शिव गीता में भगवान शङ्कर इस भाव-साधना को ही सर्वोत्तम बताते हैं —
आत्मपूजासमा नास्ति पूजा रघुकुलोद्भव ।।
मत्सायुज्यमवाप्नोति चण्डालोऽप्यात्मपूजया ।।
— शिव गीता
अपने आत्मा में जो पूजन करता है, उसकी बाराबर दूसरी पूजा नहीं। आत्मा में पूजन करने हारा।
चांडाल भी मेरे लोक को प्राप्त होता है। संपूर्ण शुभकर्म आत्मा ही के अर्पण करना, उसी का विचार करना पापाचरण न करना, यही आत्मा की पूजा है।
स होवाच बालाकिर्य एवैष आदर्शे पुरुषस्तमेवाहमुपास इति ।
स होवाच बालाकिर्य एवैष प्रतिश्रुत्कायां पुरुषस्तमेवाहवा अहमतमुपास इति
स होवाच बालाकिर्य एवैष शब्दः पुरुषमन्वेति तमेवाहमुपास इति ।
— कोषीकि ब्रह्मयोग उपनिषद् 4/10
बालाकिर्य गार्य ने कहा — "इस दर्पण में स्थिति पुरुष की मैं ब्रह्मभाव से उपासना करता हूँ। प्रतिध्वनि में निहित पुरुष को ब्रह्म मानकर उपासना करता हूँ। गमनशील पुरुष के पीछे जो ध्वनिमुक्त पदचाप सुनाई पड़ती है, उसमें जो ब्रह्म है, उसी की मैं उपासना न करता हूँ।"
स होवाच बालाकिर्य एषैव छायायां पुरुषस्तमेवाहमुपास इति ।
स होवाच बालिकिर्य एवैष शारीरः पुरुष स्तमेवाहमुपास इति ।
स होवाच बालाकिर्य, एवष प्राज्ञ आत्मा येनैतत् सुप्तःस्वप्नयया चरति तमेवाहमुपास इति ।
देहधारी के साथ जो छाया रहती है, उस छाया पुरुष की ब्रह्मरूप से उपासना करता हूँ। यह जो पुरुष शरीर में निवास करता है, मैं उसे ब्रह्म मानकर उपासना करता हूँ।