शिष्टाचार ही मानवता की पहचान है।

April 1966

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शिष्टता मनुष्यता की सबसे बड़ी पहचान है। मनुष्य को मनुष्य की तरह ही रहना शोभा देता है। जो मनुष्य होता हुआ भी अपने शील स्वभाव को उसके अनुरूप नहीं ढालता वह पशु से भी गया गुजरा होता है।

पशु तो पशु होता है। उसमें वह विवेक बुद्धि नहीं होती जिसके बल पर वह अपने आचार को सुन्दरता के साँचे में ढाल सके। उसको प्रकृति ने जैसा बना दिया, वह आदि से अन्त तक उसी प्रकार का बना रहता है। इस नैसर्गिक विवशता के कारण उसको किसी आचार के लिये दोष भी नहीं दिया जा सकता।

किन्तु मनुष्य को परमात्मा ने एक विशेष विवेक-बुद्धि दी है—इसलिए कि वह अपनी जड़ता का परिष्कार करके सुन्दर एवं सभ्य बने। यदि वह अपनी इस विवेक विशेषता को काम में लाकर अपने शील स्वभाव को परिष्कृत नहीं करता तो उसे उसी प्रकार क्षमा नहीं किया जा सकता जिस प्रकार हाथ-पैर सक्षम एवं अक्षत रहने पर भी पराश्रित व्यक्ति के आलस्य एवं प्रमाद को। मनुष्य कितना ही महान एवं धनवान क्यों न हो यदि वह अकारण आलस्यवश किसी पर करणीय कार्यों के लिए बोझ बना रहता है तो आलोचना का पात्र है। उसको कोई भी पसन्द नहीं करेगा।

इसी प्रकार बुद्धि विवेक के अक्षत होने पर भी जो असभ्य हैं, अशिष्ट और शील रहित है वह भर्त्सना का पात्र है। यह बात दूसरी है कि अन्य लोग परिस्थिति वश उसकी अशिष्टता अथवा दुःशीलता को शिष्टता और सभ्यता के नाते भले ही सहन कर लें और उस पर कोई टीका-टिप्पणी न करें, किन्तु मन ही मन उससे घृणा अवश्य किया करते हैं। उसके संपर्क में आने से बचते हैं। यह भी एक प्रकार का मानसिक बहिष्कार है। जिसको कोई अपनी धृष्टता अथवा दुर्बोधता के कारण भले ही महत्व न दे पर यह होता है बहुत ही अपमानजनक दण्ड।

मौन मानसिक बहिष्कार, खुले बहिष्कार से कहीं अधिक भयानक होता है। खुले बहिष्कार में मनुष्य को अपनी स्थिति तथा उसमें होने वाली हानियों का ज्ञान रहता है जिससे उसको अपने सुधार की प्रेरणा मिलती रहती है और आगे पीछे वह अपना सुधार कर भी सकता है। किन्तु जो मौन मानसिक बहिष्कार का शिकार होता है उसे अपनी स्थिति की जानकारी नहीं रहती जिससे वह आत्म-सुधार की प्रेरणा से भी वंचित रह जाता है।

यह भी कोई जिन्दगी है कि लोग शील-स्वभाव की गन्दगी के कारण हमें घृणा करें। सामने आने पर बचने का प्रयत्न करें। बात करने से मुँह बचायें और कम से कम संपर्क में आने का प्रयत्न करें। अब कोई यदि ऐसी जिन्दगी अपने अशिष्टाचार के कारण बनाये रखना चाहता है तो उस पर तरस खाने के सिवाय और क्या कहा जा सकता है?

मानवीय जिन्दगी तो वास्तव में यह है कि लोग देखते ही खुश हो जायें। मिलते ही स्वागत करें। बात करने में आनन्द अनुभव करें और साथ संपर्क से तृप्त न हों। एक बार मिलने पर दुबारा मिलने के लिए लालायित रहें। फिर मिलने का वचन माँगें। इस प्रकार की प्रियता पूर्ण जिन्दगी उसी को मिलती है जो मनुष्यता के पहले लक्षण शिष्टाचार को अपने व्यवहार में स्थान देता है।

अशिष्टाचारी से तो लोग मरखने बैल की तरह बचने का प्रयत्न करते हैं। न जाने किस समय वह ऐसी बात कह दे जो तीर की तरह चुभ जाये, न जाने वह किस वक्त अपमान कर बैठे और न जाने वह किस वक्त कोई ऐसी हरकत, ऐसी मुद्रा और ऐसा प्रदर्शन कर उठे जिससे मानसिक विषण्णता और हार्दिक विक्षोभ उत्पन्न हो जाये। कोई किसी से अकारण अपमानित अथवा क्षोभ-विक्षोभ पाने के लिए क्यों तैयार होगा? और क्यों कोई उसको पसन्द करेगा? असभ्य तथा अशिष्टाचारी से इस प्रकार की सम्भावना हर समय बनी रहती है। इससे हर भला आदमी उससे बचे रहने में ही कल्याण देखता है।

अशिष्ट और शिष्ट के विषय में उनके मिलने पर होने वाली मानसिक प्रतिक्रिया को गोस्वामी तुलसीदास जी ने जिन मार्मिक शब्दों में व्यक्त किया है वह सर्वथा उचित ही है—

मिलत एक दारुण दुख देहीं। विछुरत एक प्रान हरि लेहीं॥

वास्तव में अशिष्ट का मिलन एक बड़े दुःख का ही कारण होता है। अशिष्ट स्वभावतः धृष्ट भी होता है और उसकी धृष्टता को तब तक सन्तोष नहीं होता, तब तक चैन नहीं पड़ती जब तक वह किसी के अकारण कष्ट अथवा अपमान का हेतु नहीं बन लेती।

मर्यादाहीन रहना, नियमों का पालन न करना और अनधिकार चेष्टा करना कोई भी अशिष्ट अपना अधिकार समझता है। कठोर तथा तीखे वचन बोलना, दुराग्रह करना, किसी की दुःख तकलीफ का उपहास उड़ाना, किसी की कमी से मनोरंजन करना, किसी की मान-मर्यादा का विचार न रखना, सबको एक लकड़ी से हाँकना, अपने को सबसे ऊपर मानना, यह सब अशिष्टता के ही लक्षण हैं।

शिष्ट व्यक्ति सबसे यथोचित व्यवहार करता है। वह अपनी और दूसरों की सीमाओं का ध्यान रखता है। मर्यादा के उल्लंघन को बुरा मानता है। हर बात को हल्के और व्यंग-विनोद के ढंग से लेना ओछापन समझना है। कठोर वचन और कर्कश व्यवहार उसकी आचार परिधि में नहीं आते। सभ्यता एवं सामयिकता का निर्वाह वह मनुष्यता का विशेष लक्षण मानता है। अपने किसी व्यवहार से किसी को कष्ट न देने में विश्वास करता है। “न दुःख दो और न दुःख पाओ” उसका जीवन सिद्धाँत रहा करता है।

यथौचित्य का विचार रखने वाला, दूसरे की मान मर्यादा तथा मान्यताओं का आदर करने वाला, संसार में सबकी सद्भावना, सहायता एवं सहयोग का सहज अधिकारी बना रहता है। जो किसी का सम्मान करता है, उसकी मर्यादा एवं मान्यताओं की रक्षा करता है वह बदले में अपनी मर्यादा एवं मान्यताओं की सुरक्षा पाता है।

बड़ों के प्रति आदरपूर्वक विनम्रता दिखाना छोटों को स्नेहित व्यवहार से गदगद करने में अपनी जेब से क्या जाता है? किन्तु मिलता क्या है—वृद्धों की करुण आत्मा से निकले हुये हजारों आशीष, लाखों सद्भावनायें और अपरिमित सद्भावनायें। छोटों की सारी सेवा-भावना और आदर भाव की मूल्यवान् निधि आप से आप मिल जाती है।

अपने से बड़ों को दादा, बाबा, पूज्यनीय, आदरणीय मान्य, श्रीमान् आदि सम्मान सूचक सम्बोधनों को देने—बराबर वालों को भाई, बन्धु, प्रियवर कहने—छोटों को बेटे, पुत्र, बच्चे, बाबू आदि प्रिय शब्द प्रयोग करने और उनके साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार करने में क्या खर्च होता है? उल्टा अपने हृदय में ही एक शीतलता, सुख और मधुरता का अनुभव होता है।

नारियों के प्रति संकोच शील रहने, आयु एवं स्थिति के अनुसार उन्हें माता, बहन, बेटी आदि उपयुक्त शब्दों से सम्बोधित करने में जाता तो क्या है—उल्टे उनका आशीर्वाद एवं स्नेह सौजन्य ही प्राप्त होता है।

बिना किसी विशेष प्रयत्न अथवा व्यय के जो शिष्टाचार समाज में आदर, सम्मान, सहानुभूति तथा सद्भावना उपलब्ध करा सकता है उसे अपनाया न जाये—यह बात किसी प्रकार भी समझ में नहीं आती। शिष्टाचारी सहज ही सामाजिकता तथा नागरिकता के अधिकार पाये रहता है।

शिष्टाचार कोई दुरूह विज्ञान नहीं है जिसे विशेष प्रकार से सीखना अथवा अभ्यास करना पड़े। वह तो एक साधारण व्यवहार मात्र है। आदर तथा स्नेहपूर्ण यथौचित्य का निर्वाह करते रहना ही शिष्टाचार है। विनम्रता, मधुरता तथा सौहार्द का सार व्यवहार शिष्टाचार है और इसके विरुद्ध कर्कश अनुचित तथा कष्टकर व्यवहार अशिष्टता है।

क्या व्यवहार शिष्ट है और क्या अशिष्ट है, इसको हर एक सहज रूप से जानता है। कोई यह नहीं कह सकता कि वह शिष्टाचार के नियम नहीं जानता। जिस व्यवहार में किसी को किसी प्रकार का कष्ट होने का भय है और जो व्यवहार दूसरों को शीतल, सन्तुष्ट तथा सुखी करे वह शिष्टाचार है। यह मोटी-सी परिभाषा समझ लेना कठिन नहीं। व्यवहार करते समय उसे अपने पर घटाकर परख लिया जाये कि यह किसी के लिए कष्टकर होगा अथवा सुखकर, बस उसी अनुभव के आधार पर शिष्टाचार तथा अशिष्टाचार का ध्यान रखकर व्यवहार करें। कभी भूल न होगी।


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