आत्मशोधन की प्रायश्चित-प्रक्रिया

June 1973

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आत्मविश्लेषण, आत्मशोधन और आत्मपरिष्कार की प्रत्यावर्तन-प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग है— अपने पिछले जीवन की समीक्षा। इसमें जहाँ सत्कर्मों पर प्रसन्नता और संतोष का अनुभव होना चाहिए, वहाँ यह भी आवश्यक है कि अपने पापों और दुष्कर्मों पर भी गहरी दृष्टि डाली जाए और उनका पश्चात्ताप-प्रायश्चित किया जाए।

अध्यात्म दर्शन की सुदृढ़ मान्यता है कि कर्मों का फल अवश्यंभावी है। उस विधान से कोई भी यहाँ तक कि ईश्वर भी नहीं बच सका है। परमात्मा ने यह सृष्टिक्रम और नियम-व्यवस्था के अनुसार बनाया है। यहाँ सब कुछ एक विधान, अनुशासन के अनुरूप चल रहा है। वे नियम परमात्मा ने बनाए हैं, पर अपने को भी उन्हीं में आबद्ध कर लिया है। भले ही मर्यादाओं का उल्लंघन करने की क्षमता उसमें हो, पर वह वैसा करता अपने लिए भी नहीं है, अन्यथा उच्छृंखलता और अनुशासनहीनता की अव्यवस्था सर्वत्र फैल जाएगी। विधान निर्माता ही विधान को तोड़ें तो फिर दूसरों को वैसा करने से कैसे रोका जा सकेगा?

भगवान राम ने छिपकर बाली को तीर मारा, जब राम का अवतार कृष्ण रूप में हुआ तो बालि ने बहेलिया बनकर तीर से कृष्ण का प्राण ले लिया। राम के पिता दशरथ ने श्रवणकुमार को तीर मारा,  उसके पिता ने शाप दिया कि इस वधकर्त्ता को भी मेरी ही तरह पुत्रशोक में बिलखकर मरना पड़ेगा। वैसा ही हुआ भी। रामचंद्र जी अपने पिता तक की सहायता न कर सके, दशरथ पुत्रशोक में बिलख-बिलखकर मरे। सुभद्रा ने जब कृष्ण को उलाहना दिया कि तुम मेरे पुत्र अपने भानजे अभिमन्यु की भगवान होते हुए भी रक्षा न कर सके तो उन्होंने यही कहा— “प्रारब्ध बहुत कठिन है, उसे मिटाना मेरे बस की बात भी नहीं है।”

अज्ञानांधकार के युग में ये भ्रांतियाँ फैलाई अवश्य गई हैं कि अमुक नदीस्नान, तीर्थयात्रा, देवदर्शन, पूजा-पाठ, कथा-कीर्तन अथवा कर्मकांड से पापों का दंड भुगतने से छुटकारा मिल जाता है, पर वैसा वस्तुतः है नहीं। उस कथन का अभिप्राय इतना ही हो सकता है कि पापवृत्तियों दुष्कर्मों की ओर बहाने वाली ललक घट या मिट जाए। कर्मदंड से बचने का एक ही उपाय है कि समय रहते उसका प्रायश्चित कर लिया जाए। प्रायश्चित का अर्थ भी कोई छुट-पुट कर्मकांड नहीं; वरन समाज को जो क्षति पहुँचाई है, उसकी पूर्ति करना है। हम ने गंदगी फैलाई है तो हमारा ही कर्त्तव्य है कि उसकी सफाई करें। रास्ते में गड्ढा खोदने वाले का ही कर्त्तव्य है कि उसे पाटे और राहगीरों के लिए टाँग टूटने का जो खतरा उत्पन्न किया है, उसे दूर करें। पश्चात्ताप करना भी उचित है, ताकि वैसी भूलें फिर न हों। ऐसे प्रसंगों में चंद्रायण व्रत सरीखे कुछ तप-साधन भी जुड़े रहने चाहिए।

चोरी करने वाला यदि सद्बुद्धि आने पर चुराया धन वापिस करने और अपनी भुल पर दुःख प्रकट करे तो उससे दुष्कर्म की भरपाई हो जाती है। कटुवचन बोलने पर जिसका जी दुःखा है, उसे संतुष्ट करने जितना भाव भरा अनुनय-विनय कर ले और उसके दुःखे हुए जी को हलका कर दे तो समझना चाहिए कि प्रायश्चित हो गया। जिसकी चोरी की थी, प्रायः उसको वही माल लौटाना संभव नहीं रहता। समय बीत जाने पर न वह वस्तुएँ रहती हैं और न व्यक्ति। ऐसी दशा में यही मानकर चलना पड़ता है कि समस्त समाज एक इकाई है, व्यक्ति उसके घटकमात्र हैं। व्यक्तियों को पहुँचाई गई अवांछनीय क्षति प्रकारांतर से समाज की ही क्षति है, अस्तु समाज को अतिरिक्त सुख पहुँचाकर उस पापकर्म की क्षतिपूर्ति की जा सकती है। पाप का बदला पुण्य से चुकाया जा सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार जितने वजन के पाप हुए हैं, प्रयत्न यह होना चाहिए कि उतने ही वजन के अतिरिक्त पुण्यकर्म किए जाएँ और पाप-पुण्य का पलड़ा बराबर किया जाए। इस प्रक्रिया का अवतिलंबन लेने से पापकर्मों के कारण अंतरात्मा पर जो अतिरिक्त भार पड़ गया था, उसे हलका किया जा सकता है।

प्रत्यावर्तन सत्र के हर साधक को समझाया जाता है कि उसे अपने सभी पाप स्मरण करने चाहिए और उन्हें पेट में गाँठ बाँधकर रखने की अपेक्षा कम-से-कम एक व्यक्ति को इस सत्र के संचालक को विस्तारपूर्वक घटनाक्रम के साथ बता देना चाहिए। इससे साधक का जी हलका होगा और प्रायश्चित करने की रीति-नीति का परामर्श मिलेगा।

मनोविज्ञानशास्त्र के अनुसार, दुरित-दुरावों की मानसिक ग्रंथियाँ बनती हैं और वे कालांतर में शारीरिक-मानसिक रोगों के रूप में फूटती हैं, व्यक्तित्व को विकृत करती हैं। अस्तु वे मानसिक रोगियों को अपना जीवनक्रम बिना दुराव चिकित्सक के सामने विस्तारपूर्वक वर्णन करने को कहते हैं। इस प्रकार रोगी जब सब कुछ भला-बुरा कर सकता है तो उसका जी हलका हो जाता है। अंतःचेतना पर पड़ा हुआ दबाव घट जाता है। फलस्वरूप रोगी का मानसिक कष्ट घट जाता है।

इस मनोवैज्ञानिक चिकित्सापद्धति में अध्यात्म चिकित्सा विज्ञान इतना और जोड़ता है कि मात्र कह देना ही काफी नहीं, वरन समाज को पहुँचाई क्षति की पूर्ति भी करनी चाहिए। अन्यथा वाणी से कह देने पर जी तो हलका हो जाएगा, पर किए गए पाप का अंतःकरण पर लदा हुआ बोझ हलका न हो सकेगा। उसका प्रायश्चित क्षतिपूर्ति के साहसिक कदम बढ़ाने से ही हो सकता है।

प्रत्यावर्तन सत्र में आने वालों को अपने अंतःकरण के दुराव-परतों को खोलने के लिए, भूलों की भविष्य में पुनरावृति न करने के लिए तथा क्षतिपूर्ति के लिए साहसिक कदम बढ़ाने को कहा जाता है। इस प्रकार आत्मशोधन का महत्त्वपूर्ण प्रयोजन पूरा होता है। यह पाप भार ही है जो उपासना में मन नहीं लगने देता, साधनाक्रम में विघ्न बनकर खड़ा होता है, चित्त का उच्चाटन करता है— श्रद्धा नहीं जमने देता। इस प्रकार उपासना की दिशा में उठाए गए कदम प्रायः लँगड़े-लूले, अधूरे-असफल रह जाते हैं। यदि आत्मशोधन की प्रायश्चित प्रक्रिया पहले अपना ली जाए तो कपड़े को धोने के बाद रँगने की तरह साधना का प्रतिफल भी संतोषजनक होता है।

पिछले किए हए दुष्कर्म मनोवैज्ञानिक ग्रंथि बनकर अंतःकरण में जम जाते हैं और चुपके-चुपके यह प्रयत्न करते हैं कि कोई आकस्मिक विपत्ति बुलाकर उस भार का परिशोधन कर डालें। विपत्तियाँ अनायास तो आती नहीं। उन्हें बुलाने के लिए किसी नई दुर्बुद्धि का सृजन होता है। उसी के फलस्वरूप संकट उत्पन्न होता है और पिछले पाप का कठोर दंड मिलता है। एक पाप दूसरे पाप की प्रेरणा देता है और जब तक वह मवाद निकल नहीं जाता, एक के बाद दूसरी फुंसियाँ उठती-फूटती रहती हैं। प्रगतिशील जीवन के पथ में यह भारी बाधा है। इसे दूर करने के लिए प्रायश्चित की तपश्चर्या अपनाना हर दृष्टि से उपयोगी है। व्यक्ति का मनःक्षेत्र जहाँ अवांछनीय भार से हलका होता है भावी कर्मभोगों से निश्चिंतता मिलती है, वहाँ समाज को भी लाभ होता है। प्रायश्चित के आधार पर किए गए पापकर्मों के बदले जो पुण्यकर्म किए गए हैं, वहाँ उत्पन्न हुई कुरूपता को सौंदर्य में बदलने का अवसर मिलता है। शुभकर्मों की परंपरा चलने से व्यक्ति द्वारा भूतकाल में चलाई पाप-परंपरा की काट हो जाती है। इस प्रकार समाज में पतनकारी जो तत्त्व उत्पन्न किए गए थे, उनका निराकरण भी पुण्यरूप सत्कर्म कर देते हैं।

पंचगव्य और हविष्यान्न (तिल, जौ, चावलों) को प्रत्यावर्तन सत्र के साधक प्रतिदिन ग्रहण करते हैं। इसमें शास्त्रीय प्रायश्चित परंपरा का समावेश है। विधिवत् यह संस्कारित आहार, मन और शरीर के शोधन में बहुत सहायक होता है। चार दिन की तपश्चर्या साधना भी संचित मलीनता के निराकरण में सहायता करती है। शान्तिकुञ्ज का वातावरण भी शोधन और समाधान की दृष्टि से बहुत उपयुक्त है। इस दृष्टि से कुछ बार तो यहाँ ऐसे ही हलका होता है, शेष के लिए पूण्य-संवर्द्धन के लिए कुछ साहस करने की विशेष विधि-व्यवस्था सोची जाती है।

प्रत्यावर्तन सत्र में सम्मिलित होने वाले साधक, संचालक को अपने दुष्कर्मों का विवरण लिखित अथवा मौखिक रूप से इस विश्वास के साथ प्रस्तुत करते हैं कि सुनने वाले के अतिरिक्त वह विवरण अन्य किसी पर भी प्रकट न किया जाएगा। यदि लिखित है तो उसे एक दिन बाद वापिस कर दिया जाएगा। इस आत्मिक साहसिकता का प्रभाव तुरंत चित्त में हलकापन आने के रूप में दृष्टिगोचर होता है। प्रायश्चित के लिए प्रायः यही परामर्श दिए जाते हैं कि समाज में पुण्य-परंपराएँ प्रचलित करने के लिए उन्हें उतने या न्यूनाधिक वजन के सत्कर्म करने चाहिए, जितना कि पापकर्मों का भार है। पुण्य-प्रवृत्तियों का अभिवर्द्धन करने से कर्त्ता के चित्त में जो संतोष होगा, उससे स्वभावतः वे घाव भरेंगे जो दुष्कर्मों ने अंतःकरण में कर रखे थे और जो आत्मग्लानि के, आत्मप्रताड़ना के रूप में निरंतर कसकते और रिसते थे।

चोरी, व्यभिचार, बेईमानी, छल, क्रूरता जैसे दुष्कर्मों को पाप नाम से सहज ही जाना जाता है और उन अवांछनीय घटनाक्रमों का स्मरण भी सहज हो आता है, ये सामाजिक पाप हैं। आत्मिक पाप इससे भी बढ़े-चढ़े और भयावह हैं। हम आत्महत्या और ब्रह्महत्या करते रहते हैं और यह सोचते भी नहीं कि इस प्रकार के जघन्य कर्म हम निरंतर करते जा रहे हैं।

स्पष्ट है कि आत्मा को अगणित दुःखद योनियों में भ्रमण करने के उपरांत एक मनुष्य जन्म ही उद्धार के लिए मिला है। यदि यह सु-अवसर ऐसे ही पशु-प्रवृत्तियों में गवा दिया जाता है तो फिर उन्हें कष्ट भरी दुःखद योनियों में भ्रमण करना पड़ेगा। आत्मा को सु-अवसर का लाभ उठाने से वंचित रखना और फिर उसी यंत्रणा भरे कुचक्र में दुःसह, दुःख सहने के लिए धकेल देना निश्चित रूप से आत्महत्या है। उसका प्रायश्चित लगभग चौरासी लाख वर्ष पर्यंत भोगना पड़ेगा। एक योनि में ओसतन एक वर्ष तो रहना ही पड़ेगा।

ब्रह्महत्या का तात्पर्य यहाँ ईश्वर के अरमानों को चकनाचूर कर देना है। उसने अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य को जो असाधारण और अद्भुत अनुदान दिए हैं, उसका एकमात्र प्रयोजन यह है कि इसके अतिरिक्त विभूतियों का उपयोग वह उसके विश्व-उद्यान को समुन्नत-सुरभित बनाने के लिए करेगा, किंतु जब हम उसे अंगूठा दिखाकर लोभ, मोह की गंदगी चाटने में लग पड़ते हैं तो निश्चित रूप से परमात्मा के उस प्रयोजन की, अरमान की हत्या हो जाती है, जो उसने लगभग अपनी ही जितनी क्षमता वाला काय-कलेवर हमें देते समय सँजोया था। निश्चित रूप से यह ब्रह्म के अरमानों का हनन करने वाली ब्रह्महत्या ही कही जा सकती है।

भले ही विषपान करके आत्महत्या न की गई हो और साधु-ब्राह्मण का कत्ल करने जैसी ब्रह्महत्या न बन पड़ी हो, पर जिस रीति-नीति के साथ जीवन प्रक्रिया चलाई जाती रही है, उसे आत्महत्या और ब्रह्महत्या का सम्मिलित दुष्कर्म ही कह सकते हैं। यह पाप कम मात्रा में नहीं हुआ। जीवन का महत्त्वपूर्ण भाग अब तक इसी कुचक्र में गँवाया जा चुका। यदि उस पाप की गरिमा और उसके दंड पर विचार करें तो रोमांचकारी विभीषिका सामने खड़ी दिखाई पड़ेगी। योनियों के कुचक्र में भ्रमण, आत्महत्या का और ईश्वर का चरम कोप ब्रह्महत्या का दंड होता है। इन दोनों प्रताड़नाओं से कितनी कष्टकारक व्यथाएँ सहनी पड़ सकती हैं, इसकी कल्पना की जाए तो चौरासी नरक के होने वाले उत्पीड़न की जो तस्वीरें बाजार में बिकती हैं, उससे हलका नहीं, भारी संकट ही सामने खड़ा दृष्टिगोचर होगा।

यह मान्यता सर्वथा मिथ्या है कि छुट-पुट पूजा-पत्री या कर्मकांडी टंट-घंट आत्मकल्याण अथवा ईश्वर अनुग्रह का लक्ष्य प्राप्त करा सकते हैं। उपासनात्मक उपचार तो रेलवे लाइन पर खड़े सिंगनल, सड़क पर लगे संकेतपट मात्र हैं, जो दिशा निर्देश भर करते हैं। काम तो सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने और पुण्यकर्म करने से चलता है। पाप भी तो दुष्कर्मों से घटनाक्रम एवं क्रियाकलाप से ही बने थे। पुण्य-प्रायश्चित भी उसी स्तर का घटनाक्रम एवं क्रियाकलाप अपनाने से पूरा हो सकता है। यदि पूजा स्तर के पाप हुए होते तो वे पूजा स्तर के पुण्य से कट सकते थे। कर्म की काट तो कर्म से ही हो सकती है, इसलिए प्रायश्चित द्वारा आत्मशोधन का, आत्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त करना पड़ता है। यहाँ वैसा ही सत्साहस दिखाने की जरूरत पड़ती है, जैसा कि दुष्कर्म करते समय किसी को भी न सुनने जैसा दुस्साहस किया गया था।

समग्र प्रायश्चित की दृष्टि से यही उचित है कि भावी जीवन का यह एक अविच्छिन्न क्रम बनाया जाए कि ईश्वरप्रदत्त विभूतियों का एक बड़ा अंश सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन के लिए लगाया करेंगे। 24 घंटा समय में से 8 घंटा कमाने के, 7 घंटा सोने के, 5 घंटा फुटकर कार्यों के लिए रख ले तो 20 घंटे भौतिक जीवन के लिए शरीर, मन और परिवार की आवश्यकता पूर्ति के लिए पर्याप्त होने चाहिए। शेष चार घंटे का श्रम परमार्थ-प्रयोजनों में लगाया जा सकता है। घर-परिवार के सदस्यों में एक सदस्य परमार्थ को भी जोड़ लिया जाए तो एक कुटुंबी पर खरच होने वाला व्यय, लोक-मंगल के लिए नियोजित हो सकता है। घर में एक बच्चा यदि और होता तो किसी प्रकार उसका भी पालन-पोषण करना ही पड़ता। यही बात परमार्थ-प्रयोजन के संबंध में सोचकर चला जाए तो अपनी कमाई का एक महत्त्वपूर्ण भाग उसके लिए निकाला जा सकता है।

इस युग का सर्वश्रेष्ठ, सर्वप्रधान परमार्थ एक ही है— ‘भावनात्मक नवनिर्माण’। इस युग की समस्त विकृतियाँ निकृष्ट चिंतन के कारण ही उत्पन्न हुई हैं। दुष्प्रवृत्तियाँ दुर्भावनाओं की बेल पर लगने वाली फलियाँ ही हैं। विश्व का सर्वनाश करने के लिए समुन्नत असंख्य विभीषिकाएँ मनुष्य के निकृष्ट चिंतन ने ही उत्पन्न की हैं। उसका निराकरण एक ही उपाय से हो सकता है कि विचारणा का स्तर ऊँचा उठाने में अग्निकांड पर जल डालने की तरह सब ओर से ध्यान हटाकर पूरी एकाग्रता के साथ जुट जाना चाहिए। अन्नदान, जलदान, धर्मशाला, मंदिर, कुआँ, तालाब, बगीचा लगाने जैसे कार्य पीछे भी हो सकते हैं। संपत्ति उपार्जन में थोड़ी सी ढील भी रखी जा सकती है, पर आपत्ति धर्म की तरह बौद्धिक अनाचार से लड़ने में युद्धकालीन संकट की तरह सारी शक्ति झोक दी जानी चाहिए। विचार-क्रांति की लाल-मशाल इसी प्रयोजन के लिए जल रही है। ज्ञानयज्ञ का आह्वान इसी युग पुकार का अनुसरण करने के लिए है। इन दिनों समस्त पुण्य-प्रवृत्तियों का प्रवाह इसी दिशा में गतिशील होना चाहिए। प्रायश्चित के लिए जितना भी साहस जगे, उसे पूरी तरह इसी दिशा में नियोजित कर दिया जाना चाहिए।

अब तक हुई आत्महत्या और ब्रह्महत्या का निराकरण करने के लिए आत्मकल्याण और ईश्वर अनुग्रह का वरदान पाने के लिए हमें पुण्य-प्रयासों को सर्वोत्तम प्रकार ज्ञानयज्ञ में निरत होना चाहिए और चोरी, व्यभिचार जैसे सामाजिक असाधारण दुष्कृत्यों के दंड से बचने के लिए उसी स्तर के कुछ साहसिक कदम बढ़ाने चाहिए। यह परामर्श प्रत्यावर्तन सत्र के साधकों को दिया जाता है। निश्चित रूप से इससे आत्मशोधन और आत्मपरिष्कार का प्रयोजन भली प्रकार पूरा होता है।


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