शिशु-निर्माण-माता के गर्भ में

April 1966

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शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरञ्जनोऽसि संसारमाया परिवर्जितोऽसि। संसारस्वप्नं त्यज मोहनिद्राँ मदालसा वाक्यमुवाच पुत्रम्॥

“हे पुत्र! तू अपनी जननी मदालसा के शब्द सुन! तू शुद्ध है, बुद्ध है, निरञ्जन है, संसार की माया से रहित है। यह संसार स्वप्न मात्र है। उठ, जाग्रत हो, मोह निद्रा का परित्याग कर। तू सच्चिदानन्द आत्मा है, अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर।”

देवी मदालसा का नाम भारतवर्ष की उन आदर्श नारियों में लिया जाता है जिन्होंने अपने बालकों के निर्माण में आत्म-ज्ञानी गुरु की भूमिका निभाई है। वस्तुतः पुत्र के लिये पथ-प्रदर्शक, मार्ग-दर्शन, सृष्टा और निर्माता सब माता ही है। शरीर का रस रक्त-जीवन प्राण-तत्व लेने के साथ ही गुण और साँसारिक ज्ञान भी बच्चे को प्रायः माता से ही प्राप्त होते हैं। बच्चा बहुत दिनों तक, जब तक कि उसकी स्वतन्त्र विचार-शक्ति पकने नहीं लगती तब तक वह माता के पास ही रहता है। गुण और संस्कारों का परिपाक बाद में होता है पर उनका निर्माण तो माँ ही करती है। संस्कारों की पूर्व सूत्रधार माता ही है। वह जिस तरह के संकल्प और विचार बच्चे में पैदा करती है, वैसी ही उसमें ग्रहणशीलता का आविर्भाव हो जाता है और बाद में उसी तरह के तत्व वह संसार में ढूँढ़कर अपने संस्कार जन्य गुणों का अभिवर्द्धन करता है इसलिये यही कहना पड़ेगा कि मनुष्य आज जिस स्थिति में है उसका श्रेय अधिकाँश उसकी माता को ही है। संस्कारवान माताएं बच्चों के चरित्र की नींव बाल्यावस्था में डालती हैं जबकि उन्हें दिक्भ्रान्त कर आचरणहीन बनाने में भी प्रमुख हाथ उन्हीं का रहता है।

सन्तान के रूप में जीवात्मा का अवतरण और उसकी विकास-यात्रा में योग देना माता-पिता की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। पिता गर्भ-धारण में केवल सहयोग प्रदान करता है बाद में उस गर्भ को पकाने का कार्य माता ही करती है, इसलिए पिता की अपेक्षा माता का उत्तरदायित्व अधिक है। बिना उचित ज्ञान और स्थिति की जानकारी हुए माता इस कर्त्तव्य का भली-भाँति पालन कर सकती होंगी यह अविश्वस्त है। अतएव महिलाओं को यह ज्ञान होना नितान्त आवश्यक है कि सन्तान काम-वासना का परिणाम नहीं है, काम तो एकमात्र प्रेरक तत्व है जो एक आत्मा के अवतरण के लिए माता-पिता को प्रेरित करता है।

गर्भ में आने पर सन्तान का शरीर बढ़ता है, शरीर में उसका मस्तिष्क का भाग भी है इसलिए मानसिक-क्रिया का संचालन भी उसी समय से प्रारम्भ हो जाता है। जीव अनेक योनियों में रहने के बाद जब साँसारिक विषमताओं से थक जाता है तो उसकी इच्छा होती है कि वह आत्मकल्याण प्राप्त करे, ऐसा सुयोग केवल मनुष्य-जीवन में ही सम्भव है क्योंकि आत्म-विकास के सम्पूर्ण साधनों का संकलन केवल मनुष्य देह में हुआ है। शरीर की स्थिति सामान्य जीवों की तरह होते हुए भी बौद्धिक ज्ञान का आविर्भाव होना, उसके लिए सबसे बड़ा सहयोग है उसी के द्वारा वह मनुष्य योनि में अपना ज्ञान विकसित करता है और ज्ञान के आधार पर ही आचरण करता है। दोनों का ठीक समन्वय होने पर ही आत्म-कल्याण की स्थिति प्राप्त करना सम्भव है। ज्ञान और आचरण श्रेष्ठ तभी हो सकता है जब पूर्व में बच्चे को तद्नुकूल शिक्षा दी गई हो। जिस प्रकार संस्कृत की शिक्षा प्राप्त बच्चा अंग्रेजी नहीं बोल सकता, उसी प्रकार यदि बच्चे को पूर्व में ही संस्कारवान नहीं बनाया गया तो बाद में उसके ज्ञान और आचरण में श्रेष्ठता पैदा करना प्रायः असम्भव ही होता है।

गर्भावस्था में बच्चा अपने माता के केवल प्रकट आचरण से ही प्रभावित नहीं होता, उससे तो बहुत हलका असर बालक की मनोभूमि पर पड़ता है, अधिकाँश प्रभाव तो मानसिक भावनाओं और विचारणाओं का होता है। नारी की मनोभूमि को व्यवस्थित रखने में उसके पति और परिजनों की जिम्मेदारी भी कम नहीं है, पर प्राणवान और संकल्पशील माताएं अपने बच्चे के लिए परिस्थितियों की अपेक्षा भी कर सकती हैं जो उसके मस्तिष्क में विषाद उत्पन्न कर सकती थीं। घर के अमंगल वातावरण को भी वे गर्भस्थ बच्चे के कल्याण के लिये पचा सकती हैं और उनकी अपने पर छाप न पड़ने देकर निष्ठापूर्वक अच्छे विचार अच्छी भावनायें और पवित्र जीवन बिता सकती हैं। इसी निष्ठा का बालक के निर्माण में उपयुक्त प्रभाव होता है। ऐसे ही बच्चे दृढ़-निश्चयी, मनोजयी और संकल्पवान् होते हैं, वही आगे चलकर श्रेष्ठ और प्रतिभावान भी बनते हैं।

यह तभी सम्भव है जब माँ यह ध्यान करे कि उसकी कोख में आई हुई सन्तान माँस-पिण्ड नहीं है। उसे अपनी सम्पत्ति भी न समझे। यह नासमझ उसे गलत कर्त्तव्य के लिये भी उत्साहित कर सकती हैं। वस्तुतः सन्तान परमात्मा की धरोहर के रूप में मिलती है। यदि उससे आत्म-कल्याण में सहयोग बन पड़े तो यह परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ सेवा हुई। कदाचित उसकी उपेक्षा हुई तो यह मानना पड़ता है कि माँ ने मातृत्व की कसौटी को सही सिद्ध नहीं किया। उसने वस्तु स्थिति समझने में भूल की।

सुयोग्य बालक ही राष्ट्र के सुयोग्य नागरिक बनते हैं। अच्छे बीजों से उत्पन्न खेती ही अच्छी होती है। सुयोग्य सन्तान होना बहुत कुछ इस बात पर अवलम्बित है कि माताएं भी सुयोग्य हों और बालक के निर्माण की प्रचुर क्षमता और आवश्यक ज्ञान भी उन्हें हो। स्वास्थ्य रहने, स्वच्छता प्रिय होने, व्यवहार कुशल, मधुर-भाषिणि, कर्मनिष्ठ, सादगी प्रिय होना यह सभी आवश्यक गुण एक सुयोग्य माता में हों पर साथ-साथ उसका संकल्प बल भी प्रखर हो और वह संकल्प शिशु को एक आत्मा के रूप में ध्यान रखकर ही हो। संकल्प तो साँसारिक और स्वार्थपरक भी हो सकता है पर ऐसा होना एक प्रकार का विकार है जो जीवात्मा के दुःख का कारण भी हो सकता है। सुयोग्यता का आधार पवित्रता और आध्यात्मिकता ही होना चाहिए।

आध्यात्मिकता का अर्थ है नारी में मातृत्व के सभी आवश्यक गुणों का समावेश होना। प्रेम, स्नेह, आत्मीयता, वात्सल्य, आस्तिकता आदि सभी गुण उसी के अंतर्गत हैं। नारी जीवन में इसका समावेश होने पर ही यह सम्भव है कि वह अपने बच्चे को शुद्ध, प्रबुद्ध निरंजन और आत्म-स्थित होने का उपदेश दे सके। आत्मवादी या ब्रह्म-परायण होना, साँसारिक कर्त्तव्यों से विमुख होना नहीं है वरन् उसमें दिव्य जीवन के प्रति दृढ़ता उत्पन्न करना है इसीलिए माताओं को कर्त्तव्य-परायण होने के साथ-साथ ईश्वर-परायण होना भी आवश्यक है। इस प्रकार का समन्वय होने से ही गर्भस्थ शिशु के निर्माण की आवश्यकता को पूरा किया जा सकता है।


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