँ आदि आवेश मस्तिष्क में भरे रहते हैं। फलस्वरूप शरीर और मन की शक्तियों का अनावश्यक अपव्यय होता रहता है और स्थिति यहाँ तक बिगड़ती है कि विविध प्रकार के रोगों से शरीर एवं मन दोनों ही बुरी तरह ग्रसित हो जाते हैं। इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से बचने के लिए विशेषज्ञों का एक ही परामर्श है कि अविश्रांति से बचा जाए, काम भरपूर किया जाए; किंतु गहरे विश्राम की आवश्यकता को भी समझा जाए।

नैपोलियन बोनापार्ट और रावर्ट क्लाइव के दो उदहारण अनोखे हैं। वे युद्ध के दिनों दिन भर मोर्चे का संचालन करते थे और रात्रिभर योजनाएँ बनाते थे। कई-कई दिन उन्हें ऐसे ही बिना सोए गुजारने पड़ते थे। थकान को दूर करने के लिए वे दोनों ही एक अनोखा उपाय बरतते थे कि किसी पेड़ या दीवार का सहारा लेकर अपने प्रचंड संकल्पबल से शरीर को पूर्णतया शिथिल कर देते थे और निंद्रित, तंद्रित एवं मूर्छित स्थिति तक शरीर को ही नहीं, मस्तिष्क को भी पहुँचा देते थे। वह क्रिया प्रायः आधा घंटे में वे पूरा कर लेते थे और इसके बाद पूरी नींद सोने जैसी ताजगी लेकर फिर काम में जुट जाते। अकबर के बारे में कहा जाता है कि वह नित्य तीन घंटे ही सोता था। अर्जुन को गुडाकेश अर्थात निद्रा जीतने वाला कहा जाता है। वह भी बिना सोए काम में प्रवृत्त रहता था। कुंभकरण भी सोने के झंझट से बचकर छ: महीने जागने और एक दिन सोने का वरदान मागने चला था। गलती से ही शब्द उलटे निकल गए और वरदान की आकांक्षा अभिशाप में बदल गई।

यहाँ निद्रा की अनुपयोगिता नहीं बताई जा रही है और न अधिक जगने के लिए किसी को प्रोत्साहित किया जा रहा है। स्वाभाविक आहार-विहार ही श्रेयस्कर होता है, इसलिए जवान आदमी को 6-7 घंटे गहरी नींद सोने की व्यवस्था बनानी ही चाहिए; किंतु विशेष उपचार के रूप में, अतिरिक्त आहार के रूप में सुविधानुसार शिथिलीकरण मुद्रा का अभ्यास भी करते रहना चाहिए। इससे थकानजन्य क्षति की पूर्ति में भारी सहायता मिलती रह सकती है और शरीर को रुग्णताजन्य विपत्तियों से बचाया जा सकता है।

मस्तिस्क के संबंध में भी यही उपचार काम में लाया जा सकता है। कुछ समय यदि सब प्रकार के भले-बुरे विचारों से मस्तिष्क को खाली रखने का अभ्यास डाला जा सके तो उन आवेशग्रस्त उत्तेजनाओं से बचा जा सकता है, जो मानसिक संतुलन नष्ट करके मनुष्य को सनकी अथवा विक्षिप्त जैसी स्थिति में ला पटकती है, चिड़चिड़ा बनाती है और अनिद्रा जैसे अकालमृत्यु के अग्रदूत रोगों के जाल-जंजाल में फँसा देती है। जिस प्रकार शरीर को शिथिल करने की क्रिया स्नायु संस्थान की थकान मिटाती है, उसी प्रकार मस्तिष्क यदि आवेशग्रस्त हो रहा है अथवा बेतरह थक रहा है, सिर चकराने जैसी स्थिति बन रही हो तो मस्तिष्क एक प्रकार के विचारों से एकदम खाली का प्रयोग किया जा सकता है। यदि थोड़ी देर भी विचाररहित स्थिति में जा सके तो प्रत्यक्ष अनुभव होगा कि सिर का भार कितना हलका हो गया। जिन्हें अधिक मानसिक श्रम करना पड़ता है अथवा उत्तेजित करने वाली परिस्थितियों में रहना पड़ता है, उसके लिए मस्तिष्क को खाली करने का उपचार ‘रामबाण’ औषधि का काम दे सकता है।

योग-साधना की दृष्टि से तो यह उपचार अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। ध्यान-धारणा के क्षेत्र में प्रवेश  करने वाले इसे प्रथम सोपान गिन सकते हैं। ध्यान न जमने, मन का गहराई में प्रवेश न करने, इधर-उधर के विचार मस्तिष्क पर छाए रहने, चित्त के यहाँ-वहाँ उड़ते फिरने की उच्चस्तरीय साधनाओं को सबसे जटिल व्यवधान कह सकते हैं। यह दूर न किया जा सके तो मनोयोग के आधार पर संपन्न होने वाले साधनाक्रमों में सफलता नहीं मिल सकती। अस्त-व्यस्त मन:स्तर के लोगों को त्रैतवादी कर्मकांडपरक साधनाएँ बता दी जाती हैं, वे कथा-कीर्तन, यात्रा, परिक्रमा, पूजा-पाठ के उपक्रमों को, प्रधानतया शरीर को और यत्किंचित मन को लगाकर अपनी गाड़ी धकेलते रहते हैं। उच्चस्तरीय साधनाओं का क्षेत्र ध्यान-भूमिका है, उसमें प्रवेश करने के लिए मानसिक स्थिरता आवश्यक है। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए योगसाधक शरीर को ढीला और मन को खाली करने का अभ्यास करते रहे हैं। इसमें सफलता मिलने पर उनका आगे का क्रियाकलाप सरलतापूर्वक अग्रसर होने लगता है, तब ध्यान जमने की बात कुछ अधिक कठिन नहीं रह जाती।

प्रत्यावर्तन सत्रों में सबसे पहले यही दो कदम बढ़ाए जाते हैं। प्रातः 5 से 5.30 तक शरीर को ढीला करना पड़ता है और 5.30 से 5.45 तक मस्तिष्क को खाली करने का अभ्यास किया जाता है। इसके पश्चात एक घंटे तक खेचरी मुद्रा के आधार पर अमृतपान शक्ति संचरण की साधना की जाती है।

शिथिलीकरण मुद्रा के लिए देह का सहारा देने वाला माध्यम होना चाहिए। आराम-कुर्सी इसके लिए सुविधाजनक रहती है। यों इसे लेटकर या पेड़, दीवार आदि का सहारा लेकर भी किया जा सकता है। इससे शिथिलता की अवस्था में इधर-उधर लुढ़कने की अड़चन नहीं रहती। दोनों हाथों की उगलियों के खाँचे आपस में मिला लेना चाहिए और उन्हें नाभि के नीचे वाले स्थान पर रखना चाहिए। इस स्थिति में बैठने के उपरांत शरीर को निद्राग्रस्त, मूर्छित, मृतक जैसी स्थिति में पूर्ण निष्क्रिय हो जाने की भावना करनी चाहिए। यह विचारणा जितनी अधिक गहरी होगी, उतना ही स्नायु संस्थान पर से तनाव घटेगा। स्वास्थ्य की दृष्टि से तो यह उपयोगी है ही, साथ ही ध्यान-धारणा की पूर्ण भूमिका का भी पथ-प्रशस्त हो जाता है। पंद्रह मिनट मनोयोगपूर्वक इस शवासन का प्रयोग करने से शरीर की स्थिति ऐसी बन जाती है, मानो वह योगाभ्यास के लिए ठीक तरह तैयार हो गया हो।

मन को खाली करने के लिए नीचे नील जल और ऊपर नील आकाश का ध्यान करना पड़ता है। सर्वत्र नीरवता अनुभव करनी पड़ती है और सोचना पड़ता है— प्रलयकाल के समान अब कहीं, किसी वस्तु या व्यक्ति का अस्तित्व नहीं रहा। प्रलयकाल के चित्र बाजार में मिलते हैं, उसमें नीचे नील जल, ऊपर नील आकाश है। जल के ऊपर कमलपत्र, उस पर एक छोटा बालक पैर का अगूँठा चूँसता हुआ बहता चला जा रहा है। यही ध्यान से मन को खाली करने के लिए सबसे अधिक उपयुक्त है। प्रलय के कारण जब कहीं कोई व्यक्ति या वस्तु शेष ही नहीं तो मन जाएगा किस पर? भागेगा कहाँ? अपना स्तर जब बालक जैसा ही है तो फिर कामनाएँ, वासनाएँ, तृष्णाएँ सताएँगी ही क्यों? अपने अंगूठे का रस पीकर जब स्वनिर्भर, आत्मतृप्ति का साधन मौजूद है तो फिर आकर्षित क्यों और किसकी ओर हुआ जाएगा?

उपरोक्त कल्पना-चित्र यदि ठीक प्रकार मन पर जम जाए तो मन का विचाररहित, सर्वथा खाली बना देना कुछ कठिन नहीं रहता। ऐसी स्थिति की अनुभूति होती है— मानो सिर पर लदे हुए पहाड़ जैसे भार उतर गए और चित्त हलकी-फुलकी शांति और संतोष कि स्थिति में रह रहा है।

इसके उपरांत खेचरी मुद्रा प्रशस्त हो जाती है। शरीर का ढीला और मन को खाली करना ध्यान-धारणा की पूर्व भूमिका है। इतना कर लेने के बाद किसी भी ध्यान का ठीक तरह  जमाना सरल हो जाता है। इतना ही नहीं, सामान्य जीवन में भी इस अभ्यासक्रम की भारी उपयोगिता है। मस्तिष्क पर उद्दीप्त आकांक्षाओं का यह विपरीत अप्रिय परिस्थितियों का कई बार इतना अधिक दबाव बन जाता है कि अनिद्रा से लेकर आत्महत्या का उत्पात कर बैठने तक की स्थिति बन जाती है। इसी उद्विग्न्ता का शमन करने के लिए मन को खाली करने वाला उपचार जादू जैसा काम करता है। चढ़े हुए आवेशों को उतारने और मन को संतुलित करने में यह उपचार कितना सफल होता है, इसे कभी भी अनुभव करके देखा जा सकता है। इसी प्रकार शरीर पर रुग्णता, अधिक श्रम, अस्त-व्यस्तता आदि कारणों से पड़े हुए दबाव, तनाव का निराकरण करने के लिए शिथिलीकरण मुद्रा का प्रयोग कभी भी सरलतापूर्वक किया जा सकता है। योग-साधना में, ध्यान-धारणा में तो उसकी उपयोगिता असंदिग्ध रूप से है ही।

साढ़े पाँच से साढ़े छ: खेचरी मुद्रा का प्रयोग है। जिह्वा को उलटकर तालू से लगाना और ब्रह्मरंध्र में से टपकने वाले अमृत-बिंदुओं का तालु तथा जिह्वा के संपर्क स्थान पर अनुभव- आस्वादन करना— संक्षिप्त में यही खेचरी मुद्रा है। जिह्वा को जितना पीछे उलटा जा सके, उसके लिए सामान्य प्रयत्न करना चाहिए और तालु के गहरे स्थल से जितना सरलतापूर्वक संपर्क बनाया जा सकता हो, बनाना चाहिए। बहुत अधिक दबाव नहीं देना चाहिए, अन्यथा अनुभूति में उस कष्टकारक स्थिति के कारण बाधा पड़ेगी।

यों हठयोग में काली मिर्च, पीपल आदि का चूर्ण जिह्वा पर मलते हुए उसे अपेक्षाकृत लंबी बनाने का प्रयत्न किया जाना है, ताकि उसे अधिक दूरी तक पीछे लौटाया जा सके। जीभ के नीचे वाले तंतु को काटकर उसे अधिक लंबाई तक बढ़-चढ़ने के लिए तैयार करने का भी विधान है; पर आज कि स्थिति में वे दोनों ही प्रयोग अनुपयुक्त हैं। प्राचीनकाल में शरीर इतने शुद्ध थे कि उतना करने पर भी कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता था; पर आज कि दुर्बल और विकृत शारीरिक स्थिति में कोई भयंकर विग्रह उत्पन्न हो जाना संभव है। जिह्वा को कोई हानि पहुँच सकती है और नया उपद्रव खड़ा हो सकता है, जिससे लाभ के स्थान पर हानि ही पल्ले पड़े। हमें ऐसे जोखिम भरे प्रयोगों से सदा बचना चाहिए। सीमा उतनी ही रखनी चाहिए जिससे लाभ भले ही धीरे या कम हो, पर कोई अनावश्यक उपद्रव न उठ खड़ा हो। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए उपयुक्त यही है कि जिह्वा को सरलतापूर्वक जितना उलटा जा सकता हो, उसे उलटकर तालू के गह्वर में जितना पीछे ले जाया सकता हो, ले जाया जाए।

जिह्वा को नोंक की तालू से सटाया जाता है। अमृताकर्षी तत्त्व इस अग्रभाग में ही रहते हैं। उस नोंक का और तालु का बहुत ही धीमी गति से घर्षण भी करना चाहिए। जननेंद्रियों के अग्रभाग जैसे ही उत्तेजक संवेदनाएँ इन मर्मस्थलों पर रहती हैं। नर जननेंद्रिय से जिह्वाग्र भाग की तुलना की जा सकती है और तालू-गह्वर की नारी जननेंद्रिय से संभोगजन्य  उत्तेजना से परिचित हैं। यह संयोगजन्य मृदुलता अपने ढंग के अनोखी है। संभोग में विषयानंद मिलता है, इस संयोग में ब्रह्मानंद के आनंद, उल्लास, घर्षण, आध्यात्मिक श्वासोच्छास के रूप में अनुभव किए जा सकते हैं। विषयानंद में मिलने वाली तृप्ति की तुलना में ब्रह्मानंद की तुष्टि का स्तर कितना अधिक बढ़ा-चढ़ा है, इसका अनुभव साधक को कुछ ही समय के अभ्यास पर होने लगता है।

मनुष्य— ब्रह्मचेतना का परमप्रिय शिशु शावक है। गाय अपने छोटे बछड़े को दूध पिलाकर तृप्त और पुष्ट करती है, उसी प्रकार अनंत अंतरिक्ष में संव्याप्त ब्रह्मचेतना अपने बछड़े मनुष्य पर दिव्य अनुदानों की निरंतर वर्षा करती रहती है। जीव और ब्रह्म का यह आदान-प्रदान तालू के मध्य भाग ब्रह्मरंध्र में होता है। इस स्थान की कोमलता छोटे बालकों के मस्तिष्क में अधिक आसानी से देखी जा सकती है। इसे ब्रह्मकपाल भी कहते हैं, ठीक इसी के नीचे सहस्त्रारचक्र है। कुंडलिनी जागरण में इस केंद्र में सन्निहित ब्रह्मतेजस् को महासर्प कहते हैं। पौराणिक अलंकार में क्षीर सागर में सहस्त्र फन वाले महासर्प पर शयन करने वाले विष्णु का चित्रण इसी स्थान की वस्तुस्थिति समझाने के लिए किया गया है। लक्ष्मी अर्थात सिद्धियों और विभूतिओं की देवी, परा और अपरा विशेषताओं से युक्त महामाया, इसी स्थान पर अपने पति विष्णु के साथ प्रसुप्त अवस्था में पड़ी है। क्षीर सागर अर्थात मस्तिष्क में भरा हुआ मज्जा पदार्थ। शिवपुराण में इसी को कैलाश पर्वत, मानसरोवर झील, सर्पाषणयुक्त महाशिव के रूप में वर्णन किया गया है। निस्संदेह यह स्थान समस्त शरीर में अतिदिव्य है।  आध्यात्मिक उत्तरी ध्रुव यही है। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का केंद्र यही है। जीव और ब्रह्म का मिलन— मर्मस्थल यही है। खेचरी मुद्रा द्वारा इसी मर्मस्थल का स्पर्श करके वहाँ की प्रसुप्त स्थिति को जागृत किया जाता है।

शिवलिंग पर रुद्राभिषेक करने के लिए एक तिपाई रखी जाती है, उस पर जल भरे तीन घड़े रखे जाते हैं। हर घड़े के पेंदे में छेद होता है। पानी ऊपर से नीचे वाले घड़े में टपकता है और फिर अंत में वह बूंद शिवलिंग पर टपकती है। इस रुद्राभिषेक को खेचरी मुद्रा का मूर्तिमान प्रतीक चित्रण कह सकते हैं। ब्रह्मचेतना ऊपर वाला घड़ा— प्रकृति अंड-ब्रह्मांड। दूसरा घड़ा—  ब्रह्मांड का बिंदु-प्रवाह पिंड में अवतरित होना। तीसरा घड़ा— जिह्वा शिवलिंग घट छिद्रों में कुशा ठुसी रहती है, ताकि जलबिंदु का आकार-प्रकार संतुलित क्रम से टपके। तालू को कुश का आच्छादन कह सकते हैं। घड़ो में जल भरा रहने पर भी कई बार कुशाएँ फूल जाने अथवा उनमें बालू, रेट आदि भर जाने से बूंदे टपकना बंद हो जाता है। तब उस कुशा को कुरेदकर बिंदु-प्रवाह ठीक करना पड़ता है। जिह्वा को तालू के साथ मंद घर्षण करके इसी द्वार को खोला जाता है और ब्रह्मांड में देहांड के बीच के टूटे हुए संचार-सूत्र को पुनः गतिशील किया जाता है।

जिह्वाग्र भाग चिंतनपरक मस्तिष्क और क्रियापरक काय-कलेवर के बीच आदान-प्रदान की कड़ी का काम करता है। ब्रह्मसंदेशों को व्यावहारिक जीवन में ओत-प्रोत करने के लिए गतिशील बनाना खेचरी मुद्रा द्वारा सहज संभव होता है। उससे उभयपक्षीय प्रयोजन सिद्ध होते हैं। ज्ञान के रूप में विभूतियाँ उपलब्ध होती हैं और शक्ति के साथ जुड़ी हुई सिद्धियों की अवतरण प्रक्रिया संपन्न होती है। साधक में तत्त्वदर्शन की ब्रह्मचेतना भी जागृत होती है और शक्ति अवतरण से वह समर्थ सिद्धपुरुष एक महामानव भी बनता है।

इस प्रयोजन को ज्ञान और कार्य के मिले हुए व्यावहारिक क्रियाकलाप ही पूरा कर सकते हैं।  जीवन-साधना के पथ पर समग्र रूप से चलना भी एक साधना है और कितने व्यक्ति बिना योग-साधना के निर्धारित विधि-विधानों को अपनाए बिना भी महामानव देवदूत स्तर की परिष्कृत स्थिति प्राप्त कर लेते हैं; पर जिन्हें साधना विज्ञान पर निष्ठा है, उन्हें योगाभ्यास की प्रक्रिया अधिक महत्त्वपूर्ण सहायता कर सकने वाली दृष्टिगोचर होती है। अस्तु समुन्नत जीवन के लिए व्यावहारिक कदम उठाने के साथ-साथ वे योग-साधानाओं में भी तत्परता बनाए रखते हैं। ऐसे लोगों के लिए खेचरी मुद्रा का असाधारण लाभ-प्रभाव और महत्त्व साधारण नहीं, असाधारण ही है।


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