आत्मबोध का दिव्य वरदान

June 1973

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अध्यात्म का अर्थ है— अपने आपे का विज्ञान। पदार्थ विज्ञान का— साइन्स का अपना महत्त्व है। उसी के आधार पर मानवी प्रगति की, सुविधा-साधनों की अगणित उपलब्धियाँ हस्तगत हो सकती हैं। उन्हीं के सहारे मनुष्य भौतिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़ा है और अन्य जीवधारियों की तुलना में अत्यधिक साधनसंपन्न बना है। अध्यात्म चेतना का विज्ञान है। मनुष्य के दो भाग हैं— एक जड़, एक चेतन। जड़ पंचतत्त्वों से बना शरीर है और चेतन आत्मा। जड़ शरीर के लिए जड़ जगत से साधन-उपक्रम प्राप्त होते हैं और उन्हें जुटाने के लिए भौतिक विज्ञान की विद्या अपनानी पड़ती है। ठीक इसी प्रकार आत्मा को चेतना की प्रगति और समृद्धि के लिए चेतना विज्ञान का सहारा लेना पड़ता है। अध्यात्म विज्ञान ब्रह्मविद्या का प्रयोजन इसी महती आवश्यकता की पूर्ति करता है।

अध्यात्म विज्ञान के लक्ष्य हैं— आत्मकल्याण पूर्णता से परमात्म स्तर तक पहुँचना। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए चार चरण निर्धारित हैं। (1) आत्मचिंतन (2) आत्मसुधार (3) आत्मनिर्माण और (4) आत्मविकास। यह चार चरण हैं— (1) आत्मचिंतन अर्थात अपने चेतन, अजर-अमर शुद्ध चेतन स्वरूप का मान। शरीर और मन में अपनी स्वतन्य एवं प्रथक सत्ता की प्रगाढ़ अनुभूति। (2) आत्मसुधार अर्थात अपने ऊपर चढ़े हुए मल-आवरण विक्षेप कषाय-कल्मषों का निरूपण, निरीक्षण और सुसंपन्न स्थिति को विपन्नता में बदल देने वाली विकृतियों की समुचित जानकारी। (3) आत्मनिर्माण अर्थात विकृतियों को निरस्त करके उनके स्थान पर सद्भावनाओं, सत्प्रवृत्तियों की उत्कृष्ट कर्तृत्व और आदर्श कर्त्तव्य स्थापित करने का सुनिश्चित संकल्प एवं साहसिक प्रयास। (4) आत्मविकास अर्थात चिंतन और कर्तृत्व को लोक-मंगल के लिए, सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन के लिए, न परमात्म स्तर पर विकसित होने के लिए अधिकाधिक संयम, तप, त्याग, बलिदान को संतोष एवं आनंद की अनुभूति। इन चार चरणों में आत्मकल्याण का लक्ष्य प्राप्त होता है।

आत्मकल्याण के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जो कुछ करना पड़ता है, उसी का नाम उपासना एवं साधना के दो पहियों पर चलने वाली आत्मिक-प्रगति यात्रा कह सकते हैं। जिस प्रकार इंद्रियजन्य वासनाओं और मनोवांछाओं की, तृष्णाओं की पूर्ति भौतिक साधन-सामग्री के आधार पर होती है, इसी प्रकार आंतरिक समाधान, संतोष, आनंद-उल्लास की असीम शांति भरी स्थिति अध्यात्म विज्ञान के आधार पर उपार्जित संपदाओं से होती है। नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, लघु से महान, आत्मा से परमात्मा बनने का अवसर इसी पथ पर चलने से मिलता है। पशु को देवता बनाने की स्थिति इसी प्रयास द्वारा संभव होती है। अगणित ऋद्धि-सिद्धियों की राह यही है। महामानव, देवदूत एवं ऋषिकल्प स्थिति प्राप्त करने का यही आधार अवलंबन है। जीवनलक्ष्य की पूर्ति इन्हीं प्रयत्नों से संभव होती है।

आत्मकल्याण के पथ पर अग्रसर करने वाले अध्यात्म विधि-विज्ञान की दो धाराएँ हैं— (1) आत्मदर्शन (2) विश्व दर्शन। इन्हें आत्मबोध एवं तत्त्वबोध भी कहते हैं। ब्रह्मविद्या का समग्र ढ़ाचा इन्हीं दो धाराओं की सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक विधि-व्यवस्था समझाने के लिए खड़ा हुआ है। आत्मबोध के अंतर्गत आत्मसत्ता के स्वरूप, लक्ष्य, धर्म, चिंतन एवं कर्त्तव्य की वस्तुस्थिति समझी-समझाई जाती है और तत्त्वबोध में शरीर एवं मन के साथ आत्मा के पारस्परिक संबंधों और कर्त्तव्यों का निरूपण किया जाता है। शरीर के साथ संबंध बनाते हुए परिवार एवं समाज के साथ उपयुक्त व्यवहार का पुनर्निधारण किया जाता है। अब तक जो भेड़िया धसान जैसा अव्यवस्थिति एवं अस्त-व्यस्त जीवनक्रम चल रहा था, उसे दूरदर्शी-विवेक के आधार पर सुव्यवस्थित-सुसंचालित किया जाता है। अध्यात्म जगत की यही दो धाराएँ— पवित्र गंगा, यमुना कही जाती हैं। इन्हीं का संगम तीर्थराज प्रयाग है, जिसमें स्नान करने से परम-पुरुषार्थ का पुण्यफल प्राप्त होता है।

प्रत्यावर्तन-साधना के अंतर्गत तीसरे प्रहर तीन से पाँच बजे तक चलने वाले तृतीय सोपान में आत्मबोध और तत्त्वबोध की दोनों साधनाओं का समन्वय है। तीन से पौने चार, पौन घंटा— आत्मबोध। पौने चार से साढ़े चार, पौन घंटे— तत्त्वबोध। यों इन दोनों साधनाओं का विधि-विधान और उपक्रम पृथक-पृथक है, पर बारीकी से देखा जाए तो यह दोनों एक ही लक्ष्य के दो पक्ष हैं। एकदूसरों पर अन्योन्याश्रित हैं— एकदूसरे के पूरक है।

ध्यानमुद्रा में बैठकर सामने एक बड़े दर्पण में वक्षस्थल से ऊपर का अपना शरीर ध्यानपूर्वक देखा जाना ही आत्मबोध की प्रत्यक्ष विद्या है। अधिक बड़े साइज का दर्पण उपलब्ध हो तो पूरे शरीर को भी देखा जा सकता है; पर अपनी छवि लगभग उतनी ही बड़ी दीखनी चाहिए जितनी कि वह माप में होती है। छोटे दर्पण को दूर रखकर यों पूरा शरीर भी देखा जा सकता है, पर उसमें आकृति बहुत छोटी हो जाएगी, इससे काम नहीं चलेगा। इसीलिए सामान्यतया ऐसा ही करना पड़ता है कि डेढ फुट ऊँचा दर्पण किसी छोटी मेज पर इस तरह रख लिया जाए कि वह सामने लगभग ढ़ाई फुट की दूरी पर रहे। इस दर्पण में अपने स्वरूप को देखना चाहिए और उसका दार्शनिक विवेचन-विश्लेषण गंभीर मनःस्थिति में करना चाहिए।

वेदांत के स्वर्णिम-सूत्र आत्मसत्ता का निरूपण करते हुए कहते हैं— तत्त्वभास  अयमात्मा ब्रह्मप्रज्ञानं ब्रह्म्— सोऽहम् शिवोऽहम् सच्चिदानन्दोऽहम्। इन विवेचनों में आत्मसत्ता को ब्रह्मसत्ता का एक अविनाशी अंश एवं घटक बताया गया है। वस्तुतः वह वैसा ही है भी; किंतु भ्रांतियों और मलीनताओं के कीचड़ में फँसाकर उसी तरह दयनीय बन गया, जिस प्रकार भारी दल-दल में गरदन तक फँसा हुआ हाथी अपने उद्धार का कोई रास्ता न पाकर हृदय-विदारक करुण-क्रंदन करता है। प्रायः हर दुनियादार मनुष्य की यही स्थिति है। बाहर से देखने में कोई साधनसंपन्न, वैभववान या प्रतिष्ठित सत्ताधारी भी हो सकता है; पर भीतर उसे कितने उद्वेग, आक्रीशों का सामना करना पड़ रहा है, इसका सही चित्रण संभव हो सके तो प्रतीत होगा कि अभावग्रस्त ही नहीं, संपत्तिवान भी दयनीय मनःस्थिति में अगणित व्यथा-वेदनाएँ सहते हुए निकृष्ट स्तर का जीवनयापन कर रहे हैं। बाहर संपन्नता भीतर विपन्नता यह कैसी विचित्र विडंबना है, पर पाई सर्वत्र जाती है। प्रायः हर दुनियादार व्यक्ति इन्हीं भवबंधनों से बँधा हुआ, दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों का सताया हुआ, रुदन-क्रंदन करता हुआ, संक्षोभों की आग में जलता हुआ जी रहा है।

दर्पण में अपना स्वरूप देखते हुए आत्मबोध के साधक को अपनी इसी दयनीय स्थिति पर करुणा व्यक्त करनी चाहिए। ईश्वर का अविनाशी अंश इस धरती पर ईश्वरीय प्रयोजन पूरे करने के लिए, पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आया था; पर वह सब तो एक प्रकार से सर्वथा विस्मरण ही हो गया। पैर उस जंजाल में फँस गया जिसे आटे के लोभ में गला फँसाने वाली मछली पिंजड़े में घुसे चूहे अथवा जाल में तड़पने वाले पक्षी के समतुल्य दुर्दशाग्रस्त स्थिति कहा जा सकता है। यह विडंबना इतनी दुर्भाग्यपूर्ण है कि अपनी स्थिति पर आठ-आठ आँसू बहाए जा सकते हैं।

परमात्मा ने मनुष्य को इतनी सुविधाएँ प्रदान की हैं, जितनी सृष्टि के किसी भी प्राणी को उपलब्ध नहीं। सोचना, बोलना, लिखना, पढ़ना, शिक्षा, शासन, वाहन, चिकित्सा, परिवार, उत्पादन, पाकविद्या, वस्त्र, अग्नि, औजार आदि के वे साधन जो गए गुजरे मनुष्यों को भी प्राप्त है, अन्य किसी प्राणी को कहाँ मिले हैं? यदि यह सब विलासिता के लिए ही दिया गया होता तो सृष्टि के कई कोटि प्राणी भगवान से शिकायत करते कि जबकि वह सभी का पिता है— सभी उसके समान प्रियपात्र पुत्र हैं तो अकेले मनुष्य को ही वे साधन क्यों दिए? अन्यों को क्यों वंचित रखा गया? न्याय और निष्पक्षता का तकाजा भी यही था। केवल मनुष्य को ही जब इतना वैभव अनुदान प्रदान किया गया है तो उसके पीछे निश्चित रूप से कुछ विशेष कारण होना चाहिए। वह कारण यही है कि मनुष्य भगवान के सहायक-मंत्री, मिनिस्टर, प्रशासकशिल्पी माली के रूप में उस विश्व-वसुधा के उद्यान को अधिकाधिक सुरम्य, सुविकसित एवं समुन्नत बनाने में भरपूर योगदान करे। उसकी जीवन यात्रा इसीलिए सुलभ और सुविधाजनक बनाई गई है कि शरीर यात्रा पर न्यूनतम शक्ति खर्च करके अधिक मात्रा में अपना योगदान प्रस्तुत कर सकें। मिनिस्टरों एवं अफसरों को अधिक वेतन, अच्छे बङ्गले, मोटर नौकर आदि इसी लिए दिए जाते हैं कि वे अधिक मात्रा में अधिक अच्छी तरह, अधिक ऊँचे स्तर का काम कर सकें। मनुष्य को जो कुछ अन्य प्राणियों से अतिरिक्त मिला है, वह इसी प्रयोजन के लिए है। यदि वह कर्त्तव्य विमुख होकर पशु-प्रवृत्तियों में फंसकर स्वार्थभरा संकीर्ण जीवनक्रम अपनाता है तो समझना चाहिए कि ईश्वर के उस आधार को ही नष्ट करता है, जिसके लिए उसका सजन किया गया था। ईश्वर का अंश अविनाशी राजकुमार ही वस्तुतः मानवी जीवात्मा है, उसे अपने कर्त्तव्य और लक्ष्य का ध्यान रखना ही चाहिए।

शास्त्रीय मान्यता के अनुसार चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के उपरांत एक बार ही मनुष्य जन्म मिलता है। वह चाहे तो ईश्वरीय निर्देश और अध्यात्म कर्त्तव्य का पालन करते हुए पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है, अपूर्णता से मुक्त होकर पूर्णता का वरण कर सकता है। यदि वैसा न करके पशुता एवं पैशाचिकता की दुष्प्रवृत्तियों में उलझ पड़े तो उसे फिर चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने का दीर्घकालीन दुसह दुःख सहना पड़ेगा। औसत एक वर्ष की एक योनि मानी जाए तो चौरासी लाख वर्ष असीम कष्ट सहते हुए केवल एक बार पचास-चालीस वर्ष के लिए अनिश्चित अवधि के लिए मनुष्य शरीर मिलता है। यदि कोई चाहे तो उस अवधि का सदुपयोग करके भवबंधनों के कुचक्र से निकल सकता है अन्यथा फिर उतनी ही लंबी अवधि तक अपने सामने कोल्हू में पेले जाने और चक्की में पीसे जाने की स्थिति आँखों के सामने खड़ी है।

दर्पण के सामने बैठकर अपनी छवि शीशे में देखते हुए आत्मविश्लेषण किया जाता है। ईश्वर का अविनाशी राजकुमार विश्व में सुरम्य परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए नियुक्त किया गया, विशेष प्रतिनिधि पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर सकने के सुअवसर से संपन्न सौभाग्यशाली यह है जो दर्पण में बैठा हुआ है। इसके काय-कलेवर में ईश्वर की समस्त शक्तियाँ और विभूतियाँ भरी पड़ी हैं। इसका एक-एक कण ऐसी विशेषताओं से सजोया गया है कि चाहे तो सहज ही महामानवों की, देवदूतों की पंक्ति में बैठ सकता है। सूक्ष्मरूप में मानव शरीर में समस्त देवताओं की ऋषियों की दिव्यसत्ता विद्यमान रहती है, उसे थोड़ा भी पोषण मिले तो यह बीज विशालकाय वट वृक्ष में परिणित होकर अपने को धन्य और विश्व मानव को सुसंपन्न बना सकता है। इसमें गाँधी, बुद्ध, ईसा, राम, कृष्ण बनने की परिपूर्ण संभावनाएँ विद्यमान हैं।

इतना सब कुछ होते हुए भी अवांछनीय गतिविधियाँ अपनाने के कारण यह दर्पण में बैठा हुआ महामानव किसी दयनीय दुर्दशा से ग्रसित हो रहा है, यह कैसे आश्चर्य और दुर्भाग्य की बात है। लोभ और मोह के, वासना और तृष्णा के, स्वार्थ और संकीर्णता के बंधनों ने इसे किस बुरी तरह जकड़ रखा है। जीभ और जननेंद्रियों का गुलाम बनकर इसने अपने शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य को किस बुरी तरह चौपट कर डाला। परिवार के उचित उत्तरदायित्वों को निवाहना और परिजनों को सुसंस्कृत बनाना तो कर्त्तव्य था, पर उनके लिए ही सब कुछ करना, उन्हीं की इच्छानुकूल चलना यह कहाँ की बुद्धिमानी थी। केवल चार-छह व्यक्तियों के इस छोटे समुदाय के लिए ही अपनी समस्त क्षमताओं को नियोजित कर देना और आत्मकल्याण के, देशधर्म, समाज-संस्कृति के समस्त कर्त्तव्यों से उसी निमित्त मुख मोड़ लेना यह कहाँ की समझदारी थी। कुत्साओं और कुंठाओं से ग्रसित जीवन का क्रम और स्वरूप बना लेने की उसी की पूरी जिम्मेदारी है, जो इस दर्पण में बैठा है। मकड़ी का जाला उसी ने बुना है और उसमें स्वयं ही फँसी है। वह चाहे तो जाले को समेटकर पेट में फिर वापिस भर सकती है और स्वच्छंद विचरण की, जीवनमुक्ति की स्थिति प्राप्त कर सकने में पूर्ण सफल हो सकती है।

दर्पण में दृष्टिगोचर प्रतिबिंब के सहारे आत्मविश्लेषण की, अधिक गहराई में प्रवेश किया जा सकता है और पतन से ऊँचे उठकर उत्थान के उच्चशिखर पर पहुँच सकने का पथ निर्धारण किया जा सकता है। भविष्य के लिए ऐसी सुसंतुलित गतिविधियों का निर्धारण किया जा सकता है, जिसमें भौतिक और आत्मिक उत्तरदायित्वों के निर्वाह की सुसंतुलित गुंजायश बनी रहे। शरीर निर्वाह और परिवार उत्तरदायित्व निवाहे जाएँ सो ठीक है, पर इससे कम महत्त्व आत्मकल्याण के लिए जीवनोद्देश्य की पूर्ति का भी नहीं है। उसके लिए भी समय, श्रम, बुद्धि, प्रतिभा, धन, चिंतन एवं कर्तृत्व जैसी अपनी संपदाओं का एक बड़ा अंश लगना ही चाहिए। सब कुछ भौतिक जीवन ही नहीं है, समस्त विभूतियों को उसी पर निछावर नहीं कर दिया जाना चाहिए। कुछ आत्मा और परमात्मा द्वारा निर्देशित महान निर्देशों की पूर्ति के लिए भी लगाया जाना चाहिए। यह विभाजन यदि न हो सका तो इस दुर्भाग्यपूर्ण क्रियाकलाप को अपनाए रहने का परिणाम आज नहीं तो कल अनंत और पश्चाताप के रूप में ही सामने आवेगा। प्रतिबिंब के माध्यम से अपने आपको समझाया जाना चाहिए कि वह उचित-अनुचित का, लाभ-हानि का, बुद्धिमत्ता-मूर्खता का अंतर करना सीखें और समय रहे तो वह गतिविधियाँ अपनाए, जिससे शेष रही थोड़ी-सी आयु का सदुपयोग हो सके और अंधकारमय भविष्य में विभीषिका से बचा जा सके।

दर्पण एक माध्यम है आत्मबोध का। आमतौर से ही बाह्य जगत में इतने घुले और व्यस्त रहते हैं कि अपने एक प्रकार से भूल ही बैठे होते हैं। याद तो शरीर और मन की क्षुधा तृष्णा ही रहती है। आत्मा भी कोई होता है। हम भी आत्मा हैं। आत्मा के कुछ अपने स्वार्थ और कर्त्तव्य भी हैं क्या — यह बात पढ़ी-सुनी तो कई बार होती है; पर उसने तथ्य के रूप में कभी हृदय की गहराई तक प्रवेश नहीं किया होता। यदि आत्मबोध की यथार्थता अंतःकरण में सजग हुई होती तो निश्चित रूप से भौतिक सुख-सुविधाएँ प्राप्त करने की तरह आत्मोल के लिए भी कुछ करने की प्रेरणा उठी होती और उस दिशा में भी कुछ तो बना ही होता।

यह भ्रम वे सिर-पैर का है कि उथली पूजा-उपासना के छुट-पुट कर्मकांड पूरे कर देने मात्र से ईश्वर की प्रसन्नता या आत्मकल्याण की आवश्यकता पूरी हो सकती है। ईश्वर न खुशामदी है, न रिश्वतखोर। उसे स्तोत्र पाठ के वाक् छल से भ्रमाया या पुष्पप्रसाद के लालच से लुभाया नहीं जा सकता। जीभ का उच्चारण और वस्तुओं की हेराफेरी जैसी बालक्रीड़ा आत्मकल्याण की। जीवनोद्देश्य की पूर्ति की, ईश्वर प्राप्ति की आवश्यकता किसी भी प्रकार पूरी नहीं कर सकती। इनका प्रयोजन मात्र इतना ही है जितना कि दर्पण के माध्यम से आत्मबोध स्तर तक पहुँचने का। अकेला दर्पण आत्मबोधन, आत्मदर्शन करा दे यह किसी भी प्रकार संभव नहीं। पूजा-उपासना के पीछे जो प्रेरणाएँ भरी पड़ी हैं, उनसे प्रभावित होकर उपयुक्त चिंतन और कर्तृत्व अपनाते हए दिव्य जीवन की रीति-नीति अपनाई जा सके तो ही इन पूजापरक कर्मकांडों का महत्त्व है। आत्मबोध की विचारधाराओं से अंतःकरण को भरने में सहायता करना ही दर्पण उपकरण का उद्देश्य है, उसी प्रकार पूजा का उपयोग यही है कि वह जीवन निर्माण की प्रेरणाओं को उभारे और उन्हें सक्रिय बनाए। लकीर पीटने जैसी चिह्नपूजा से न तो आत्मकल्याण हो सकता है और न दर्पण का मनुहार करने से आत्मलाभ का प्रयोजन पूरा हो सकता है।

गीता की उस सूक्ति में ब्रह्मविद्या का सागर भरा हुआ है जिसके अनुसार अपना उद्धार आप ही किया जाता है, आत्मा ही मित्र की और आत्मा ही शत्रु की भूमिका सम्पादित करता है। माया ग्रस्त भव बन्धनों से जकड़ा हुआ आत्मा-अपने लिए और समस्त विश्व के लिए महान विपत्ति है। स्वर्गीय दृष्टिकोण और उन्मुक्त चिन्तन का अभ्यस्त आत्मा मूर्तिमान परमेश्वर है,वह स्वयं धन्य बनताहै और समस्त विश्व के लिए वरदान सिद्ध होता है। अस्तु आत्मोद्धार को ही परम पुरुषार्थ माना गया है। दर्पण की साधना इसी का पथ प्रशस्त करने में महत्वपूर्ण योगदान करती है, गहित गतिविधियाँ और भ्रमग्रसित मान्यताएँ अपनाने के कारण अब तक के जीवन का जिस तरह अपव्यय हुआ उस दुर्भाग्य पर दुःखी होने का अवसर इस साधना से मिलता है। बिना समय गँवाए भूल को सुधार लेने, गतिविधियों के उलट देने की प्रचंड प्रेरणा उठती है। इस समुद्र-मंथन से भावी जीवन की रीति-नीति निर्धारण करने पर अनमोल रत्न निकलते हैं और पूर्वाग्रहों को तिलांजलि देने तथा कथित शुभ चिंतकों के दबाव को अस्वीकार करने की ऐसी दिव्यदृष्टि प्राप्त होती है, जिससे परिष्कृत भावी गतिविधियों का नवनिर्माण सरल और संभव हो जाता है।

आत्मबोध की, आत्मविश्लेषण की साधना दर्पण के सहारे की जाती है। इसके लिए प्रत्यावर्तन सत्र में जो पेंतालीस मिनट निर्धारित हैं, उनमें आत्मतत्त्व से संबंधित प्रायः सभी समस्याओं पर प्रकाश पड़ जाता है। आत्मबोध, आत्मनिरीक्षण, आत्मसुधार और आत्मविकास की पृष्ठभूमि क्या हो सकती है। आस्थाओं में आकांक्षाओं में क्या हेर-फेर होना चाहिए? गतिविधियों में, रीति-नीति एवं कार्यपद्धतियों में क्या उलट-पुलट की जानी चाहिए, इसकी एक प्रभु-प्रेरित सुविस्तृत रूपरेखा सामने आती है। यदि प्रस्तुत दिव्य संदेशों को अंतःकरण की गहन भूमिका में प्रतिष्ठापित किया जा सका और उन्हें क्रियारूप में परिणत करने का प्रबल-पराक्रमभरा आत्मबल उपलब्ध हो सका तो समझना चाहिए कि दर्पण के माध्यम से की जाने वाली आत्मबोध की साधना दैवी वरदान बनकर सामने आ गई।

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