सदा के लिए अपनाया जाने वाला सतत साधनाक्रम

June 1973

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चार दिन तक छह घंटे साधना करना एक विशेष अनुष्ठान है, जिसे सामयिक ही कह सकते हैं। सदा इस रीति को अपनाए रहना असंभव है। घर जाकर किस प्रकार साधनाक्रम चलाया जाना चाहिए, इसकी एक क्रमबद्ध विधि-व्यवस्था बनाकर साधकों को दी जाती है और आशा की जाती है कि वे भविष्य में आजीवन निष्ठापूर्वक पालन करते रहेंगे।

प्रभु-समर्पित जीवन जिया जाए। अनासक्त कर्मयोगपरायण गतिविधियाँ ऐसी हों जिन्हें यज्ञीय जीवन की संज्ञा दी जा सके। यही अध्यात्मपरायण व्यक्तियों की रीति-नीति होनी चाहिए। इसमें उपासना के लिए एक घंटे का समय भी पर्याप्त है। साधना अहर्निश होनी चाहिए, एक क्षण भी साधना विरत नहीं जाना चाहिए। प्रमाद जहाँ भी, जब भी आएगा शैतान को चढ़ बैठने का अवसर मिल जाएगा। चौकीदार थोड़े समय के लिए सो जाए तो चोरों को घात लगाने में देर नहीं लगती। हम तनिक भी प्रमाद बरतें तो मस्तिष्क पर दुर्भावनाओं का और शरीर पर दुष्प्रवृत्तियों का आक्रमण होते देर नहीं लगेगी। भावी साधनापद्धति इसी तथ्य को ध्यान में रखकर प्रत्यावर्तन सत्र में साधकों को दी जाती है। क्रम प्रातः आँख खुलते ही आरंभ हो जाता है और जब तक नींद नहीं आ जाती तब तक चालू रहता है। इस साधन-प्रक्रिया में सूत्ररूप से वे सभी साधनाएँ समाहित कर दी गई हैं, जिन्हें प्रत्यावर्तन के दिनों में कराया-सिखाया जाता है।

प्रातःकाल आँख खुलने से लेकर बिस्तर छोड़ने तक प्रायः आधा घंटा लग जाता है। आलस, सुस्ती, अंगड़ाई और करवट बदलने में प्रायः इतनी देर तो लग ही जाती है। इन उनीदे क्षणों में यह विचारना चाहिए कि आज अपना एक ही दिन के लिए नया जन्म हुआ है। रात्रि को मृत्यु हो जाएगी। ‘हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत’ वाला सत्र साधनात्मक जीवन जीने वालों के लिए स्वर्णक्षरों में लिखे जाने योग्य है। आज के दिन का श्रेष्ठतम सदुपयोग कैसे हो सकता है, इसका क्रम-विभाजन इन्हीं क्षणों में कर लिया जाना चाहिए। स्थूलशरीर (देह), सूक्ष्मशरीर (मन), कारणशरीर (भाव)। यह तीन कर्मचारी हमें मिले हैं। इन्हें क्रिया विचारणा-भावना भी कह सकते हैं। यह तीनों जब किसी एक काम में पूरे सहयोग और उत्साह के साथ जुटते हैं तो वह कार्य कर्मयोग की साधना जैसा पुण्य फलदायक बन जाता है। उसकी सुंदरता और सफलता देखते ही बनती है।

हर दिन को जीवन की बहुमूल्य संपदा मानकर, उसके सदुपयोग की दिनचर्या बिस्तर पर पड़े-पड़े ही इस प्रकार निर्धारित कर दी जानी चाहिए कि उसमें समय की बर्बादी के लिए कहीं कोई गुंजाएश न रहे। आवश्यकतानुसार बीच-बीच में विश्राम की व्यवस्था भी रखी जा सकती है; पर वह भी नियमित और निर्धारित होनी चाहिए। उठने से लेकर सोने तक का कसा हुआ, खिचा हुआ टाइम टेबल बनाना चाहिए और उसे मुस्तैदी के साथ निबाहा जाना चाहिए। शरीर को जो कार्य करना है, मन पूरी तरह उसमें तन्मय रहे। हर छोटा-बड़ा काम पूरे मनोयोग से किया जाए। दोनों के सहयोग से जो काम होते हैं, उन्हीं में कला-कौशल निखरता है, उन्हीं का स्तर उत्कृष्ट बनता है। काम ही ईश्वर की पूजा है। यदि अपना हर काम सुंदर, सुव्यवस्थित, सर्वांगपूर्ण और सही हो तो उसे कर्मयोग के स्तर पर ही रखा जाएगा। मन के निग्रह की असली साधना अपने दैनिक कार्यों में समग्र मनोयोग लगाने से ही संभव होती है। पूजा में भी यही अभ्यास काम दे जाता है। यदि हर काम आधे मन से करने की आदत होगी तो फिर पूजा ही तन्मयतापूर्वक कैसे संभव हो सकेगी?

 शयनकक्ष में एक भगवान का चित्र रहना चाहिए, दूसरा बड़े साइज का दर्पण रहे। भगवान को उठते ही नमस्कार करना चाहिए और सद्बुद्धि की, कर्मनिष्ठा की याचना करनी चाहिए। उसके उपरांत दर्पण में अपने आपको देखते हुए लगभग वही ध्यान करना चाहिए, जो प्रत्यावर्तन सत्र में तीन बजे आत्मबोध की साधना करते हुए किया जाता था। आत्मदेव को सद्गुरु, परमात्मा का प्रतिनिधि, उद्धारकर्त्ता एवं इष्टदेव के रूप में नमन करना चाहिए और आग्रह भरा अनुरोध करना चाहिए कि अपनी गतिविधियों का स्तर ऊँचा उठाए, ताकि लक्ष्य की ओर सुख-शांतिपूर्वक बढ़ चलना संभव हो सके।

इसके उपरांत स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होना चाहिए और एक घंटे के लिए नियमित उपासना पर बैठना चाहिए। इस एक घंटे के तीन भाग किए जा सकते हैं—(1) पंद्रह मिनट खेचरी मुद्रा (2) पंद्रह मिनट बिंदुयोग (ज्योति अवतरण), प्राणयोग (सोऽहम्-साधना) (3) आधा घंटा गायत्री जप— सूर्यार्घदान।

खेचरी मुद्रा में पांच मिनट शरीर को शिथिल करना, पाँच मिनट मन को खाली करना और पांच मिनट जिह्वा को उलटकर तालु में लगाने और सोमरस पान करने का विधान है। इसकी पूरी विधि खेचरी मुद्रा प्रकरण में लिखी जा चुकी है। दृष्टिकोण, उदेश्य तथा भाव-चिंतन वही ज्यों का त्यों है, केवल समय में ही कमी की गई है। प्रत्यावर्तन के दिनों में पंद्रह मिनट शिथिलीकरण, पंद्रह मिनट नाल जल का ध्यान करके मन को विचाररहित बनाया जाता था। वे दोनों कार्य पाँच-पाँच मिनट के कर दिए गए हैं। जिह्वा उलटकर दुनियादारी से भिन्न स्तर की अपनी रीति-नीति अपनाने का संकल्प है। उच्चस्तरीय चिंतन का केंद्र मस्तिष्क, उससे टपकने वाला आनंद (मानवी उपलब्धियों का संतोष), उल्लास (सत्पथ गमन की प्रबल प्रेरणा) भरा सोमरस हमें उपलब्ध होता है। जीभ उसे प्राप्तकर पाचन तंत्र में भेजती है और वह अमृतरस रक्त के साथ घुलकर क्रियापद्धति के रूप में परिणत होता है। इन्हीं भावनाओं को प्रखर बनाना खेचरी मुद्रा का सारतत्त्व है।

आज्ञाचक्र में प्रकाश का ध्यान और उस प्रकाश का रोम-रोम में समावेश, अंधकार का पलायन, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की स्थिति— यह सब है भ्रूमध्य भाग में प्रकाश चिंतन का लक्ष्य। आवश्यकतानुसार दीपक, मोमबत्ती, बिजली आदि का उपयोग प्रकाश स्थापना के लिए किया जा सकता है। पीछे यह ध्यान बिना प्रकाश उपकरणों के ही होने लगता है।

सोऽहम्-साधना में कुछ समय, सांस लेते समय ‘सो’ और छोड़ते समय ‘हम्’ की अनुभूति। साँस के साथ महाप्राण का काया के कण-कण और मन के प्रत्येक परत में प्रवेश तथा आधिपत्य की स्थापना। ‘हम्’ के साथ लोभ, मोह भरे अहंकार का पलायन। यही है संक्षेप में सोऽहम्-साधना, जिसका विस्तृत वर्णन पिछले पृष्ठों में हो चुका है।

उपरोक्त बिंदुयोग और प्राणयोग की दोनों साधनाओं के लिए कुल मिलाकर पंद्रह मिनट हैं। प्रतिदिन करना हो तो दोनों साढ़े सात-सात मिनट की जा सकती है। अन्यथा यह तरीका भी अच्छा है कि एक दिन पंद्रह मिनट ज्योति अवतरण और दूसरे दिन सोऽहम्-साधना करते रहा जाए।

पंद्रह मिनट खेचरी मुद्रा, पंद्रह मिनट प्रकाश का ध्यान तथा सोऽहम्-साधना में लगाने से आधा घंटा हो जाता है, शेष आधा घंटा गायत्री की पाँच मालाएँ पूरी करने के लिए। गायत्री के पाँच मुख माने गए हैं। यह पाँच कोश हैं। हर कोश का जागरण करने के लिए एक माला। इस प्रकार पाँच मालाओं का जप उचित है। इससे कम करने में जितना चाहिए उतना शक्ति उद्भव नहीं होता। जप के आधे भाग में अपने मलीनताग्रस्त होने के कारण, माता की गोद में न पहुँच सकने का दुर्भाग्य और शेष आधे भाग में शुद्ध होने पर उस परम शक्ति का प्यार-दुलार मिलने की यथार्थता हृदयंगम की जानी चाहिए। जप के उपरांत सुर्यार्घदान जलकलश को सूर्य की दिशा में धार बाँधकर छोड़ना और परम तेजस्वी सविता देवता से प्रार्थना करना कि हमारे समर्पित व्यक्तित्व को भी जलधार की तरह स्वीकार करें और उसे वर्षा की अथवा ओस की बूंदें बनाकर विश्वशांति के लिए अनंत अंतरिक्ष में बिखेर दें। आधे घंटे के इस गायत्री जप समेत प्रातःकालीन उपासना का एक घंटा पूरा हो जाता है।

इसके उपरांत, प्रातःकाल से लेकर सोते समय तक अपने को निर्धारित दिनचर्या में जुटा देना चाहिए। शरीर, मन और भाव कहीं आलस्य-प्रमाद, मर्यादा व्यतिक्रम तो नहीं कर रहे हैं, इसका हर घड़ी ध्यान रखना चाहिए और जहाँ भी गड़बड़ी दिखाई पड़े, तत्काल टोकना-रोकना चाहिए। आवश्यक कारण आने पर तो दिनचर्या में हेर-फेर करने ही पड़ते हैं; पर उसमें आलस्य-प्रमाद के कारण व्यतिक्रम नहीं होने देना चाहिए। संतोष, मृदुलता और शांति के साथ हँसते-मुसकाते हुए अपना क्रियाकलाप पूरा करना चाहिए और हलका-फुलका चित्त रखना चाहिए। क्रोध और खीझ के, पतन एवं अनाचार के अवसर आने पर अपने को संभालने-समझाने में कुछ कसर नहीं रखनी चाहिए।

रात्रि को सोते समय बिस्तर पर जाकर दिन भर के कामों का लेखा-जोखा लेना चाहिए और गलतियों के कारणों पर विचार करते हुए, अगले दिन उन भूलों के संबंध में सतर्क रहने की अपने आप को चेतावनी देनी चाहिए।

सोने से पूर्व तत्त्वबोध की, पौने चार से साढ़े चार तक वाली पृथक्करण साधना की पुनरावृत्ति करनी चाहिए। शरीर आत्मा से पृथक हो गया। मरी हुई काया चारपाई पर पड़ी है। चारों पाय चार संबंधी हैं, जो उसे जलाने ले जा रहे हैं। आत्मा दूर खड़ा इस मरण को देख रहा है। संबद्ध व्यक्तियों एवं संपत्ति-साधनों को छोड़कर जीवात्मा अपने कर्मभोग भोगने के लिए अन्यत्र जा रहा है। मित्र-संबंधी मुख मोड़कर अपने धंधे में लगने जा रहे हैं। छोड़ी हुई संपत्ति को हराम में मिले मुफ्तमाल की तरह पीछे वाले लोग गुलछर्रे उड़ाने में खर्च कर रहे हैं। बँटवारे के लिए परस्पर एकदूसरे का सिर फोड़ रहे हैं। जिन वस्तुओं और व्यक्तियों को अपना समझा जाता था, वह लोभ और मोह निरर्थक साबित हुआ। मृत्यु ने नंगी सच्चाई सामने रख दी और भ्रांतियों का जाल-जंजाल टूटकर एक ओर बिखर गया। ‘अकेले आना अकेले जाना’ वाला तथ्य अक्षरशः सही सिद्ध हुआ। आँखों पर से परदा उठा तो, पर तब, जब सब कुछ हाथ से निकल गया। इससे पूर्व यदि मृत्युप्रदत्त ज्ञान मिल सका होता तो उपलब्धियों के सदुपयोग की बात सोची जा सकती थी। अब अगले जन्म में, कल के जीवन में ऐसा प्रयत्न करेंगे कि किसी वस्तु या व्यक्ति पर अधिकार जनाने की अपेक्षा उसके सदुपयोग की ही बात को ध्यान में रखकर सारे क्रियाकलाप निर्धारित किए जाए।

जब झपकी आने लगे तब नादयोग के अनुरूप भावना करनी चाहिए कि भगवान कृष्ण जिस प्रकार रात्रि की नीवरता में बंशी बजाते थे और गोपियाँ चुपचाप अपने घरवालों को छोड़कर रासलीला में निरत होकर दौड़ पड़ती थीं। उसी प्रकार परमात्मा के आह्वान पर आत्मा अपने प्रियतम से मिलने दौड़ पड़ती है। नादयोग की सीटी रात्रि में झींगुर बजाते रहते हैं, जुगनू इशारा करते रहते हैं। अपने अंतःकरण में भी वह नाद-निनाद भाव मान्यता के आधार पर सुना जा सकता है। इन भावनाओं के साथ, भगवान के साथ लिपटकर सोने के लिए आत्मा को निद्राग्रस्त होकर परम शांति लाभ करने के लिए समाधिस्थ हो जाना चाहिए। रात को कभी करवट बदलें, नींद खुले तो यह प्रतीत होना चाहिए कि भगवान हमारे साथ सो रहे हैं। इच्छानुसार भगवान का प्रतीक तकिया के अगल-बगल में रखा जा सकता है।

यही है, उठने से लेकर सोने तक की उपासना एवं साधना मिश्रित क्रियापद्धति, जिसे प्रत्यावर्तन सत्र में सम्मिलित होने वालों को घर जाकर निरंतरर अपनाए रहने के लिए कहा जाता है, इसमें प्रत्यावर्तन सत्र के दिनों की समस्त साधनापद्धति का परिपूर्ण, किंतु संक्षिप्त समावेश है।


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