प्रत्यावर्तन सत्र की दससूत्री साधन-प्रक्रिया

June 1973

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गत अंक में अपनों से अपनी बात स्तंभ के अंतर्गत शान्तिकुञ्ज हरिद्वार में चल रहे प्रस्तुत प्रत्यावर्तन सत्र की रूपरेखा बताते हुए उसके अंतर्गत चल रही दस साधना-प्रक्रियाओं की चर्चा की गई थी। चुँकि इस अंक में उसी संदर्भ में विशेष प्रकाश डाला जा रहा है, अतएव इस साधनाक्रम को संक्षिप्त में फिर एक बार यहाँ प्रस्तुत किया गया है। इससे संदर्भ-चर्चा एवं विवेचन-विश्लेषण को समझने में अधिक सुविधा होगी।

1.प्रात: 5 से 5.15:— शिथिलीकरण मुद्रा श्वासन— शरीर को बिना तनाव का बनाना, अधिकाधिक शिथिल करना, मृतक जैसी स्थिति में शरीर में ढीलापन लगना।

2. 5.15 से 5.30:— उन्मनी मुद्रा— मन को विचाररहित खाली कर देना। प्रलयकाल जैसी— नीचे नील जल ऊपर नील आकाश के बीच अपने को एकाकी बालक की तरह कमलपत्र पर पड़े हुए बहते जाने की भावना करना। संसार में वस्तुओं और व्यक्तियों का सर्वथा अभाव अनुभव करना, सर्वथा नीरवता का ज्ञान करना।

3. 5.30 से 6.30:— खेचरी मुद्रा— जिह्वा को तालू पर उलटकर ब्रह्मरंध्र से टपकने वाले आनंद और उल्लास को उभयस्तर की अमृत बिंदुओं का रसास्वादन करना। आनंद अर्थात— संतोष, हर्ष। उल्लास अर्थात— उर्ध्वगमन के लिए उमंग, उत्साह।

 4. 7.30 से 8:— आधा घंटा—गायत्री मंत्र का पाँच मालाओं का जप। जपकाल में आधे समय मल-मूत्र सनी मलिनता के कारण, माता का अपनी गोद में न लेना। स्नान कराया जाना और पोंछा जाना। तदुपरांत माता कि गोद में प्रश्रय और प्यार-दुलार मिलना। जप के अंत में सुर्यार्घ्य देते हुए अपनी उपलब्धियों को जलरूप मानकर ब्रह्मवर्चस् के प्रतीक भगवान आदित्य के चरणों में समर्पित-विसर्जित करना।

 5. 8 से 8.45:— पौन घंटा— सोऽहम्-साधना।  आरंभ के पंद्रह मिनटों में श्वास के साथ-साथ ‘सो’ की तथा श्वास बाहर निकलते समय ‘हम्’ की ध्यान की भावना करना। उसके उपरांत श्वास के रूप में महाप्राण का शरीर के रोम-रोम में प्रवेश और ‘हम्’ के रूप में निकृष्ट स्तर की अहंता का बहिष्कार।

 6. 8.45 से 9.30:— पौन घंटा— बिंदुयोग त्राटक। प्रकाश बत्ती पर दृष्टि जमाना। आँखे बंद करना और भ्रू-मध्य भाग— आज्ञाचक्र में प्रकाश-ज्योति का ध्यान जमाना। उस प्रकाश का शरीर के प्रत्येक अवयव एवं मन के प्रत्येक स्तर में प्रवेश अनुभव करना और अपनी सत्ता के कण-कण में दैवी प्रकाश की ज्योति जगमगाती अनुभव करना।

 7. 9.30 से 10:— आधा घंटा— नादयोग का पूर्वार्ध। भगवान की बंशी जैसी पुकार, प्रेरणा में अपने के लिए आह्वान का आमंत्रण मानना और रास-नृत्य की तरह इश्वरीय संकेतो पर थिरकने लगने की भावविभोर स्थिति में पहुँचना।

 8. 3 से 3.45:— पौन घंटा— आत्मबोध। दर्पण में अपनी छबि देखते हुए अब तक के अवरोधों के लिए, अपने को उत्तरदाई मानते हुए भर्त्सना करना और भविष्य में सत्यपथगमन के लिए अनुरोध-अनुग्रह करना। इसी कलेवर में शैतान और भगवान की परस्पर विरोधी सत्ताएँ अवस्थित देखना। दोनों में से एक को चुनना। आत्मसत्ता के भीतर समाए हुए इष्टदेव का अभिवंदन और प्रत्यक्ष करना। भविष्य में उसे देवस्तर का बनने का विश्वास करना। उसी उज्ज्वल स्वरूप को ईश्वर प्राप्ति का प्रत्यक्षीकरण मानना और उस स्तर के लिए अभी से श्रद्धांजलि समर्पित करना।

 9. 3.45 से 4.30:— पौन घंटा— तत्त्वबोध। शरीर और आत्मा का पृथक्करण। अपने शरीर का मृतक स्थिति में कुत्ते, कौओं, कीड़ों द्वारा खाया जाना, जलाया, गाड़ा जाना देखना। अपने को किसी ऊँचे स्थान पर बैठकर यह सब दृश्य देखने की स्थिति में रखना। शरीर और मन को आत्मा का वाहन-उपकरणमात्र समझना। उनके स्वार्थ और अपने स्वार्थ में अंतर करना। उपलब्ध क्षमता में से कितना अंश इन वाहनों के लिए रखना और कितना आत्मकल्याण के लिए रखा जाना चाहिए, इसका निर्णय करना।

 10. 4.30 से 5:— आधा घंटा— नादयोग का उत्तरार्ध। इस बार उच्च दृष्टिकोण अपनाकर संसार में मनुष्यों में बिखरे हुए उत्कृष्टता के तत्त्व का अनुभव करना और  विधेयात्मक दृष्टिकोण के— अनासक्त मन:स्थिति के फलस्वरूप मिलने वाले स्वर्गीय आनंद की अनुभूति में संगीत ध्वनि के साथ-साथ हर्षोल्लासभरे भाव, नृत्य में संलग्न होने की अनुभूति करना।

इन दसों साधनाओं पर ध्यान देने से प्रतीत होगा कि इनका भावपक्ष तत्त्वदर्शन के सारभूत सिद्धांतो का एक संतुलित समन्वय है। उसके ब्रह्मविद्या के चार आधार हैं— (1) आत्मचिंतन (2) आत्मसुधार (3) आत्मनिर्माण (4) आत्मविकास। इन चारों ही प्रयोजनों को यह साधना-पद्धति बहुत ही सुंदर, समुचित एवं संतुलित रूप से संपन्न करती है। साधना-उपक्रम के माध्यम से उस भाव-अभ्यास की यह रूप-रेखा है, जिसके आधार पर प्राण का महाप्राण एवं आत्मा का परमात्मा के रूप में विकसित हो सकना कठिन नहीं रहता, सरल हो जाता है।

इसी प्रकार साधना सत्र में सम्मिलित होने वाले साधकों को जिस दिनचर्या का पालन करना पड़ता है, उसे भी जीवनक्रम की संतुलित व्यवस्था की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण प्रशिक्षण ही कह सकते हैं। प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त्त में 4 बजे उठना, शौच-स्नान से 5 बजे तक निवृत्त हो जाना— एक ऐसा क्रम है, जो अभ्यास में आने पर एक घंटे में शरीर की स्व्च्छता से निवृत्त होकर आवश्यक कार्यों में जुटा जा सकता है और ऐसे ही आलस-प्रमाद में जो समय नष्ट होता रहता है, उसे बचाया जा सकता है। भोजन, विश्राम आदि की नियोजित दिनचर्या बनाई जाए, अपने काम स्वयं किए जाएँ। कपड़े धोने, सफाई संबधी अन्य काम स्वयं निपटाने की आदतें रखें। रात्रि को समय पर सो जाया जाए। तो इस नियमित व्यवस्था को अपनाकर हर मनुष्य अधिक काम कर सकता है, अधिक व्यवस्थित एवं निश्चिंत रह सकता है। घर-परिवार के तथा साथी-सहचर लोग प्रसन्न, संतुष्ट रह सकते हैं। साथ ही अधिक मात्रा में अधिक अच्छे स्तर का उपार्जन हो सकता है। नियमित दिनचर्या जीवन की सफलता का अतिमहत्त्वपूर्ण सूत्र है, जो लोग यह समझते हैं कि अधिक काम करने की वजह से अव्यवस्थित रहना पड़ता है। वे भारी भूल करते हैं। अव्यवस्था से काम का स्तर गिरता है, समय की बर्बादी होती है और लाभ को बढ़ाती नहीं घटाती है। व्यस्त, किंतु नियमित जीवनचर्या अपनाने वाले ही कुछ महत्त्वपूर्ण प्रगति कर सके हैं, यह ध्यान रखना चाहिए।

प्रत्यावर्तन सत्र में हर काम समय पर करने, हर वस्तु को संभालकर रखने और अपने हर कार्य में स्वच्छता-व्यवस्था प्रदर्शित करने का विशेष रूप से निर्देश देते रहते हैं। देखने में यह बहुत ही छोटी बातें हैं; पर इन छोटी आदतों पर भी व्यक्तित्व का आधार निर्भर रहता है। तिनके-तिनके जोड़कर ही पक्षी अपने सुंदर एवं सुदृढ़ घोंसला बनाता है। मनुष्य का प्रतिभाशाली और समुन्नत व्यक्तित्व भी समय के सदुपयोग और नियमित क्रम-व्यवस्था पर ही निर्भर रहता है ।

सत्र के दिनों में एकाकी निवास, एकांतचर्या, आश्रम की मर्यादा के भीतर ही रहना, घूमना, अनावश्यक बकवास न करना, केवल नितांत आवश्यक कार्यों के लिए वाणी खोलना, आदि छोटे-बड़े नियम प्रतिबंध ऐसे हैं, जो मोटी दृष्टि से साधारण जैसे भले ही प्रतीत हों; पर उनमें क्रम-व्यवस्था की शिक्षा है, जिसके आधार पर घर जाकर भावी जीवन के लिए नियमित और व्यवस्थित योजना बनाकर रहा और चला जा सकता है। यह छोटे-छोटे सूत्र मिलकर समुन्नत जीवन की नीव के सुदृढ़ पाषाण बन सकते हैं।


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