प्रत्यावर्तन-साधना संबंधी कुछ विशेष स्पष्टीकरण

June 1973

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प्रत्यावर्तन सत्र को एक प्रकार से उच्चस्तरीय अध्यात्म भूमिका का प्रवेश द्वार कह सकते हैं, इस आधार पर भावी जीवन में उपासना एवं साधना-उपक्रम को अपनाकर पूर्णता की दिशा में क्रमिक यात्रा जारी रखी जा सकती है और जीवन लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। चार दिन जितनी छोटी अवधि में इतना बड़ा प्रयोजन पूरा हो सकना असंभव है। एम.ए. पास करने में सोलह वर्ष लगते हैं और हर दिन छह-छह घंटे मनोयोगपूर्वक घोर परिश्रम करना पड़ता है। बगीचा लगाकर उसे फला-फूला देखने तक माली को कई वर्षों तक धैर्यपूर्वक कठिन परिश्रम करना पड़ता है। पहलवानी की साधना भी इसी प्रकार समयसाध्य है। आध्यात्मिक बचपन को पूरा करके प्रौढ़ता तक पहुँचाने जैसे महान प्रयोजन की पूर्ति उपरोक्त सफलताओं की तुलना में कम नहीं, अधिक ही महत्त्व की हैं। अस्तु स्वभावतः उसके लिए अधिक श्रम एवं अधिक मनोयोग लगाते हुए परिपूर्ण तत्परता के साथ धैर्यपूर्वक सतत संलग्न रहना पड़ता है। हथेली पर सरसों जमाने जैसी यह बाजीगरी नहीं है। प्रत्यावर्तन इस महान निर्माण का उच्चस्तरीय शिलान्यासमात्र है। कार्य यहाँ समाप्त नहीं हो जाता, वरन आरंभ होता है।

 चार दिन एकाग्रता का नहीं, एक दिशा में चिंतन-प्रवाह को बहाने का अभ्यास कराया जाता है। आमतौर से मन अनेक दिशाओं में मृगतृष्णा ग्रसित होकर दौड़ता रहता है। मुख्य कार्य है, दिशा देना। चिंतन एक ही दिशा में चलाने का पूर्वार्ध पूरा होने पर ही एकाग्रता का उत्तरार्ध पूरा हो सकता है। अस्तु साधकों को आरंभ में ही यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि मन, जप, ध्यान-क्रियाएँ आरंभ करते ही एकाग्र हो जाएगा। फिर एकाग्रता को उतना महत्त्व देने की आवश्यकता भी नहीं है, जितना कि लोग देने लगे हैं।

योग-साधना में एक स्तर ऐसा भी आता है, जब एकाग्रता की भी आवश्यकता पड़ती है; पर महर्षि पतंजलि ने साधना-क्षेत्र में प्रवेश करने वाले को जिस-जिस चित्तवृत्तिनिरोध का निर्देश किया है, उसे चित्तनिरोध नहीं, चित्तवृतिनिरोध ही समझना चाहिए। यहाँ वृत्ति शब्द अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मन की वृत्तियाँ, दिशाएँ, रुचियाँ अगणित हैं, उनमें बेहिसाब उछल-कूद करने की अपेक्षा मन को एक दिशा में लगाया जाना चाहिए। दिशा-निर्धारण और उस दिशा में मनोयोग को नियोजित करना ही साधना मार्ग की बहुत बड़ी मंजिल पूरी कर देना है, एकाग्रता तो बहुत बाद की और बहुत छोटी चीज है।

सूर्य की बिखरी किरणें जिस तरह आतिशी शीशे द्वारा इकट्ठी करने पर वे बिंदु केंद्रित हो जाती हैं और आग जलने लगती है, उसी प्रकार चित्त का निरोध भी विकेंद्रित बिखराव का केंद्रीकरण करता है और उससे विशेष लाभ होता है; पर यह सफलता मानसिक कौशल स्तर की है। कई व्यक्ति, कई प्रकार के शारीरिक करतव दिखाने में कुशल हो जाते हैं, उसी प्रकार एकाग्रता का मानसिक कौशल भी मेस्मरिज्म, हिप्नोटिज्म जैसे कई तरह के कौशल दिखा सकता है। सरकस में काम करने वाले नटों का सारा कौशल एकाग्रता पर ही केंद्रित है। तार पर चलने, झूले पर इधर से उधर उछलने जैसे कौशल एकाग्रता की साधना के बिना हो ही नहीं सकते। बहीखाते में लंबे मीजान सही-सही लगाते रहने वाले मुनीमों की कुशलता उनकी एकाग्रता पर ही निर्भर है। कवि, लेखक, चित्रकार एवं वैज्ञानिक आदि की सफलता भी एकाग्रता पर ही निर्भर है। इतने पर भी उन्हें योगी या आत्मिक-प्रगति में सफल व्यक्ति नहीं कह सकते हैं। मन का केंद्रीकरण उपयोगी तो हर क्षेत्र में है, पर वह अध्यात्म लक्ष्यों की पूर्ति के लिए अनिवार्य नहीं है। मीरा, सूर, कबीर, चैतन्य आदि की साधनाओं में विरह की व्याकुलता है। गोपी कृष्ण-विरह में उसी रसानुभूति को उच्चस्तरीय लययोग-साधना बताया गया है, यद्यपि एकाग्रता का उसमें सर्वथा अभाव है। अपने स्तर का भाव भरा उद्वेग ही भक्तियोग की परिभाषा में योगाभ्यास का उच्च चरण माना गया है। प्रत्यावर्तन साधकों को अपनी मनोभूमि इसी स्तर की रखने के लिए कहा गया है। वे एकाग्रता को महत्त्व न दें; वरन यह देखें कि जिस साधना के साथ, जिस भाव-प्रभाव को जोड़कर रखा गया है, चिंतन उसी दिशा में बहने लगा या नहीं। यदि प्रवाह की दिशा ठीक हो तो समझना चाहिए कि अभीष्ट प्रगति में आशाजनक सफलता मिल रही है।

वस्तुतः इन चार दिनों में पूर्व चिंतन की दिशा उलटनी पड़ती है और जीवनक्रम को परिष्कृत मार्ग पर चलाने के लिए अंतःकरण को तैयार करना पड़ता है। इतनी बड़ी भूमिका प्रखर चिंतन के आधार पर ही संभव हो सकती है। प्रत्यावर्तन के दिनों में यही करना पड़ता है। इन दिनों में अपनी विचारपद्धति और क्रियापद्धति दोनों का ही पुनर्निर्माण व पुनर्निर्धारण करना पड़ता है, इसलिए अवांछनीय रीति-नीति को हटाने और उच्चस्तरीय क्रियाकलाप को प्रतिष्ठापित करने के लिए इन दिनों ऐसा युद्धस्तरीय पराक्रम करना पड़ता है, जिसकी तुलना समुद्र-मंथन से, महाभारत संग्राम से की जा सके। ऐसी दशा में एकाग्रता के लिए न तो निर्देश दिया गया है और न उसकी आशा ही की गई है। आगे चलकर जब एकाग्रता आवश्यक होगी तब उसकी कुंजियाँ साधकों को यथासमय मिल जाएँगी और वह कठिन प्रतीत होने वाला कार्य अत्यंत सरलतापूर्वक संपन्न हो जाएगा।

प्रत्यावर्तन में प्रयुक्त होने वाले प्रायः सभी साधना-उपक्रमों के साथ प्रचंड चिंतन जुड़ा हुआ है। साधकों को उसी दिशा में अपने मनोयोग को नियोजित करना पड़ता है और इस प्रयास में लगाना पड़ता है कि किस प्रकार अब तक की मूढ़ताओं, भ्रांतियों और अवांछनीयताओं को चिंतन और कर्तृत्व के क्षेत्र में से बहिष्कृत करके उनकी जगह उच्चस्तरीय परिवर्तन लाया जा सकता है। वस्तुतः चार दिनों इसी उखाड़-पछाड़ में, ध्वंस निर्माण में लगना पड़ता है। सरकारी पंचवर्षीय योजनाओं के संचालक सिंचाई, सड़क, शिक्षा, बिजली, व्यवसाय आदि की बहुमुखी प्रगति के लिए सुविस्तृत योजनाएँ बनाते हैं और उनके लिए क्या किया जाना चाहिए, किस प्रकार किया जाना चाहिए, इसका ढाँचा खड़ा करते हैं। समझना चाहिए कि परिष्कृत जीवनक्रम का भावी निर्धारण करने के लिए इन चार दिनों में सुविस्तृत योजना बनाई जानी है और साधक को योजनाध्यक्ष की भूमिका निभानी है। यह कार्य समाधिस्थ या एक बिंदु पर ध्यान एकाग्र करने से नही; वरन सुविस्तृत बहुमुखी गहन चिंतन से ही पूरा हो सकता है। अस्तु वही करने के लिए कहा भी जाता है।

खेचरी मुद्रा में जीभ को उलटने की और शरीर को शिथिल करके शिथिलीकरण की गायत्री उपासना में गंदे बच्चे को गोद में न लिए जाने वाले स्पष्टीकरण की, लघुप्राण को महाप्राण में परिवर्तन करने वाली सोहम्-साधना की, अंधकार का निराकरण करके दिव्य प्रकाश से रोम-रोम भर देने वाले बिंदुयोग की दिव्य संकेतों पर थिरकने की, भावभरी मनःस्थिति उत्पन्न करने वाले नादयोग की, आत्मबोध और तत्त्वबोध के आधार पर अपनी मान्यताओं में क्रांतिकारी परिवर्तन करने की प्रेरणाऐं भरी पड़ी हैं।

साधक इन सब तथ्यों को न केवल हृदयंगम करता है; वरन यह रूपरेखा भी बनाता है कि इन प्रेरणाओं के आधार पर भावी जीवनचर्या की कार्यपद्धति क्या होनी चाहिए? और आज की हेय स्थिति को उलटकर कल को परिष्कृत स्थिति में पहुँचने की संक्राति का अवतरण किस दूरदर्शिता और साहसिकता के साथ संपन्न होना चाहिए। साधक को इसी उहापोह में पूरी तरह निमग्न रहने के लिए कहा जाता है। यह दिशा-प्रवाह लगातार जारी रखें। निर्दिष्टि तथ्य पर अधिकाधिक व्यापक चिंतन किया जाए तो ही उसका कुछ निष्कर्ष निकल सकता है, इसलिए हर साधना-उपक्रम को माध्यम बनाकर समुद्र-मंथन जैसी मनःस्थिति रखने के लिए हर साधक को कहा जाता है। सोते-जागते उन्हें विचारों में डूबे रहने और परिवर्तन के लिए आवश्यक मार्ग ढूढ़ निकालने के लिए लगा रहा जाए तो समझना चाहिए कि अभीष्ट योग-साधना का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष पूरा हो गया।

इसमें दुहरा लाभ है। एक दिशा में लगातार पूरी गहराई के साथ सोचने का अभ्यास ही चित्तवृत्तिनिरोध माना गया है, इसका अभ्यास होना बहुत बड़ी बात है। इसके अतिरिक्त अध्यात्म की सफलता कल्पना लोक में उड़ते रहने में नहीं, व्यावहारिक जीवनक्रम में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के साथ जुड़ी हुई है। इस दिशा में यदि कुछ ठोस आधार खड़ा किया जा सके तो समझना चाहिए, प्रत्यावर्तन-साधना के ध्यानपक्ष के साथ जुड़ा हुआ मूल प्रयोजन पूरी तरह संपन्न हो गया। चित्त की एकाग्रता इन दिनों न अभीष्ट है और न आवश्यक, इसलिए इस संदर्भ में किसी से कुछ कहा, पूछा भी नहीं जाता।

कई बालबुद्धि के लिए अध्यात्म को 'जादू' भर मानते हैं। थोड़ी सी पूजा-उपासना से लंबी-चौड़ी मनोकामनाओं की पूर्ति, किसी देव-दानव के दर्शन, कोई रोशनी चमकाना, शब्द सुनना, शरीर काँपना, भावावेशी उद्वेगों का आना जैसे कौतुक-कौतूहलों की आशा करते हैं और यदि कुछ ऐसा अजूबा दीख सके तो समझते हैं कि साधना सफल हुई। वस्तुतः बालबुद्धि प्रबुद्ध साधकों के लिए नितांत उपेक्षणीय और उपहास्यपद है। ऐसे अजूबे कोई मैस्मरिज्म विज्ञान का ज्ञाता किसी को भी क्षण भर में दिखा सकता है अथवा हिप्नोटिज्म का जानकार संवेदनाओं के आधार पर इस तरह के कौतूक-कौतुहल स्वयं भी देख सकता है। कई योगज्ञाता नौसिखिये साधकों को ऐसे ही कुछ अजूबे दिखाकर उनमें बाल उत्साह पैदा कर देते हैं, पर उनसे बनता कुछ नहीं। मैस्मरिज्म के प्रभाव मे कोई अनुभव करने लगे कि वह सिंह पर सवारी किए घूम रहा है तो इससे वस्तुतः कुछ भी लाभ न होगा; वरन उलटी एक नई भ्रांति बढ़ जाएगी। वह व्यक्ति कभी असली सिंह का सामना होने पर चढ़ने का प्रयास कर सकता है, क्योंकि उसने मैस्मरिज्म के प्रभाव से अपने को सिंह पर सवारी करने में सफल होते देख भी लिया था। इस भ्रमग्रस्तता में वह यदि असली सिंह पर चढ़ने का प्रयास करने लगे तो बेमौत मारा जाएगा। कई साधक अपने गुरुओं द्वारा ऐसे ही भ्रम-जंजाल में फंसा दिए जाते हैं। वे ईश्वरदर्शन से लेकर तरह-तरह के चमत्कारी अनुभव उन दिनों तो कर लेते हैं, पर पीछे देखते हैं कि जीवनक्रम की जटिलताओं में रत्ती भर भी सुधार नहीं हुआ। ऐसी दिशा में उन्हें यह सोचने के लिए विवश होना पड़ता है कि जो अजूबे देखे गए थे, वे बेसिर-पैर की भ्रांतियों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं थे। उन्हें कुछ समय के लिए दृष्टिबंध की तांत्रिक उलझनों में उलझा भर दिया गया था।

प्रत्यावर्तन सत्र के बारे में भी कई बालबुद्धि लोग ऐसे ही किसी अजूबे की, कौतुक-कौतूहल की आशा कर सकते हैं; पर उसे निराशा में ही परिणत किया जाता है। इतना ही नहीं, उनकी इस भ्रमग्रस्तता का उन्मूलन भी किया जाता है कि अध्यात्म को चमत्कारी होना चाहिए। मान्यता, विचारणा, भावना और प्रक्रिया में परिवर्तन होना ही वस्तुतः सबसे बड़ा चमत्कार है। इसी आधार पर मनुष्य को देवता और आत्मा को परमात्मा बनने का अवसर मिलता है। आध्यात्मिक प्रगति की यथार्थता इसी केंद्र पर केंद्रित है।

आध्यात्मिक प्रगति की कसोटियाँ दो हैं — (1) स्वार्थमुक्ति। इन्हें किसने, कितना प्राप्त कर लिया, इसी आधार पर यह जाना जा सकता है कि किसने, कितनी सफलता प्राप्त की। स्वर्ग कोई स्थान नहीं; वरन लोक कहते हैं— दृष्टिकोण को। स्वर्ग सोचने का एक तरीका है, नरक चिंतन की एक पद्धति। मरने के बाद स्वर्ग में जाने की बातें सोचना आवश्यक है। यथार्थता यह है कि कोई भी, कभी भी अपने दृष्टिकोण में अभीष्ट परिवर्तन करके तत्काल स्वर्गलोक में प्रवेश कर सकता है और स्वर्गीय सुख-शांति का तत्काल रसास्वादन कर सकता है।

अपने अभावों और दूसरे के दोष-दुर्गुणों का चिंतन करते रहने से चिंतन में नरक प्रवेश करता है और उससे क्रोध एवं विक्षोभ उत्पन्न होता है। उद्धत अहंकार को प्रत्यक्ष असुर कहा जा सकता है, जिसके कारण अपने को दूसरों से ‘बड़ा’ सिद्ध करने की 'उत' सूझती रहती है। खर्चीली साज-सज्जा के आडंबर इसी आधार पर खड़े किए जाते हैं और दूसरों को सताने-गिराने में इस पैशाचिकता के कारण प्रसन्नता होती है। इस मनःस्थिति में उलझे हुए लोगों को पग-पग पर जिन विक्षोभों का, मनोविकारों का, शोक-संतापों का सामना करना पड़ता है, उसे नारकीय यातना कह सकते हैं। ऐसे ही लोग वासनाओं, तृष्णाओं, ऐषणाओं में डूबे रहते हैं और कुकर्मों में निडर होकर लगे रहते हैं। इस मार्ग पर चलने वालों को बाह्य और आंतरिक जीवन में जो मर्मभेदी ठोकरें लगती रहती हैं, इन्हें ही प्रत्यक्ष नरक के रूप में देखा-समझा जाना चाहिए।

स्वर्ग उस दृष्टिकोण का नाम है, जिससे मनुष्य अपनी उपलब्धियों को देखता है, पिछड़े प्राणियों की तुलना में उसे जो अधिक मिला है, उसके लिए संतोष अनुभव करता है। ईश्वर को धन्यवाद देता है और विविध-विधि लालसाओं में, तृष्णाओं में जलने की अपेक्षा जो मिला है उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करने के लिए जुट जाता है। कर्त्तव्य कर्म करने में अपनी अविचल निष्ठा को बहुत बड़ी संपत्ति मानकर गौरवान्वित होता है और बड़ा कहलाने की अपेक्षा महान बनने में संतोष अनुभव करता है। बाह्यजगत में श्रेष्ठता और सौंदर्य कम नहीं। उसे देखने-समझने पर कम आनंद नहीं मिलता। अपने ऊपर समाज के अगणित अहसानों को वह देख पाता है तो निरंतर कृतज्ञता से मन भरा रहता है। जिसे यह ज्ञान है कि दूसरों में भी ईश्वर का अंश है, वह किसी से न तो कटुवचन कहता है और न असभ्य व्यवहार करता है। उसके वचन और व्यवहार में स्नेहसिक्त आत्मीयता ही भरी रहती है। अनीति के विरुद्ध प्रबल संघर्ष करते हुए भी वह, शालीनता को हाथ से नहीं जाने देता। यह है परिष्कृत दृष्टिकोण जिसे दूसरा नाम स्वर्गलोक भी दिया जा सकता है। इस स्तर के लोग धरती के देवता कहलाते हैं और हर स्थिति में संतोष एवं शांति का अनुभव करते हैं।

(2) आध्यात्मिक प्रगति का दूसरा उपहार है— मुक्ति। मुक्ति किससे ? भवबंधनों से। भवबंधन क्या है? लोभ-मोह, वासना-तृष्णा, स्वार्थ-संकीर्णता, अविवेकशीलता-आत्मविस्मृति। इनसे छूटने के लिए मरने की प्रतीक्षा करना आवश्यक नहीं। परिष्कृत, विवेकशील, दूरदर्शी दृष्टिकोण अपनाने और उसे कार्यान्वित करने का प्रबल दुस्साहस इकट्ठा कर लेने भर से कोई भी व्यक्ति जीवनमुक्त हो सकता है। अपनी कुसंस्कारी मान्यताओं को जिसने उखाड़ फेंका, लोग क्या कहते और क्या करते हैं? यह देखने की अपेक्षा जिसने औचित्य और विवेक को मान्यता दी,  इसी आधार पर अपना चिंतन एवं कर्तृत्व ढाला; समझना चाहिए कि इसकी जीवनकाल में ही मुक्ति हो गई। भ्रांतियों का निराकरण और उत्कृष्टता की समग्र स्वीकृति इसी का नाम जीवनमुक्ति है। इस स्थिति में पहुँचे हुए व्यक्ति ही सच्चे ईश्वर भक्त कहलाते हैं और ईश्वर, समतुल्य गौरव-गरिमा से सुसंपन्न बनते हैं।

प्रत्यावर्तन सत्र के साधकों को निकट भविष्य में इसी जीवन में स्वर्ग और मुक्ति का प्रत्यक्ष आनंद मिल सके, इसी का प्रयास किया जाता है और इस लक्ष्य के प्राप्त हो सकने की पूरी-पूरी संभावना रहती है।

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