परम परिश्रमी-श्रीमती तारा चेरियन

April 1966

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“क्या गृह-कार्य और समाज-सेवा के कार्य एक साथ किये जा सकते हैं?” इसी प्रकार क्या एक ही नारी, पारिवारिक क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र में स्निग्ध समन्वय स्थापित कर सकती है? -”यह प्रश्न तारा चेरियन से उनकी एक परिचिता ने किये।”

“आसानी से किए जा सकते हैं। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। यदि ऐसा सम्भव न होता तो मैं करती और कैसे अन्य नारियों ने किए और कैसे आज भी अनेक कर रही हैं।” यह उत्तर था श्रीमती तारा चेरियन का- जो इस समय मद्रास महानगर पालिका की अध्यक्षा है।

अपने पारिवारिक तथा सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों में सफल कार्य विधियों का रहस्य बतलाते हुए वे जब-तब कहा करती हैं- “मनुष्य की कार्य क्षमता का कोई परिणाम नहीं। यदि मनुष्य में अपना आत्म-विश्वास है, वह आलसी, प्रमादी अथवा दीर्घ-सूत्री नहीं है, श्रमशील और संतुलित मनः स्थिति वाला है तो कितना भी काम उस पर क्यों न आ जाय वह प्रसन्नता पूर्वक कर सकता है। इसके विपरीत जो आलसी है, निरुत्साही और अस्त-व्यस्त मनोवृत्ति वाला है वह एक घण्टे का काम भी एक दिन में नहीं कर सकता। मैं जिस समय जो काम हाथ में लेती हूँ, उसे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य मानकर करती हूँ और एक छोटे से छोटे काम को भी अपने पूरे तन-मन से निवृत्त-चित्त होकर करती हूँ। काम करने की मेरी एक क्रमिक योजना है, जिसके अनुसार मैं एक समय में एक ही काम करती हूँ और जब तक एक काम पूरा नहीं कर लेती तब तक किसी दूसरे कार्य की ओर ध्यान नहीं बंटने देती। घर के कार्यों में सार्वजनिक और सार्वजनिक कार्यों में घर के कार्य भूल जाती हूँ।”

निःसन्देह तारा चेरियन का जीवन चक्र ठीक-ठीक संतुलित गति से कर्म क्षेत्र में घूमता है। इसी तन-मन और मस्तिष्क की संतुलित अवस्था ने उन्हें घर से लेकर बाहर तक सफलताओं की मालाओं से सुसज्जित कर दिया। पाँच बच्चों की माँ और इक्यावन वर्ष की आयु होने तक वे परिवार से लेकर सार्वजनिक क्षेत्रों तक एक उत्साह और एक निष्ठा से कार्य करती आ रही है। न तो उनके किसी कार्य में निरुत्साह दिखाई देता है और न शैथिल्य।

श्रीमती तारा चेरियन मद्रास निवासिनी हैं और वीमेन्ट्र क्रिश्चियन कॉलेज की स्नातिका है। अपने शिक्षा काल में श्रीमती तारा चेरियन केवल किताबी कीड़ा ही नहीं बनी रहीं। वे कॉलेज के विविध कार्य क्रमों से लेकर खेल-कूद तक में भाग लेती थीं। उनका सदैव यह विश्वास रहा है कि जो अपने जीवन में कोई विशेष उन्नति करना चाहता है, अपने व्यक्तित्व को ठीक-ठीक विकसित करना चाहता है, तो उसे उपलब्ध कार्य-क्रमों में पूरे मन से भाग लेना चाहिए निःसंकोच और निर्मुक्त भावना से सबसे मिलना और विचार विनिमय करना चाहिये। उसे चाहिये कि वह जीभर निश्छल बालकों की तरह हँसे खेले और मनोरंजन करे। ऐसा करने से मनुष्य के मन में एक अहैतुक प्रसन्नता का निवास हो जाता है जिससे उसके स्वास्थ्य पर बड़ा ही उत्तम प्रभाव पड़ता है। व्यक्तित्व में एक चमक और प्रतिभा में प्रौढ़ता आती है। बिना हास-उल्लास और मनोरंजन के मनुष्य में एक उदासी, एक मलीनता और एक निर्जीवता घर कर बैठती है जिससे वह जीवन के किसी क्षेत्र में सफलता नहीं पा पाता।

अपने इसी विश्वास के आधार पर वे अपने कॉलेज की मूर्धन्य कार्यकर्त्री रहीं और अनेक बार मद्रास विश्व विद्यालय के सीनेट की सदस्या चुनी गई। अपनी कुशाग्रता, तत्परता और निःसंकोचता से वे अपने कॉलेज की गौरव बनी रहीं। कॉलेज की प्रत्येक प्रतियोगिता में भाग लेना, प्रत्येक कार्यक्रम में सम्मिलित होना उन्होंने अपना एक नैतिक कर्त्तव्य बना लिया था। अनेक बार प्रतियोगिताओं में असफल होने पर जब कोई उनसे पूछता क्यों तारा, अब आगे की प्रतियोगिता के लिए क्या इरादा है? तो उनका केवल एक ही उत्तर रहता था कि प्रतियोगिता की हार-जीत से प्रभावित होने वाले निर्बल-हृदय व्यक्ति होते हैं। मैं तो प्रत्येक प्रतियोगिता में बुद्धि-विकास के दृष्टिकोण से भाग लेती हूँ, किसी पुरस्कार के लोभ से नहीं।

अपने विद्यार्थी जीवन-काल के सदुपयोग का लाभ उठा कर श्रीमती तारा चेरियन ने गार्हस्थ्य-जीवन में प्रवेश किया और वे तात्कालिक मद्रास के गवर्नर की पत्नी बनीं। राजनीतिक क्षेत्र के एक महिमा पदाधिकारी की पत्नी का उत्तरदायित्व और तदनुकूल एक बड़े घर की व्यवस्था तथा प्रबन्ध कोई हँसी-खेल न था। किन्तु श्रीमती तारा की सुविकसित मनोभूमि पर उसका कोई भार न पड़ा और उन्होंने सामान्य रूप से वह महत् उत्तरदायित्व संभाल लिया। हाँ यदि श्रीमती चेरियन ने अपने कौमार्य काल में अपना मनोविकास न किया होता, तब तो यह उत्तरदायित्व उनको एक चिन्ता का विषय बन जाता, जिसको वहन करने में वे शीघ्र ही दब कर जर्जर हो जातीं।

अपने विद्यार्थी-काल में सार्वजनिक जीवन के जिस आनन्दमय सौंदर्य का दर्शन उन्होंने किया था, वह अपने पारिवारिक जीवन में न भूल सकीं। उसकी आत्मा निरंतर जन-सेवा के कार्य करने के लिये सदैव लालायित रहती। वे अपनी योग्यताओं और क्षमताओं को सार्वजनिक कार्यों में उपयोग करना चाहती थीं। उनको अपनी इच्छा के लिये कोई प्रतिबन्ध अथवा बाधा तो थी नहीं। तब भी अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व को तिलाँजलि देकर उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र में उतरना उचित नहीं समझा।

कुछ समय बाद जब बच्चे कुछ सयाने हो गये, तब उन्होंने सार्वजनिक कार्यों में अभिरुचि लेना प्रारम्भ किया। सबसे पहले अपनी विद्या, बुद्धि एवं अनुभव के विकास के लिये उन्होंने विदेश यात्रा की। जिसमें वे ब्रिटेन, बर्लिन और सान्फ्राँसिस्को में विशेष रूप से घूमी। अपनी विदेश-यात्रा के समय उन्होंने मनोरंजक स्थानों की अपेक्षा जन-सेवी संस्थाओं को अधिक महत्व दिया। मनोरंजक कार्यक्रमों में भाग लेने के बजाय उन्होंने समाज-सेवा के स्थलों और कार्य-विधियों का गम्भीरता के साथ अध्ययन किया। जिसका लाभ उन्होंने अपनी समाज-सेवाओं में उठाया।

विदेशों से वापिस आने पर उनकी योग्यता का लाभ उठाने के लिये अनेक संस्थाओं ने उन्हें अपने में सम्मिलित करने के लिये आमन्त्रित किया। श्रीमती तारा चेरियन ने पहले ‘एग्मोर’ स्थित महिलाओं और बच्चों के अस्पताल के सलाहकार मण्डल की अध्यक्षा के रूप में पदार्पण किया। अपनी कार्यकुशलता से श्रीमती चेरियन ने संस्था में चार-चाँद लगा दिये। उनका कार्यक्रम अध्यक्ष के कार्यालय तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि वे अस्पताल में प्रत्येक स्त्री-बच्चे के पास स्वयं जातीं, उनका दुःख-सुख पूछतीं और यथासम्भव दूर करने का प्रयत्न करतीं। उन्होंने अस्पताल की कमियों को दूर किया और अपने उदाहरण से कार्यकर्त्ताओं तथा कर्म-चारियों में सच्ची सेवा-भावना का जागरण किया। श्रीमती चेरियन की सहानुभूतिपूर्ण सेवा भावना का ही यह परिणाम है कि वे उक्त अस्पताल के सलाहकार-मण्डल की बीस वर्ष तक अध्यक्षा रहीं।

श्रीमती तारा चेरियन के सेवा कार्यों से प्रभावित होकर नगर की हर संस्था ने किसी न किसी रूप में उन्हें अपने में पाकर अहोभाग्य माना। इस समय वे नगर की किसी संस्था की अध्यक्षा हैं, तो किसी की मन्त्राणी! निरन्तर सेवा कार्यों में निरत रहने से श्रीमती तारा चेरियन इतनी लोक-प्रिय हो गई कि अभी हाल के चुनाव में मद्रास की जनता ने उन्हें नगर-महापालिका का अध्यक्ष मनोनीत किया।

अध्यक्ष पद का कार्य-भार सँभालते समय श्रीमती चेरियन ने जो कहा, वह वास्तव में किसी भी समाज-सेवी संस्था अथवा व्यक्ति के लिये अनुकरणीय है। उन्होंने कहा-मद्रास की स्नेही जनता ने जो गम्भीर उत्तरदायित्व मुझे सौंपा है, वह कोई साधारण कार्य नहीं है। यों तो यदि साधारण दृष्टि से देखा जाये तो महा-नगरपालिका का अध्यक्ष-पद एक अभिमाननीय नागरिक सम्मान है। और यदि अनुत्तर दायित्वपूर्ण ढंग से इस पद का सुख लिया जाये तो यह फूलों की सेज जैसा सुखद लग सकता है। किन्तु यह सम्मान, यह गौरव मुझ जैसे उत्तरदायी बुद्धि वाले व्यक्ति के लिए किसी काँटों की सेज से कम नहीं है। नगर के जन-जन के स्वास्थ्य-सुविधा की चिन्ता, बच्चों की शिक्षा, जनता के कष्ट निवारण की व्यवस्था की जिम्मेवारी कोई सुखदायक प्रसंग नहीं है। अच्छा होता, यदि मुझे इस पर न चुना जाता। किन्तु जब जनता ने मुझे इस उत्तरदायित्व योग्य समझा है तो मैं अपने सच्चे तन-मन से इसका निर्वाह करने में कोई कमी न रहने दूँगी।

महा-नगरपालिका का अध्यक्ष पद सँभालने के दिन से ही श्रीमती तारा चेरियन ने अपने नगर-कल्याण के सेवा-कार्यों में स्वयं को डुबा दिया। वे जब तब नगर का दौरा करतीं, गन्दी और गरीब बस्तियों को देखतीं, उनके सुधार की व्यवस्था करतीं और असहायों को सहानुभूति के साथ सहायता प्रदान करतीं। विकलाँगों की सहायता उनके कार्यक्रम का विशेष अंग है। जो निरुपाय, असहाय, पराश्रित हैं, ऐसे अपंगों की सेवा मानवता की सबसे महान सेवा है। यह एक समाज-सुधार कार्य होने के साथ धार्मिक पुण्य भी है।

जो विकलाँग अनुपयोगी होकर समाज पर एक भार बने रहते हैं, वे जब सहायता, सहानुभूति पाकर उपयोगी बन जाते हैं, तब समाज को उससे अधिक लाभ पहुँचाते हैं, जितना कि एक शुभाँग व्यक्ति पहुँचा सकता है। विकलाँगों की इन्द्रियाँ स्वभावतः संयमित एवं वृत्तियाँ एकाग्र होती हैं। वे जिस काम को अपनाते हैं, उसमें शीघ्र ही दक्षता प्राप्त कर लेते हैं और एक अनुकरणीय तल्लीनता से कार्य करते हैं। साथ ही जो व्यक्ति उनके साथ सहानुभूति दिखलाता है, उनकी सेवा और सहायता करता है, वह भी स्वभावतः संयमित वृत्तियों वाला बन जाता है। उनको देखकर जो करुणा उत्पन्न होती है, उससे आत्मा परिष्कृत एवं परिमार्जित होती है। मनुष्य उनकी असहायता की तुलना में अपने पूर्णांग देखकर परम पिता परमात्मा के प्रति कृतज्ञ होता है, जिससे उसमें श्रद्धा तथा भक्ति का उद्रेक होता है। इसके अतिरिक्त विकलाँगों की निश्छल आत्मा से निकला हुआ आशीर्वाद समाज-सेवियों के हित में एक आध्यात्मिक कल्याण का सम्पादन किया करता है।

श्रीमती तारा चेरियन विकलाँग सेवा के इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं। उन्होंने उनके लिये अनेक आश्रमों एवं कार्य-शालाओं की स्थापना का प्रयास किया, उनकी आर्थिक तथा शारीरिक सहायता की व्यवस्था की।

एक सुसंस्कृत, संभ्रान्त एवं सभ्य समाज की रचना के दृष्टिकोण से उन्होंने स्कूली बच्चों की ओर समुचित ध्यान दिया, उनकी शिक्षा पद्धति में सरलता एवं सानुकूलता का समावेश कराया। उनके स्वास्थ्य के लिये दोपहर में पोषक तत्वों से पूर्ण स्वल्पाहार की व्यवस्था कराई, जिसके फलस्वरूप बच्चों के स्वास्थ्य में ध्यानाकर्षण सुधार हुआ। स्वास्थ्य में सुधार होने से बच्चों में पढ़ने की रुचि बढ़ने लगी, जिसको देखकर प्रायः सभी नागरिक अपने बच्चों को पाठशाला भेजने के लिये समुत्सुक होने लगे।

महा नगरपालिका की अध्यक्षा होने के साथ-साथ श्रीमती तारा चेरियन—महिला कल्याण विभाग, बाल मन्दिर, स्कूल आफ शोसल-वर्कस एण्ड द गिल्ड आफ सर्विस, भारतीय समाज सेवा संगठन, अखिल भारतीय महिला खाद्यान्न परिषद्, क्षेत्रीय पर्यटन सलाहकार समिति तथा जीवन-बीमा निगम की सलाहकार परिषद् की अभिभाविका एवं कार्यकर्त्री भी हैं।

इन सारी संस्थाओं का कार्य वे आत्म-विश्वास, परिश्रम, कार्य-निष्ठा और सत्य-सेवा-भाव के बल पर सुचारु रुप से कर रही हैं।


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