परम प्रेरणाप्रद गायत्री उपासना

June 1973

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गायत्री महामंत्र की शक्ति असाधारण है। उसमें भरी हुए शिक्षा को यदि ह्रदयंगम किया जा सके, विचारणा को सद्बुद्धि में ऋतंभरा प्रज्ञा में परिणत किया जा सके तो समझना चाहिए कि नर को नारायण रूप में परिणत होने की संभावनाओं का पथ-प्रशस्त हो गया। इन अक्षरों का गुंथन शब्द विद्या के उस रहस्यमय सूत्रों के आधार पर किया गया, जिनके कारण षट्चक्र— तीन ग्रंथियाँ, पावन उपत्यिकाएँ जैसे प्रसुप्त शक्तिकेंद्रों का जागरण होता है और मनुष्य सामान्य से असामान्य बनने की दिशा में बढ़ चलता है।

गायत्री साधना की उत्कृष्टता के संबंध में किसी भारतीय धर्मानुयायी को संदेह करने की गुंजायश नहीं है। संध्या के रूप में दैनिक आवश्यक धर्म-कर्त्तव्य निर्धारित किया गया है। शिखा और यज्ञोपवीत के रूप में मस्तक और ह्रदय जैसे आधार अंगो पर गायत्री की ही प्रतिष्ठापना है। प्राय: सभी अवतार, ऋषि, योगी और तत्त्ववेत्ता गायत्री उपासना के माध्यम से आत्मबल-अभिवर्द्धन और भावनात्मक उत्कर्ष का प्रयोजन पूरा करते रहे हैं। निस्संदेह योगाभ्यास के मंत्र-साधना के क्षेत्र में गायत्री मंत्र की गरिमा सर्वोपरि है। जीवन-शोधन की परिष्कार साधनाओं में उसका स्थान सबसे अगला और सबसे ऊँचा है।

प्रत्यावर्तन-प्रक्रिया में गायत्री उपासकों का स्थान मूर्धन्य रखा गया है। साधना के द्वितीय सोपान का आरंभ प्रातः 7.30 से 8 तक इसी से होता है। पवित्रीकरण, आचमन, शिखाबंधन, प्राणायाम, न्यास, पृथ्वी-पूजन इन षट्कर्मों की ब्रह्मसंध्या के उपरांत आधा घंटे तक गायत्री जप करना होता है। इतने समय में पाँच मालाएँ हो जाती हैं। मालाएँ फेरना अनिवार्य नहीं है। आधा घंटा समय की अवधि घड़ी देखकर भी पूरी की जा सकती है। जप-साधना में नियत समय, नियत स्थान, नियत संख्या का जो नियम है; उसका यहाँ पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है। कंठ, होठ, जीभ तीनों ही चलते रहें; पर ध्वनि इतनी मंद हो कि पास बैठा मनुष्य उसे ठीक तरह सुन न सके, मात्र स्फुट गुंजन ही होता रहे।

जप के समय ध्यान आवश्यक है। मन को काम न मिले तो वह भागेगा ही। जीभ से शब्दोचार होता है, उँगलियों से माला जपी जाती है; किंतु आमतौर से मन को खाली छोड़ दिया जाता है, ऐसी दशा में उसका अनियंत्रित और अव्यस्थित रूप से इधर-उधर भागना स्वाभाविक ही है। ‘मन कहीं क्रिया कहीं’ वाली स्थिति ही हो तो बात कुछ बनती नहीं है। उपासना में तन्मयता और श्रद्धा का गहरा पुट होना चाहिए, तभी उसका कुछ प्रयोजन है, अन्यथा कुछ शब्दों की पुनरावृत्ति करते रहने मात्र से कुछ बड़ा प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा।

गायत्री उपासना के समय ध्यान नितांत आवश्यक है। यह दो प्रकार का हो सकता है — एक साकार, दूसरा निराकार। दोनों में से इच्छानुसार किसी को भी चुना जा सकता है; किंतु प्राण प्रत्यावर्तन साधना के अंतर्गत चल रहे सत्रों में परामर्श यही दिया जाता है कि साकार उपासना में भावना-उत्कर्ष की गुंजायश रहती है, उससे लाभ उठाएँ। यह लाभ प्राय: निराकार साधना में नहीं मिल पाता। निराकार साधना के लिए दूसरी कई विधियाँ मौजूद हैं। अस्तु, यही उचित-उपयुक्त समझा गया है कि निर्धारित साकार ध्यान को ही प्रश्रय दिया जाए।

प्रचलित ध्यान-साधनाओं में एकांकी अतिवाद का बाहुल्य रहता है। यों तो ‘मोसम कौन कुटिल खलकामी’ के रूप में अपने को चित्रित किया जाता है या फिर ‘शिवोऽहम् सच्चिदानंदोऽहम्’ की ध्वनि लगाई जाती है। यह दोनों ही स्थितियाँ मनुष्य की हो तो सकती हैं; पर ये उत्थान और पतन की चरम परिणति हैं। पतित होते-होते मनुष्य पशु अथवा नर-पिशाच हो सकता है और उत्कर्ष की ऊँची सीढ़ी पर चढ़ते हुए उसका नर-नारायण बन जाना नितांत संभव है, परंतु सामान्य स्थिति में इन दोनों ओर छोरों के बीच का मध्यबिंदु है। देव अपनी ओर खींचते हैं, असुर अपनी ओर। दोनों में से वह जिधर भी चल पड़े उधर ही आशाजनक प्रगति कर सकता है।

हमें वस्तुस्थिति समझनी चाहिए और तामसी असुरता को निरस्त करके सतोगुणी देवत्व की ओर प्रगति करनी चाहिए। ध्यान-धारणा का लक्ष्य भी यही होना चाहिए। उसमें ऐसे भावचित्र प्रस्तुत किए जाने चाहिए, जिनमें अपनी अवांछनीय स्थिति की ओर समुचित ध्यान देने, उसकी हानियों को समझने और उन्हें निरस्त करके उच्चस्तरीय स्थिति प्राप्त करने की प्रेरणा भरी पड़ी हो। इस प्रकार के उभयपक्षीय प्रयोजन सिद्ध करने वाली ध्यान-धारणाओं की ही शृंखला प्रत्यावर्तन सत्र की विभिन्न विधि-व्यवस्थाओं में भरी पड़ी है। बिंदुयोग त्राटक, प्राणयोग (सोऽहम्-साधना), आत्मबोध (छाया दर्पण), तत्त्वबोध (पृथक्करण) इन चारों साधनाओं में इसी तथ्य को ध्यान में रखा गया है। जितना समय इन साधनाओं में है, उसका आधा समय विकृतियों को समझने और निरस्त करने में लगाया गया है। आधा समय भावी उत्कृष्टता की स्थिति के स्वर्णिम चित्र मूर्तिमान करने के लिए हैं। अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना, दुष्कृतों का नाश और साधुता का परित्राण, यही तो भगवान के अवतार का उद्देश्य एवं क्रियाकलाप रहता है। उपरोक्त ध्यान-धारणाओं का स्वरूप निर्धारण भी इसी दृष्टिकोण के आधार पर रखा गया है।

गायत्री उपासना के लिए आधा घंटा पाँच माला जप निर्धारित है। इसमें पंद्रह मिनट निषेधात्मक और पंद्रह मिनट विधेयात्मक चिंतन के लिए है। बिजली की ऋण और धन-धाराएँ मिलकर ही प्रवाह उत्पन्न करती हैं। इस प्रकार ध्यान-धारणा में उभयपक्षीय संतुलन मिलने से ही उसकी पूर्णता और प्रभावशीलता बनती है। इसी तथ्य को प्रस्तुत क्रम में समाविष्ट किया गया है।

जप आरंभ करने, साथ-साथ ध्यान-धारणा में अपने स्वरूप की स्थापना इस रूप में करनी चाहिए कि ‘मैं एक छोटा बालक हूँ’। टट्टी और गंदगी में लिपटा हुआ। हाथ-पैर सभी को उस गंदगी से पोतकर घिनौना बना लिया है। माता से गोदी में लेने का अनुरोध करते हैं; पर वह सुनती नहीं और भौंहें तरेरते हुए स्पष्ट कर देती है कि जब तक गंदगी को धोकर सफाई न करली जाएगी, तब तक गोद में लेने की, प्यार करने की बात नहीं बनेगी। ठीक भी है, बच्चे की गंदगी के कारण माँ अपने कपड़े और शरीर को गंदा क्यों करे? गोदी में लेने का आग्रह रोते-बिलखते किया जा रहा है, पर माता की ओर से इसकी कोई सुनवाई नहीं की जा रही है।

ध्यान का उत्तरार्ध पंद्रह मिनट का यह है कि अपने छोटे बच्चे शरीर को स्नान कराया, मलीनता के कणों को धोकर साफ किया, गोदी में उठाया, अच्छे कपड़े पहनाए, प्यार किया, दूध पिलाया। अपनी सहज करुणा का, भाव-भरे वात्सल्य का परिचय दिया और मनोकामना पूर्ण करके हर्षोल्लास का अनुदान प्रदान किया।

गायत्री जप के समय का यही द्विपक्षीय ध्यान है। इसमें उस कारण का स्पष्टीकरण है, जिससे साधकों को इष्टदेव का अनुग्रह प्राप्त करने से वंचित रहना पड़ता है। उस सुझाव का भी निर्देश है, जिसे अपनाने पर ईश्वर प्राप्ति जैसा महान सौभाग्य मिल सकता है। जब तक हम कषाय-कल्मष, दोष-दुर्गुणों में सिर से पैर तक डूबे पड़े हैं, तब तक कैसे आशा कर सकते हैं कि भगवान हमें अपना अतिरिक्त स्नेह-अनुग्रह प्रदान करेंगे। भगवान का प्यार पूजा-पत्री के छुट-पुट कर्मकांडो पर अवलंबित नहीं है। वे नियम रूप हैं और मर्यादा एवं व्यवस्था के अंतर्गत ही किसी की कुछ सहायता कर सकते हैं। खुशामद और रिश्वत देकर भगवान से लंबी-चौड़ी याचनाएँ करना और मनोकामनाओं के सपने देखना निरर्थक है। इस बालकल्पना का वस्तुतः कोई मूल्य है भी नहीं। मनुष्य अपने चिंतन और कर्तृत्व का स्तर ऊँचा उठा सकता है। इसी तथ्य के लिए आवश्यक अंत:प्रेरणाएँ प्राप्त करना साधना उपक्रम का उद्देश्य होता है।

गायत्री मंत्र का, उसके जप का अपना महत्त्व है। उपरोक्त ध्यान-धारणा के साथ में जुड़े जाने का अतिरिक्त महत्त्व है। एक तो चिंतन के लिए, कल्पना के लिए विस्तृत क्षेत्र मिल जाता है और मन को उसमें उलझे रहने का अवसर मिलता है। मन को एक नियत निर्धारित काम मिल जाने से उसकी अनावश्यक और अवांछनीय घुड़दौड़ बंद हो जाती है। चित्तवृत्तियों के निरोध की आवश्यकता बहुत हद तक इससे पूरी होती है। इसके अतिरिक्त, आत्मशोधन का परिष्कृत जीवनक्रम अपनाने पर ही पूर्णता का— भगवत् प्राप्ति का लक्ष्य प्राप्त हो सकने की सच्चाई ह्रदयंगम होती है। दोनों ही प्रयोजन इस ध्यान-उपक्रम के साथ गायत्री उपासना करने से पूरे होते हैं।

गायत्री जप के अनंतर उसकी पूर्णाहुति सूर्य अर्घ्यदान के रूप में होती है। गायत्री का देवता, सविता— सूर्य है। गायत्री को सूर्य का मंत्र भी कहा जाता है। साकार हो अथवा निराकार गायत्री की प्रतिमा सूर्यसहित ही बनती है। गायत्री माता का साकार रूप होगा तो उसके मुखमंडल के इर्द-गिर्द सूर्य जैसा तेजोवलय चित्रित किया जाएगा। ‘सूर्यमंडल मध्यस्था’ शास्त्रवचन के अनुरूप ऐसे चित्र भी बने हैं, जिनमें सूर्यमंडल के बीच गायत्री माता का पूरा शरीर है। निराकार उपासक सूर्य जैसे प्रकाश-बिंदु को अपने ध्यान का आधार बनाते हैं। सूर्योपस्थान संध्यावंदन का महत्त्वपूर्ण अंग है। इन्हीं तथ्यों के साथ सूर्यार्घ्य की बात भी जुड़ी हुई है। गायत्री जप के समय जलकलश— एक छोटे लोटे में स्थापित किया जाता है और पूर्ण होने पर सूर्य के सम्मुख खड़े होकर जल की धार उस कलश से छोड़ते हुए अर्घ्यदान दिया जाता है।

यह पूर्णाहुति यद्यपि है तनिक-सी, पर उसका महत्त्व बहुत है। जल अपनी आत्मसत्ता का प्रतिक है और सूर्य समष्टिगत— सर्वगत ब्रह्मसत्ता का प्रतिनिधि है। जल को अर्थात अपने व्यक्तित्व की धार बाँधकर अनवरत गति से भगवान के चरणों पर लोक-मंगल के पुण्य प्रयोजनों पर समर्पित किया जाता है। इसी उत्साह के साथ परमार्थ जीवन की दिशा में बढ़ चलने का भाव-संकेत सूर्यार्घ्यदान में सन्निहित है। सूर्य भगवान के सम्मुख जल चढ़ाते हुए यही भावनाएँ उमड़नी चाहिए कि समर्पण योग की उच्चतम स्थिति प्राप्त करके रहेंगे। भगवान को जो महानतम देना था, सो वे मानव शरीर के रूप में दे चुके। इससे बड़ी संपदा उनके पास कुछ थी भी नहीं। अब अपनी बारी है कि अनुदान का प्रतिदान प्रस्तुत करें। अपनी विभूतियों और संपत्तियों को उनके चरणों पर, उनके उद्यान-विश्व को सुंदर-समुन्नत बनाने के लिए नियोजित-समर्पित करें।

वस्तुतः समर्पण ही योग-साधना की सबसे ऊँची और सबसे प्रभावी स्थिति है। जब मनुष्य अपनी समस्त ऐषणाएँ, तृष्णाएँ, लिप्साएँ भगवान के चरणों पर समर्पित करके कामनारहित बन जाता है और ईश्वरीय निर्देशों पर चलने की बात ही अंतःकरण के मर्मस्थल में बसा लेता है, तो स्वभावत: उसका चिंतन उत्कृष्ट और कर्तृत्व आदर्श स्तर का बन जाता है। उसी को, ब्रह्मज्ञानी को, ईश्वर भक्त को यथार्थ भूमिका कह सकते हैं। इसे जो आत्मा संपन्न कर सके, समझना चाहिए उसने ईश्वर के साथ अपना विवाह कर लिया। सर्वविदित है कि पतिव्रता पत्नी अपना शरीर और मन सर्वतोभावेन पति के चरणों पर समर्पित करती है और उसी की इच्छा के अनुरूप अपनी इच्छा, प्रकृति एवं क्रिया का निर्माण-निर्धारण करती है। फलस्वरूप पत्नीव्रता पति भी उस पर अपने प्राण निछावर करता है और अपने सर्वस्व की स्वामिनी घोषित करता है।

पत्नी को बेशक बहुत क्या, सब कुछ ही देना पड़ता है; पर बदले में उसे अपने से भी सुयोग्य-सहचर को कौड़ी मोल खरीद लेने का अवसर मिलता है। ठीक यही बात भक्त और भगवान के पारस्परिक संबंधो पर लागू होती है। जब भक्त अपना चिंतन और कर्तृत्व भगवान की आकांक्षा के अनुरूप ढालने वाला सच्चा समर्पण प्रस्तुत करता है तो बदले में भगवान भी उसे अपनी समग्रसत्ता समर्पित करा देते हैं। भक्त और भगवान को समतुल्य माना गया है— यही बात पति-पत्नी के संबध में भी लागू होती है। इस सघनता का, एकता का एकमात्र आधार पारस्परिक समर्पण भाव ही है। यदि वे इससे बचें और सस्ती वाचालता से एकदुसरे को बहकावें, स्वार्थ अपने-अपने अलग रखें तो फिर वेश्यावृत्ति जैसी स्थिति ही बन जाएगी। भक्त और भगवान के बीच सच्चा समर्पण ही सार्थक होता है। छद्द या बहकावे को भगवान भली प्रकार समझते हैं और ऐसे जाल-जंजाल की धूर्त्तता से कोसों दूर रहते हैं।

सूर्यार्घ्यदान के पीछे समग्र रूप में यही तत्त्वज्ञान सन्निहित है। यज्ञ में घृत की धार बाँधकर वसोर्धारा-विधान किया जाता है। अर्घ्य में भी वही भाव है। यज्ञ भगवान के प्रति अपना भाव-भरा स्नेह, बहुमूल्य पदार्थ, वैभव समर्पित करने का संकेत वसोर्धारा में है। सूर्यरूपी ब्रह्मयज्ञ में अपने सलिल व्यक्तित्व को समर्पित करके तुच्छता की परिधि तोड़कर महानता की भूमिका में विचरण करने वाला साधक वहाँ पहुँचता है, जहाँ पहुँचना जीवन का चरम लक्ष्य है। सूर्योपासना  बाह्यदृष्टि से अन्य कर्मकांडों की तरह ही एक साधारण उपचार-प्रक्रिया प्रतीत होती है, पर सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर उसमें वे सभी लक्ष्य जुड़े हुए दृश्यमान होंगे, जिन पर चरम आत्मोत्कर्ष की संभावनाएँ आधारित होती हैं।

‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ सूत्र के अंतर्गत अंधकार से बचकर प्रकाश की ओर चलने का जो संकल्प व्यक्त किया गया है, उसे अधिक स्पष्टतापूर्वक भाव-भूमिका में उभारने के लिए सूर्यदेवता की दिव्यज्योति से सहायता ले सकते हैं। प्रकाश के सम्मुख अंधकार नहीं ठहरता। सद्ज्ञानरूपी सूर्य अंत:करण में उदय है तो उन अंधकारो में भटकने का कोई कारण नहीं रह जाता, जिनकी भूल-भुलैयों में उलझे रहने से दिग्भ्रांत रहते हुए हम अपने प्रयाण-पथ से ही भटक गए। इस भटकाव को दूर करके, ईश्वर के अंशधारी राजकुमार को सत्य और तथ्य का दर्शन करा सकने योग्य प्रकाश की आवश्यकता है। कोई भी भावुक अंत:करण सूर्य को परमात्मा के प्रत्यक्ष और प्रचंड प्रकाश को सामने उपस्थित देखकर उसके सहारे जीवनयात्रा के सही मार्ग को समझने और उस पर चल पड़ने की प्रेरणा प्राप्त कर सकता है।

सूर्य अनुशासन का— नियमित क्रम-व्यवस्था का प्रतीक है। कर्मयोग उसकी विशेषता है। अपने आकर्षण में सौरमंडल के ग्रह-उपग्रहों को बाँधे भी हुए हे और प्रकाशवान भी कर रहा है, उन्हें गति भी दे रहा है। इसी मार्ग का हमें भी अनुसरण करना चाहिए। अपने को नियमित क्रमबद्ध कर्त्तव्यपरायण , प्रकाशपुंज, मनस्वी और तपस्वी बनाकर, लोक-मंगल के लिए अहर्निश संलग्न रहने के लिए तत्पर कर सकते हैं। अपने आकर्षण में असंख्य प्रतिभाओं को आबद्ध किए रह सकते है। अगणितों को प्रकाश दे सकते हैं। इस स्तर का व्यक्तित्व विनिर्मित किया जा सके, तो समझना चाहिए सूर्यभक्ति सार्थक हो गई। भक्ति का तात्पर्य ही इष्टदेव का अनुसरण-अनुगमन करना है।

हनुमान की भक्ति सच्ची थी। वे उधर ही चले जिधर भगवान राम ने चरण बनाए। अर्जुन ने कृष्ण के अंगुलि-निर्देश को ध्यान में रखकर ही अपनी समग्र रीति-नीति निर्धारित की। भक्ति का तरीका ही यह है। मात्र पूजा-पत्री की टंट-घंट से भक्ति का उद्देश्य कहाँ पूरा होता है। गायत्री मंत्र के देवता सविता की आराधना का संक्षिप्त, किंतु अतिप्रेरणाप्रद उपक्रम सूर्यार्घ्यदान है।

अध्यात्म की भाषा में प्रकाश शब्द का उपयोग सद्ज्ञान के अर्थ में होता है। ज्ञान अपने आप में परम ज्योति है। उससे अज्ञानांधकार दूर होता है। सूर्य को माध्यम मानकर उसकी परम ज्ञान की, तत्त्वज्ञान, ब्रह्मज्ञान की, आराधना की जाती है, जिससे अपने विविध-विधि अज्ञानांधकारों का निराकरण हो सके और दूर-दूर तक के क्षेत्र को प्रकाशित-प्रभावित करने की क्षमता प्राप्त हो सके। आसमान में चमकने वाला अग्निपिंड— भौतिक सूर्य तो मात्र अँधेरा ही दूर कर सकता है और सर्दी को हटाकर तापमान बढ़ा सकता है। जिस परम तेजस्वी सविता की हम उपासना करते हैं, अर्घ्य चढ़ाते हैं, वह उससे ऊँचा है— आगे है। वह प्रेरणा भरे सद्ज्ञान से ओत-प्रोत सविता है। वही हमारा परम उपास्य-आराध्य है। उदय-अस्त होने वाला सूर्य तो उसकी प्रतिभा भर कहा जा सकता है। दृश्य-प्रतिमाओं के आधार पर जिस प्रकार परब्रह्म की शक्तियों के प्रति आस्था चढ़ाते हुए— परब्रह्म सविता देवता की प्राण-प्रेरणा का आह्वान करते हैं और जलधारा चढ़ाते हुए उसमें अपना उत्सर्ग करने का संकल्प व्यक्त करते हैं।

चढ़ाया हुआ जल भूमि पर गिरता है और सूर्य की गर्मी से भाप बनकर अनंत आकाश में बिखर जाता है। पीछे वह ओस, बादल आदि बनकर भूमि की तृष्णा और वनस्पतियों की आवश्यकता पूरी करते हुए अपने को धन्य बनाता है। उपास्य सविता देवता हमारे क्षुद्र कलश में भरे हुए सलित व्यक्तित्व को यदि अर्घ्यरूप में स्वीकार कर सकें तो निश्चय ही वे हमें बादल बनकर अनंत में बिखर जाने और वर्षा-बिंदुओं में परिणत होकर इस वसुधा की तृष्णा शांत करने की प्रेरणा देंगे। यदि ऐसा अनुदान-वरदान मिल सके, तो समझना चाहिए कि गायत्री उपासना के अंत में प्रस्तुत की जाने वाली पूर्णाहुति सूर्यार्घ्यदान-प्रक्रिया सार्थक एवं फलित हो गई।


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