राष्ट्र-यज्ञ में आत्माहुति दें

April 1966

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(स्वामी रामतीर्थ)

देव-यज्ञ से ठीक-ठीक अभिप्राय अपनी व्यष्टि इन्द्रियों को ब्रह्माण्ड की समष्टि इन्द्रियों में अर्पण करना है। इन्द्र-देवता को आहुति देने से तात्पर्य इस भूमि पर समस्त हाथों के हित में अपना व्यष्टि हाथ अर्पण करना है। अर्थात् देश के सब हाथों के हित में काम करना इन्द्र-देव-यज्ञ है। आदित्य देवता को आहुति देने से अभिप्राय ब्रह्माण्ड के सब नेत्रों में ईश्वर का अस्तित्व भान करना है, अर्थात् सब नेत्रों का समान आदर करना, अपने अनुचित व्यवहार से किसी की दृष्टि को कुपित न करना, बल्कि जिस किसी की भी दृष्टि अपने पर पड़े, उससे प्रसन्नता, आशीर्वाद और प्रेम से पेश आना, अपनी व्यष्टि नेत्र इन्द्रिय को ब्रह्माण्ड की समष्टि नेत्र-इन्द्रिय के लिये ऐसी अत्यन्त प्रीति व भक्ति से अर्पण करना कि परिच्छन्न अहंकार का अधिकार निताँत लुप्त हो जाय और समष्टि नेत्र (आदित्य) स्वयं आपके नेत्रों द्वारा ही भासमान होने लगे, यह आदित्य-देव-यज्ञ है। बृहस्पति देवता को आहुति देने से अभिप्राय अपनी व्यष्टि बुद्धि को देश की समष्टि बुद्धि के अर्पण करना है, अथवा देश की भलाई में इस प्रकार चिन्तन करना है कि जिससे हममें और हमारे देश-निवासियों में कोई अंतर न रहे और देश के कल्याण में अपना कल्याण तथा देश के आनन्द में अपना आनन्द भान होने लगे।

संक्षेपतः यज्ञ से अभिप्राय अपने आपको ठीक अपने पड़ौसी से, अपने आपको समस्त से अभेद तथा सबका आत्म-स्वरूप होने में अपने तुच्छ अहंकार का नाश अनुभव करते हुए सबको कार्य में परिणत करना है। यही है, स्वार्थता का सूली पर चढ़ना और यही है समष्टि आत्मा का पुनरुत्थान। इसका एक अंग साधारणतः भक्ति ओर दूसरा अंग ज्ञान कहलाता है।

आप स्वदेशानुरागी व स्वदेश-भक्त हुआ चाहते हैं? तब अपने आपको देश तथा देश-बन्धुओं के प्रेम में एक ताल करो, उनके साथ अपनी एकता अनुभव करो। आपकी यह परिच्छिन्न व्यक्ति की छाया भी आप में और आपके देश बन्धुओं में एक पतला काँच का पर्दा तक न होने पाये। अपने प्राणों को स्वदेश-हित में अर्पण करते हुए आप एक सच्चे आध्यात्मिक योद्धा बनिये। क्षुद्र अहंकार के त्याग स्वयं समस्त देश रूप होने पर आपके मन में जो विचार उत्पन्न होगा, वह आपका ही नहीं, किन्तु सारे देश का होगा। आप चलें, देश आपके साथ चलेगा। आप चित्त में स्वास्थ्य का ख्याल करो, आपके देश-बन्धु स्वस्थ हो जायेंगे। आपका बल उनके नस-नाड़ी में धधकने लगेगा। ओह! मुझे निश्चय करने दीजिये कि-

मैं भारतवर्ष, समस्त भारतवर्ष हूँ। भारत-भूमि मेरा अपना शरीर है। कन्याकुमारी मेरा पाँव है। हिमांचल मेरा सिर है। मेरे बालों से श्री गंगा जी बहती हैं। मेरे सिर से सिन्धु और ब्रह्मपुत्र नद निकलते हैं। विन्ध्याचल मेरी कमर के गिर्द कमर है। कुरु मण्डल मेरी दाहिनी और मालाबर मेरी बाँयी जंघा (टाँगें) हैं। मैं समस्त भारतवर्ष हूँ। इसकी पूर्व और पश्चिम दिशाएं मेरी दोनों भुजाएं हैं। मनुष्य जाति को आलिंगन करने के लिए मैं उन भुजाओं को सीधा फैलाता हूँ। आहा! मेरे शरीर का ढांचा (व आकार) है। यह सीधा खड़ा है और अनन्त आकाश की ओर दृष्टि दौड़ा रहा है। परन्तु मेरी वास्तविक आत्मा सारे भारतवर्ष की आत्मा है। जब मैं चलता हूँ, तो अनुभव करता हूँ कि यह भारतवर्ष बोल रहा है। मैं श्वास लेता हूँ, तो महसूस करता हूँ कि भारतवर्ष श्वास ले रहा है। मैं भारतवर्ष हूँ, मैं सत्य हूँ, मैं शिव हूँ।”

स्वदेश-भक्ति का यह अति उच्च अनुभव है और यही व्यावहारिक वेदान्त है।


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