सोमरस पान की दिव्य अनुभूति

June 1973

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प्रत्यावर्तन-प्रक्रिया की ब्रह्ममुहूर्त्त साधना में सर्वप्रथम डेढ़ घंटे की खेचरी मुद्रा साधना है। इसमें पंद्रह मिनट शरीर को ढीला करना, पंद्रह मिनट मन को खाली करना और तदुपरांत एक घंटे जिह्वा को उलटकर तालू से लगाना, धीरे-धीरे सिहलाना और उस आधार पर अमृत बिंदु की मधुरता और ब्रह्मानंद की चरम संवेदना का अनुभव करना— सामान्यतया यही खेचरी मुद्रा है। यों उपरोक्त तीन कार्यक्रम प्रथक-प्रथक प्रतीत होते हैं; किंतु वस्तुतः वे एक ही हैं। शरीर को ढीला और मन को खाली किए बिना कोई ध्यान सही रूप से जम नहीं सकता। इसलिए इन पंद्रह-पंद्रह मिनट के दो उपक्रमों को तो खेचरी-साधना के साथ जुड़े हुए दो चरण ही कहना चाहिए, जिसके बिना गति आगे बढ़ती ही नहीं।

यह साधना ब्रह्म और जीव के बीच संबध-सूत्र को सुसंचालित करती है और उनके बीच आदान-प्रदान में जो अवरोध उत्पन्न हो गया है, उसे समाप्त करके संचार-शृंखला में पुनर्जीवन उत्पन्न करती है।

पेंडुलम गति में ही यह सारा विश्व अपना कार्य-संचालन कर रहा है। ह्रदय की धड़कन, श्वासोच्छ्वास, आकुंचन-प्रकुंचन कर्म, विश्राम प्रवृत्ति सभी शारीरिक क्रियाकलाप पेंडुलम गति से ही चल रहे हैं। रात-दिन, सर्दी-गर्मी, गति-अवगति, पदार्थ-प्रतिपदार्थ जैसे प्रकृतिगत स्पंदन भी इसी क्रम से चल रहे हैं। जन्म-मरण, उत्थान-पतन, देव-असुर, राग-द्वेष, पुण्य-पाप जैसे उभयपक्षीय जीवन की गतिविधियों को भी इसी के स्तर की मानी जा सकती है। गर्भाधान-प्रक्रिया के आघात-प्रतिघात इसी एक प्रकार से पेंडुलम स्तर के ही हैं। समुद्र में निरंतर उठने वाली लहरें, ज्वार-भाटे, कृष्ण पक्ष, शुक्ल पक्ष, उदय-अस्त, प्रकाश और ध्वनि के तरंग-कंपन आदि की विविध-विधि विश्व हलचलों पर जिधर भी दृष्टिपात करते हैं, उधर ही यह प्रतीत होता है कि पेंडुलम गति के आधार पर मात्र घड़ियाँ ही नहीं चलती, यहाँ सब कुछ उसी रीति-नीति से गतिशील हो रहा है।

प्रकृति और पुरुष का संयोग-संभोगक्रम घड़ियाल पर हथौड़े की चोट पड़ने की तरह चलता है। यहीं से ॐकार ध्वनि की झंझनाहट-थरथराहट होती है। ईश्वर का स्वघोषित नाम ‘ॐ’ इसलिए है। पराप्रकृति के अंतराल में यही ॐकाररूपी आघात-प्रतिघात चलते रहते हैं। शक्ति वहीं से उत्पन्न होती है और सृष्टि में विविध-विधि हलचले उत्पन्न करती हैं।

परमात्मा का आत्मा के साथ निरंतर पेंडुलम गति से ही मिलन-संपर्क चलता रहता है। इस संस्पर्श की अनुभूति— (१) आनंद और (२) उल्लास के रूप में रहती है। सामान्य स्थिति में तो इसकी प्रतीति नहीं होती, पर खेचरी मुद्रा के माध्यम से उसे अनुभव किया जा सकता है। भगवान की मनुष्य को दो प्रेरणाएँ हैं। जो उपलब्ध है, उसकी गरीमा को समझते हुए, संसार के सुखद पक्ष का मूल्यांकन करते हुए— संतुष्ट, प्रसन्न और आनंदित रहना— यह है आनंद का स्वरूप। उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व की दिशा में साहस भरे कदम उठाने के लिए अदम्य उत्साह का, भाव-भरी उमंगो का उठना— यह है उल्लास। भगवान इन्हीं दो प्रेरणाओं को निरंतर पेंडुलम गति से प्रदान करते रहते हैं। मानव जीवन जैसी सृष्टि की अनुपम उपलब्धि को पाकर यदि अंत:करण आनंदित रहे और छोटे-मोटे अभावों की ओर अधिक ध्यान न देकर चारों ओर बिखरी हुई सदाशयता का अनुभव करते हुए, संतुष्ट-संतुलित रहे, तो समझना चाहिए, आनंद की उपलब्धि हो रही है। हर्षातिरेक में उछलने-कूदने या बढ़-चढ़कर शेखीखोरी की बातें करने का नाम आनंद नहीं है। उस स्थिति में दृष्टिकोण परिपक्व और परिष्कृत हो जाता है, इसलिए जिन अभावों और असफलताओं में दूसरे लोग उद्विग्न-उत्तेजित हो उठते हैं, उन्हें वह विनोद-कौतुक भर समझते हुए अपनी मन:स्थिति को संतुलित बनाए रहता है। जिनकी मनोभूमि ऐसी हो, उसे आनंद की प्राप्ति हो गई, ऐसा कहा जा सकता है।

 संतुष्ट या प्रसन्न होने में एक दोष यह है कि अपूर्णता से पूर्णता की ओर चलने के लिए जिस कठोर कर्मठता की जरूरत पड़ती है, उसे प्राय: भुला ही दिया जाता है। ऐसी भूल करने वाले अध्यात्मवादी प्राय: निकम्मे, निखट्टू, अकर्मण्य, आलसी, प्रभावी और बुराइयों, बुरी परिस्थितियों से समझौता कर लेने वाले भाग्यवादी— पलायनवादी बन बैठते हैं। उससे उनकी अपनी समग्र प्रगति का द्वार तो बंद हो ही जाता है, साथ ही समाज के लिए, प्रखर कर्त्तव्यपालन के लिए जो महान उत्तरदायित्व मनुष्य के कंधो पर होते हैं, वे भी अवरुद्ध हो जाने से लोक-मंगल के लिए मानवी योगदान में भी भारी क्षति पहुँचती है। इससे धर्मसंस्थापन को और अधर्म के निराकरण के ईश्वरीय प्रयोजन को भारी क्षति पहुँचती है। मनुष्य का अवतरण जिन महान कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वो का प्रचंड प्रयत्नशीलता के साथ निर्वाह करने के लिए हुआ है, यदि उनमें शिथिलता आ गई तो समझना चाहिए कि जीवित ही मृतक बन जाने जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई। यदि आनंद या संतोष की प्राप्ति किसी अध्यात्मवादी में इस प्रकार की अकर्मण्यता उत्पन्न कर दे, तो समझना चाहिए कि बिलकुल उलटा हो गया और अर्थ का अनर्थ बन गया।

उल्लास इस प्रकार की अवांछनीय मन:स्थिति बनने की गुजांयश नहीं छोड़ता। भगवान निरंतर आनंद के साथ-साथ उल्लास भी प्रदान करते हैं और उच्चस्तरीय प्रयत्नों के लिए प्रचंड कर्मठता अपनाने के लिए अदम्य स्फूर्ति एवं उमंग उत्पन्न करते हैं। उल्लास जब अपनी प्रौढ़ावस्था में होता है तो वह इतना प्रखर होता है कि प्रस्तुत कठिनाइयों, अभावों, अवरोधों की चिंता न करते हुई ईश्वरीय संदेश के अनुरूप अपनी रीति-नीति निर्धारण करने के लिए मचल उठता है। किसी के रोके नहीं रुकता। लोभ और मोह के भवबंधन यों सहज नहीं टूटते और कुसंस्कार तथा स्वार्थसंबंधी शुभचिंतक ऐसी भावनाओं को क्रियान्वित होने में पग-पग पर विरोध उत्पन्न करते हैं; पर जिसे उल्लास प्राप्त है, उसे आत्मकल्याण और ईश्वरीय निर्देशों के पालन की दिशा में ही अग्रसर होना होता है। कठिनाइयाँ क्यों आती हैं और रोक-थाम कौन-कौन करते हैं? उसकी चिंता नहीं करता। फलस्वरूप ‘जहाँ चाह वहाँ राह’ वाली बात बन ही जाती है। जिसे उल्लास की उपलब्धि मिल गई, उसे महापुरुषों जैसे महान कर्त्तव्यपालन करते रहने के अनवरत अवसर निर्वाध गति से मिलते ही रहते हैं।

परमात्मा का सम्मिलन संवाद पेंडुलम गति से आनंद और उल्लास के रूप में आत्मा को प्राप्त होता है। भगवान किसी से वार्त्तालाप किसी शब्दावली में नहीं करते। वे बेकार की बकवास नहीं करते; वरन् अतिसंक्षिप्त में अतिमहत्त्वपूर्ण— सारभूत प्रेरणाएँ दो ही संकेतो में देते रहते हैं। टेलीग्राफ की डैमी ‘गर’ और ‘गटट’ दो ही ध्वनियाँ निकालती है और उसी से लंबे-चौड़े संवादों की शृंखला बनाती रहती है। हर व्यक्ति अपनी परिस्थिति और क्षमता के अनुरूप अपनी कार्यपद्धति का निर्धारण कर सकता है, इसमें भगवान का हस्तक्षेप नहीं कि किसी उत्कृष्ट जीवनयापन के लिए अपनी दिनचर्या या क्रिया-प्रक्रिया क्या बनानी-अपनानी चाहिए, यह सब अपने निर्णय की बात है। भगवान केवल दिशा देते हैं। हिमालय का ह्रदय वेधकर गंगा-यमुना की पुण्य धराएँ प्रवाहित होती हैं और समुद्र से मिलने की दिशा में निरंतर चलती रहती हैं। कहाँ घाट, पुल या नहरे बनें? पानी का कहाँ, क्या उपयोग हो? यह दूसरों का काम है। हिमालय पवित्र धाराओं का सृजन करके उन्हें समुद्र में मिलने के लिए प्रेरणा देकर अपने उत्तरदायित्व से निवृत्त हो जाता है, ठीक इसी प्रकार परमात्मा भी आत्मा को दो ही प्रेरणा देते हैं। अंत:जीवन में आनंदित रहो, बाह्यजीवन में भी उल्लास भरी उत्कृष्ट कर्मठता बरतो। दोनों प्रेरणाओं को कौन, किस प्रकार कार्यान्वित करे, यह निर्णय-निर्धारण करना मनुष्य का अपना काम है। इसके लिए उसे अपनी परिस्थितियों और क्षमताओं के साथ तालमेल बिठाना पड़ता है, अस्तु इसके लिए व्यक्तिगत चिंतन की ही आवश्यकता पड़ती है।

खेचरी मुद्रा में जिह्वा को तालु से लगाने और धीरे–धीरे सहलाने पर जिस अमृत रसास्वादन का लाभ मिलने की चर्चा की गई, वह कभी-कभी मधु जैसी मिठास के रूप में अनुभव होती है। मनीषियों ने उसे सोमरस भी कहा है और बताया है कि उसमें मादकता होती है। आंतरिक मस्ती को भौतिक मादकता के समतुल्य माना जाए तो यह उसकी संगती बैठ ही जाएगी। उच्चस्तरीय भावनाओं का उद्वेग वस्तुतः एक अद्भुत मस्ती लिए हुए होता है। उसमें आनंद भी असीम रहता है और अवरोधों को कुचलते हुए निर्धारित दिशा में बढ़ चलने का साहस भी। इसलिए उस मस्ती को सोमरस की व्याख्या में वर्णित बहुचर्चित मादकता माना जाए तो वह अलंकारिक वर्णन कुछ अनुपयुक्त नहीं कहा जाएगा। जिह्वा को मधुरस प्रिय लगता है, अमृत को भी मीठा कहा गया है, खेचरी मुद्रा में जिह्वा और तालु के स्पर्श में कुछ इसी प्रकार की मिठासप्रधान स्वाद की अनुभूति होती है और लगता है, उसमें कुछ मस्ती मादकता भी है। सोमपान के आनंद की अनुभूति और उल्लास भरी साहसिकता किस प्रकार की होती है, इसे खेचरी मुद्रा का साधक अपने स्तर के अनुरूप यात्रा में अनुभव करता चलता है।

बीच-बीच में मुँह में पानी भर जाता है, उसे निगलते रहना चाहिए। जीभ जब थक जाती है तो उसे विश्राम देने के लिए बीच में कुछ मिनटों के लिए क्रिया को बंद भी कर देते हैं, चुँकि प्रत्यावर्तन सत्र में एक घंटे के लिए इसे रखा गया है, इसलिए बीच में विराम— विश्राम की आवश्यकता पड़ती है। सामान्यतया दैनिक अभ्यास में इसे पंद्रह मिनट तक करना पर्याप्त होता है, तब उसे बीच में रोकना नहीं पड़ता।

खेचरी मुद्रा की सिद्धियों का हठयोगग्रंथो में विस्तारपूर्वक वर्णित है। यह बताया गया है कि उस साधना द्वारा किस प्रकार अलौकिक अतींद्रिय क्षमताएँ प्राप्त होती हैं। वर्षाऋतु आने पर जिस प्रकार सुखी हुई घास हरी हो जाती है, उसी प्रकार खेचरी मुद्रा द्वारा अनंत आकाश से चेतनतत्त्व की वर्षा कराई जाती है और उससे सुषुप्त मूर्छा में पड़े हुए महत्त्वपूर्ण शक्ति-संस्थान सहज ही सजीव होते हैं और मनोरम हरितमा के रूप में पुष्पित, सुगंधित, सुरभित दृष्टिगोचर होते हैं। अमृत का गुण मृतक को जीवित करना और जीवित को अमर बनाना है। यह दोनों ही लाभ परिक्षा रूप में खेचरी मुद्रा के साधक को मिलते हैं।

काय-कलेवर के अंतर्गत षट्चक्र, तीन ग्रंथियाँ, बावन उपत्यिकाएँ, सप्तलोक, सप्तदेव जैसे वे शक्तिकेंद्र अवस्थित हैं, जिन्हें यदि मूर्छा से विरत करके जागृत स्थिति तक पहुँचा दिया जाए तो मनुष्य अलौकिक और अद्भुत क्षमताओं से भरा-पूरा दृष्टिगोचर होने लगता है। इन सिद्धियों का स्तर व्यक्ति की सूक्ष्मसंरचना के अनुरूप होता है। जिसके शरीर और मन में जो विशेषताएँ प्रखर है, सिद्धियाँ भी उसी स्तर की मिलती देखी गई हैं।

सर्वविदित और हर किसी के लिए प्रत्यक्ष सिद्धि यह है कि खेचरी मुद्रा का साधक अंतर्मुखी बनता है और अपने अंतर का गहन निरीक्षण करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि प्रगति और शांति के समस्त साधन अपने ही भीतर विद्यमान हैं। कषाय-कल्मषों ने उन्हें मृतप्राय: बनाया है। उसी से बाहर के व्यक्तियों की वस्तुओं का उत्थान-पतन का सुख-दुःख का कारण समझने के भ्रम में फँसना पड़ता है। यदि अंतरंग क्षेत्र को निखारा गया आत्मचिंतन, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण और आत्मविकास के चतुर्विध महापुरुषार्थों का आश्रय लिया जाए, तो मनुष्य को लघु से महान बनने के मार्ग में फिर कोई अवरोध शेष नहीं रहा जाता। इस स्तर का प्रकाश मिल जाने पर फिर मनुष्य आत्मपरिष्कार की योजना बनाकर उसी को कार्यान्वित करने में संलग्न हो जाता है। इस दिशा में चल पड़ने वाले व्यक्ति का नर से नारायण बन जाना सुनिश्चित है। खेचरी मुद्रा हमें इसी स्तर के लाभों से लाभान्वित करती है।




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