नीति श्लोक

June 1973

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      जिह्वाधो   नाड़ीं   संछिन्नां  रसनां  चालायेत्सदा ।

          दीहहेन्नवती      तेन      लोहयंत्रेण   कर्षयेन् ।।23।।

        एवं   नित्यं   समभ्यासल्लम्बिका दीर्घताम ब्रजेत् ।

              यावन्दच्छेद   भ्रू  वोर्मध्ये  तथा  गच्छति खेचरी ।।24।।

         रसना    तालुमध्ये    तु      शनैः   शनैः   प्रवेशयेत् ।

         कपाल     कुहरे    जिह्वा    प्रथिष्टा    विपरीतगा ।।

                 भ्रू वोर्मध्ये    गतां    दृष्टिर्मुद्रा     भवति     खेचरी ।।25।।


 

भावार्थ : — जिह्वा के नीचे और उसकी जड़ को मिलाने वाली जो नाड़ी है, उसको छेदता हुआ निरंतर रसना के अग्रभाग को परिचालित करे प्रतिदिन ऐसा करने से जिह्वा बढ़ी हो जाती है। क्रम से अभ्यास द्वारा जिह्वा को इतना लंबा करें, वह भौह के मध्य तक पहुँच जाए, जिह्वा को क्रमशः तालुमूल में ले जाएँ। तालु के बीच के गड्ढ़े को कपाल-कुहर कहते हैं। जिह्वा को इस कपाल-कुहर के मध्य में ऊपर को उलटी करके ले जाएँ और दोनों भौहों के मध्यस्थल को देखता रहे— इसे खेचरी मुद्रा कहते हैं।

— [घेरण्ड संहिता­— तृतीयोपदेश]


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